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    यमुना की Biodiversity के लिए खतरा बन गया है यह विदेशी पौधा, हरियाली के लिए अंग्रेज लेकर आए थे भारत

    By SANJEEV KUMAR GUPTAEdited By: Kushagra Mishra
    Updated: Mon, 23 Jun 2025 12:55 PM (IST)

    दिल्ली में प्रदूषण के अलावा विदेशी आक्रामक पौधे भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं। विलायती कीकर, सुबबूल, लैंटाना, गाजर घास और जलकुंभी जैसी पांच प्रजातियां, जो अलग-अलग समय पर लाई गई थीं, अब जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा बन गई हैं। ये पौधे तेजी से बढ़ते हैं और स्थानीय वनस्पतियों को पनपने नहीं देते, जिससे biodiversity कमजोर होती है। इन्हें हटाने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा है।

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    यमुना में लगाई जलकुंभी तेजी से फैलती है और पानी में ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से कम होती है।

    संजीव गुप्ता, नई दिल्ली : राजधानी Delhi में केवल वाहनों के धुएं और सड़कों पर उड़ने वाली धूल से ही खतरा नहीं है। हरियाली के रूप में आईं विदेशी पौधों की आक्रामक प्रजातियां भी दिल्ली की आबोहवा को नुकसान पहुंचा रही हैं।

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    विलायती कीकर, सुबबूल, लैंटाना, गाजर घास और जलकुंभी सरीखे पर्यावरण के ऐसे पांच पौधों की पहचान विशेषज्ञों की ओर से की गई है।

    इनमें से लैंटाना और जलकुंभी को उन्नीसवीं सदी के पहले दशक से अंतिम दशक के बीच अंग्रेजों की ओर से भारत लाया गया था , जबकि बिलायती कीकर को 1930 के आसपास दिल्ली में हरियाली बढ़ाने के लिए अंग्रेज लाए थे।

    वहीं, गाजर घास 1950 के दशक में अमेरिका से आयातित गेहूं के साथ भारत आई थी। इसी तरह सुबबूल को 1980 के दशक में हवाई से भारत लाया गया था। इन सभी पौधों का मूलस्थान दक्षिण अमरीका है। अब यह पौधे राजधानी दिल्ली ही नहीं, देश में अधिकांश राज्यों में biodiversity के लिए बड़ा खतरा बन गए हैं।

    विदेशी पौधे स्थानीय पौधों को पनपने नहीं दे रहे

    पेड़-पौधे वातावरण को साफ करने और तापमान को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, लेकिन, ये आक्रामक प्रजातियां बहुत ही तेजी से बढ़ती हैं और स्थानीय प्रजातियों को अपने नीचे या आसपास पनपने नहीं देती हैं।इससे स्थानीय biodiversity प्रभावित होती है।

    हैरानी की बात यह है कि अलग-अलग समय पर हरियाली बढ़ाने या सजावट के लिए दिल्ली लाई गईं यह प्रजातियां अब बड़ी मुसीबत बन गई हैं और इन्हें हटाने के लिए अलग-अलग प्रयोग किए जा रहे हैं।

    सुबबूल का पौधा तो अभी कुछ वर्ष पहले तक पौधारोपण अभियानों में भी शामिल किया जाता रहा है। जलीय जीवन पर जिन वनस्पतियों के चलते संकट छाया है, उनमें से जलकुंभी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

    बताया जाता है कि एक अंग्रेज गवर्नर की पत्नी द्वारा आसपास की खूबसूरती बढ़ाने के लिए इसे भारत लाया गया था। बाद में यह भारत की तमाम नदियों और जलाशयों के लिए मुसीबत बन गए।

    यमुना से जुड़े जलाशयों के लिए जलकुंभी बनी मुसीबत

    दिल्ली में भी नजफगढ़ ड्रेन से लेकर यमुना से जुड़े जलाशय वाले कई हिस्सों में जलकुंभी (Common water hyacinth) मुसीबत बनी हुई है। यह वनस्पति पानी के ऊपर की पूरी सतह घेर लेती है, जिसके चलते सूरज की रोशनी पानी के अंदर नहीं पहुंच पाती। इससे पानी में घुली ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और जल में पनपने वाला जीवन नष्ट होने लगता है।

    गाजर घास या पार्थेनियम भी एक विदेशी खरपतवार है, जो फसलों को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाती है। इंसानी सेहत के लिए भी इसे बेहद नुकसानदायक माना जाता है।

    माना जाता है कि कभी अमरीका से आयात किए गए गेंहू के साथ इसके बीज भारत पहुंचे और तेजी से फैलने वाले आक्रामक स्वभाव के चलते कुछ ही वर्ष में यह भारत के बड़े हिस्से में पहुंच गए।

    बायोडायवर्सिटी बचाने के लिए इन्हें हटाने के चलाते हैं अभियान

    दिल्ली में यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क जैसे हिस्सों में इन्हें हटाने के लिए नियमित अभियान चलाए जाते हैं। विदेशी आक्रामक पौधों को हटाने के लिए हो रहे प्रयोग डीडीए द्वारा संचालित यमुना जैव विविधता पार्क, कमला नेहरू रिज और अरावली बायोडायवर्सिटी पार्क में विलायती कीकर को हटाने के लिए कैनोपी ओपनिंग तकनीक का मुख्यतः प्रयोग किया गया है।

    इस तकनीक में विलायती कीकर की कैनोपी को ऊपर से खोल दिया जाता है, ताकि सूरज की रोशनी नीचे तक पहुंचे और नीचे स्थानीय घास व पौधे लगाए जा सकें।

    वहीं, लैंटाना के लिए कट रूट स्टाक मेथड का प्रयोग किया जा रहा है। इसमें लैंटाना की झाड़ियों को नीचे से काटकर उन्हें उलटकर रख दिया जाता है, ताकि, वे सूख जाएं और आगे नहीं फैले।

    दिल्ली का हरित क्षेत्र

    • करीब 371 वर्ग किमी-दिल्ली के भौगोलिक क्षेत्र का 25 प्रतिशत हिस्सा है हरा-भरा
    • तीन लाख से ज्यादा है दिल्ली में पेड़ों की संख्या
    • इस साल रखा गया है 70 लाख से ज्यादा पौधारोपण का लक्ष्य

    विदेशी आक्रामक प्रजाति के पेड़-पौधे स्थानीय पौधों को कमजोर कर उन्हें खत्म कर देते हैं। पारिस्थितिक तंत्र भी कमजोर होता है। इसलिए विदेशी आक्रामक प्रजातियों को हटाने के साथ स्थानीय प्रजातियों को बढ़ावा देने पर भी जोर होना चाहिए।

    - डाॅ. फैयाज ए खुदसर, प्रभारी विज्ञानी, जैव विविधता पार्क कार्यक्रम, दिल्ली विश्वविद्यालय