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झारखंड में अपनों से ही लड़ती रही भाजपा, बड़े नेताओं में किसी को पत्नी की चिंता थी तो किसी को बेटे की

झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास कोष तो था किंतु बाकी चीजें नदारद थीं। बड़े स्थानीय नेताओं की चिंता अपनों तक ही सीमित रही। अर्जुन मुंडा को पत्नी की चिंता थी और चम्पाई सोरेन को बेटे की। बाबूलाल मरांडी को जेवीएम से आए नेताओं का फिक्र था। रघुवर दास को तो पहले ही ओडिशा के राजभवन में भेजकर दर्शक दीर्घा में बिठा दिया गया था।

By Jagran News Edited By: Jeet Kumar Updated: Sun, 24 Nov 2024 07:46 AM (IST)
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झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा में समन्वय का अभाव दिखा (फोटो- जागरण)
अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। चुनाव जीतने के लिए कार्यकर्ता, कार्यक्रम, कोष और कार्यकारिणी की जरूरत पड़ती है। झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास कोष तो था, किंतु बाकी चीजें नदारद थीं। रणनीति बनाने से लेकर क्रियान्वित करने तक की जिम्मेवारी वैसे नेताओं के पास थी, जो बाहर के थे और झारखंड की संवेदनशीलता को नहीं समझ पाए।

बड़े स्थानीय नेताओं की चिंता अपनों तक ही सीमित रही। अर्जुन मुंडा को पत्नी की चिंता थी और चम्पाई सोरेन को बेटे की। बाबूलाल मरांडी को जेवीएम से आए नेताओं का फिक्र था। रघुवर दास को तो पहले ही ओडिशा के राजभवन में भेजकर दर्शक दीर्घा में बिठा दिया गया था। सारे शीर्ष नेता पहले अपने-अपने चहेतों को प्रत्याशी बनाने के लिए अड़े-लड़े और टिकट मिलने के बाद क्षेत्र विशेष में सिमट गए। इनके वंशवादी व्यवहार के बीच साधारण कार्यकर्ता कोने में खड़ा होकर तमाशा देख रहा था।

पोस्टर के लिए नौ स्थानीय चेहरे फाइनल किए गए थे

बाबूलाल के साथ जेवीएम से आए नेताओं-कार्यकर्ताओं को भाजपा के लोग नहीं पसंद थे और असली भाजपाई बाहरी को तरजीह मिलने पर कुढ़ रहे थे। जेवीएम और भाजपा कार्यकर्ताओं का मन-मिजाज मिलाने का प्रयास नहीं किया गया। हुसैनाबाद में भाजपा बढि़या कर रही थी, किंतु अंतिम समय में एनसीपी से कमलेश सिंह को लाकर प्रत्याशी बना दिया गया। पोस्टर के लिए नौ स्थानीय चेहरे फाइनल किए गए थे। उनमें सुनील सिंह को छोड़कर सब देर सबेर इधर-उधर से लाए हुए थे। मीडिया में बात उठी तो सारे पोस्टरों को संदूक में बंद कर दिया गया। मतलब साफ कि मंचों-सभाओं में बाहरी नेताओं के चेहरे चमकते रहे।

अधिकतर प्रभारी भी अपने क्षेत्र में नहीं गए। जो गए भी तो उन्हें क्षेत्र का ज्ञान नहीं था। विकास प्रीतम उदाहरण हो सकते हैं, जिन्हें दिल्ली से लाकर पलामू में बिठा दिया गया। जाहिर है, भाजपा को झारखंड में जो कुछ भी हासिल हुआ है, उसका श्रेय शिवराज सिंह चौहान को दिया जा सकता है। अंतिम समय में लगकर उन्होंने स्थिति को काफी हद तक संभाला। मृत संगठन में ऊर्जा फूंकने का प्रयास किया, लेकिन तब तक देर हो गई थी।

संगठन की दुर्गति

झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार की कहानी शुरू हुई लोकसभा चुनाव के ठीक पहले, जब नए निजाम बाबूलाल ने सारे जिलाध्यक्षों को बदल दिया। इसमें जेवीएम से आए लोगों को तरजीह देते हुए उन्हें हजारीबाग, बोकारो, चतरा, धनबाद (धनबाद ग्रामीण समेत) और गोड्डा का जिलाध्यक्ष बना दिया गया।

लोकसभा में तो मोदी मैजिक था। नतीजा ज्यादा उल्टा नहीं आया, किंतु गलती का दोहराव करते हुए विधानसभा चुनाव के मात्र कुछ दिन पहले सारे मंडलों के अध्यक्षों को भी नाप दिया गया। झारखंड के भाजपा प्रभारी लक्ष्मीकांत वाजपेयी बोलते-टोकते और नाराजगी जताते रह गए, लेकिन उनकी एक बात नहीं सुनी गई। इससे भी बड़ा ब्लंडर हुआ कि मंडल अध्यक्ष तो नए आ गए, परंतु उनकी कमेटी नहीं बन पाईं। पूरा चुनाव मंडल कमेटी के बिना ही लड़ा गया। मतलब मंडलों के नए नेतृत्व को काम करने के लिए कार्यकर्ता नहीं मिला।

हार के तीन गुनहगार

झारखंड बनने के बाद 24 वर्षों में ऐसी बुरी हार भाजपा को पहली बार मिली है। इसके शीर्ष तीन गुनहगारों में बाबूलाल मरांडी, संगठन महामंत्री कर्मवीर सिंह और पूर्व अध्यक्ष दीपक प्रकाश को माना जा रहा है। लक्ष्मीकांत वाजपेयी इनके विरुद्ध आलाकमान को लगातार बोलते रहे, किंतु उनकी नहीं सुनी गई। बाबूलाल मरांडी के पहले झारखंड में भाजपा की जिम्मेवारी दीपक प्रकाश के पास थी। संगठन में सुधार के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया।

बाबूलाल लोकसभा की नौ सीटें जीतने का जश्न मनाते रह गए

कर्मवीर की वीरता भी अपने कुछ खास और अर्थ-वीर को ही बढ़ावा देने में काम आती रही। पूरे चुनाव में कर्मवीर तीन-चार दिन से ज्यादा नहीं निकले। निकले भी तो हेलीकाप्टर से चाईबासा-धनबाद में ही घूमते रह गए। बाबूलाल लोकसभा की नौ सीटें जीतने का जश्न मनाते रह गए। पांच आदिवासी सीटों पर हार की भरपाई के लिए विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत वहीं झोंक दी। सामान्य सीटों की उपेक्षा हुई। टिकटों के बंटवारे से लेकर प्रचार-प्रसार में भी। बूथों तक पर्ची नहीं पहुंची और न ही पांच प्रण के पंपलेट बंटे।

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