France Elections: लेफ्ट-राइट के बीच फंसे इमैनुएल मैक्रों, आइए समझें फ्रांस के नए राजनीतिक संकट को
समुद्र में चीन की बढ़ती गतिविधियों के बीच फ्रांस का यह कहना मायने रखता है कि इंडो-पैसिफिक को मुक्त रखना दोनों देशों का साझा उद्देश्य है। विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि कहीं भारत-फ्रांस साझीदारी भारत-अमेरिका संबंधों से बड़ी न हो जाए।
नेशनल डेस्क, नई दिल्ली: यूरोप में भारत के लिए फ्रांस हमेशा से एक अहम साझीदार और मित्र रहा है। पीएम नरेन्द्र मोदी हाल ही में अपनी यूरोप यात्रा में फ्रांस भी गए थे और दोबारा राष्ट्रपति चुने गए इमैनुएल मैक्रों से मुलाकात की थी। राष्ट्रपति चुनाव के बाद फ्रांसीसी संसद के निम्न सदन के लिए हुए चुनाव ने वहां अजीब स्थिति उत्पन्न कर दी है। लेफ्ट और राइट के मध्य मैक्रों की नैया अटक गई है। आइए समझें फ्रांस के नए राजनीतिक संकट को:
यह रहा घटनाक्रम: बीते अप्रैल में मैक्रों ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में जीत हासिल की थी। यह चुनाव उनके लिए कठिन माना जा रहा था, लेकिन वह जीतने में सफल रहे। अब फ्रांस में हुए संसदीय चुनाव में मैक्रों के गठबंधन को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है और यहीं से उनके लिए परेशानी आरंभ हो गई। 19 जून को हुए चुनाव में 577 सीटों वाली एसेंबली में मैक्रों के गठबंधन एनसेंबल को 245 सीटें ही मिली हैं। बहुमत का आंकड़ा 289 है।
राष्ट्रपति सशक्त, फिर भी संसदीय चुनाव की अहमियत: फ्रांस में राष्ट्रपति ही कार्यकारी राष्ट्र प्रमुख होता है। उसे देश चलाने के लिए तमाम शक्तियां मिली रहती हैं, लेकिन सरकार चलाने के लिए उसे संसद में बहुमत की आवश्यकता होती है। बहुमत होने से राष्ट्पति के हाथ सशक्त रहते हैं। बिल पारित कराने में आसानी रहती है। वर्ष 2017 के चुनाव में मैक्रों के गठबंधन ने 350 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत हासिल किया था, लेकिन इस संसदीय चुनाव के बाद तस्वीर बदल चुकी है।
विपक्ष की सीटों में बड़ी वृद्धि: लेफ्ट ने लगभग तीन गुना वृद्धि सीटों में की है। वर्ष 2017 में उसके पास 45 सीटें थीं जो अब 131 हो चुकी हैं। दक्षिणपंथी दल नेशनल रैली ने तो और भी बड़ी छलांग लगाई है। इस चुनाव में उसकी सीटों में दस गुना वृद्धि हुई है और वह 89 सीटों के साथ एक सशक्त विपक्ष बनकर सदन में आई है।
यह होगा परिणामों का प्रभाव: फ्रांस की राजनीति में दक्षिणपंथी तेजी से उभरे हैं। राष्ट्रपति चुनाव में भी मैक्रों को धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली की नेता मैरिन ले पेन ने टक्कर दी थी। उस समय लेफ्ट गठबंधन के नेता ज्यां ल्यू मेलनकोन काफी पीछे रह गए थे। इस बार लेफ्ट गठबंधन ही प्रमुख विपक्ष के रूप में सामने है। लेफ्ट और मैक्रों की पटती नहीं है। अब यदि सरकार चलानी है तो मैक्रों को विपक्षी दलों से समझौता करना होगा और ऐसे में उनके लिए अपनी सेंटिस्ट पालिटिकिल विचारधारा के अनुरूप फैसले ले पाना आसान नहीं होगा। मैक्रों कभी इंवेस्टमेंट बैंकर थे। व्यापार-उद्योग को लेकर उनका सोच अलग ही है। उन्होंने कारपोरेट टैक्स कम किया, श्रम सुधार किए और रोजगार लाभों में कमी की। यह सारे मुद्दे लेफ्ट विचारधारा के विपरीत हैं और अब मैक्रों के लिए मुख्य विपक्षी दल के साथ इन पर सहमति बना पाना काफी कठिन होगा। सरकार के निर्णयों पर बहस बढ़ेगी और जांच समिति बनाने की नौबत भी आ सकती है।
क्या महंगाई से मार खाए मैक्रों: मैक्रों ने लगभग सात वर्ष पहले राजनीति में कदम और युवा विचारों से फ्रांस में छा गए। वर्ष 2017 का चुनाव जीता। विशेषज्ञ मान रहे हैं कि महंगाई को लेकर देश में बढ़ रहे असंतोष के कारण एसेंबली चुनाव में उन्हें कम सीटें मिली हैं। देश में बढ़ती असमानता भी एक कारण है। इस बार लेफ्ट विचारधारा वाले वोटरों ने महंगाई और असमानता के मुद्दे पर मैक्रों को झटका दे दिया। फ्रांस में दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली भी काफी लोकप्रिय हुई है।
इस्लामिक कट्टरपंथ भी बन चुका है अहम मुद्दा: यूरोपीय यूनियन में फ्रांस ही वह देश है जहां सर्वाधिक मुस्लिम आबादी है। वहां बढ़ रहा कट्टरपंथ अब मूल फ्रांसीसी लोगों के लिए चिंता का सबब बन रहा है। दक्षिणपंथी पार्टी को मिली अधिक सीटें इसी ओर संकेत करती हैं। मैक्रों इस्लामिक कट्टरपंथ को लेकर अधिक सख्त नहीं रहे हैं, लेकिन बदलती परिस्थितियों में उनके सोच में बदलाव आना संभव है। राष्ट्रपति चुनाव में इसकी झलक भी मिली थी।
भारत और फ्रांस के रिश्ते: जब गलवन में चीन के साथ तनातनी थी, तब फ्रांस ने लड़ाकू विमानों की आपूर्ति कर भारत के हाथ मजबूत किए थे। दोनों देशों के बीच केवल व्यापारिक रिश्ते ही नहीं है, बल्कि कूटनीतिक व सामरिक संबंध भी बीते कुछ वर्ष में सशक्त हुए हैं। दोनों देशों मेंसहयोग तेजी से बढ़ा है और भारत-फ्रांस साझा हित वाले वैश्विक मामलों को मिलकर सुलझाने की तरफ बढ़े हैं। इन मामलों में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र भी शामिल है। समुद्र में चीन की बढ़ती गतिविधियों के बीच फ्रांस का यह कहना मायने रखता है कि इंडो-पैसिफिक को मुक्त रखना दोनों देशों का साझा उद्देश्य है। विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि कहीं भारत-फ्रांस साझीदारी भारत-अमेरिका संबंधों से बड़ी न हो जाए।