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वैश्विक संकट का समाधान तलाशने में भारत की अहम भूमिका, एक्सपर्ट व्यू

बदलते वैश्विक परिदृश्य में पिछले कई वर्षों से भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा और स्वीकृति निश्चित रूप से बढ़ी है। ऐसे में हमें उन कारणों की भी पड़ताल करनी चाहिए कि आखिरकार भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य क्यों नहीं बन पा रहा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Tue, 27 Sep 2022 04:21 PM (IST)
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वैश्विक संकट के बीच भारत की बढ़ती महत्ता
शोणित नयन। कोविड महामारी के दौर में पूरी दुनिया एक नए संकट में फंस चुकी थी। समग्र विश्व को इस संकट से बाहर निकालने में भारत का बड़ा योगदान रहा। वैश्विक संकट की बात करें तो पिछले सात माह से रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है। इसका दुष्प्रभाव समग्र विश्व पर पड़ रहा है। इस दौर में भारत ही ऐसा देश बनकर उभरा है जिस ओर दुनिया इस उम्मीद से देख रही है कि वही इस संकट का समाधान तलाशने में या कारगर मध्यस्थ की भूमिका निभाने में सक्षम है।

थोड़ा पीछे इतिहास में चलें तो यह पता चलता है कि शीत युद्ध वास्तव में कभी समाप्त हुआ ही नहीं, बल्कि इसने अपने रूप और संदर्भों को बदल दिया है। जैसा की सर्वविदित है की वर्ष 1991 में सोवियत संघ (यूएसएसआर) के विघटन से पहले, वैश्विक व्यवस्था कमोबेश अपने रूप में द्विध्रुवीय थी। प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टाल्सटाय के प्रसिद्ध उपन्यास 'वार एंड पीस' में एक प्रसिद्ध उद्धरण है, 'यदि हर कोई अपने विश्वास के लिए लड़े तो कोई युद्ध नहीं होगा।' वर्तमान संदर्भ में यह सटीक बैठता है। दो राष्ट्रों के मध्य उनके परस्पर राष्ट्रीय हितों के टकराव की अंतिम परिणति युद्ध होती है और कमोबेश यह हर काल में लागू होता है। ऐसे में वर्तमान हिंसक संघर्ष का सारा ठीकरा केवल रूस पर फोड़ना उचित नहीं है। कहीं-न-कहीं इस संघर्ष का बीज सोवियत संघ के विघटन में निहित है, जिसके तह में जाने की आवश्यकता है। शीत युद्ध काल और उसके बाद के अंतराल में गुटबाजी और ध्रुवीकरण के आलोक में वैश्विक ताकतों के बीच अविश्वास और गुमनाम षड्यंत्र के कारण संदेह और अविश्वास का बोलबाला है। नतीजन सब देश अपने-अपने हित में चाल चल रहे हैं। यदि आज सभी इस युद्ध की समाप्ति चाहते हैं, तो उन्हें आग में घी डालने का काम बंद करना होगा।

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इस संदर्भ में रूस के राष्ट्रपति पुतिन से कई बार बातचीत हुई है। उनकी इस बातचीत की कई वैश्विक मंचों पर सराहना भी हुई है। इसी कड़ी में हाल ही में उजबेकिस्तान के समरकंद में आयोजित हुए शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के 22वें शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री की रूसी राष्ट्रपति से मुलाकात के दौरान की गई टिप्पणी ने नई दिल्ली और दुनिया भर में पर्यवेक्षकों को आश्चर्यचकित कर दिया। 16 सितंबर को इस द्विपक्षीय बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था, 'आज का युग युद्ध का नहीं है और पुतिन को शांति के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए।' इसके कुछ ही घंटों के भीतर नई दिल्ली ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा को आभासी (वर्चुअल) रूप से संबोधित करने की अनुमति देने के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। वहीं रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने प्रत्युत्तर में मोदी से यह जाहिर किया कि 'हम चाहते हैं कि यह सब जल्द से जल्द खत्म हो।' हालांकि दुर्भाग्य से विरोधी पक्ष, यूक्रेन के नेतृत्व ने बातचीत जारी रखने से इन्कार कर दिया।

निश्चि रूप से भारत एक बहु-ध्रुवीय विश्व के पक्ष में खड़ा है, जहां शक्ति केंद्रों की बहुलता उसे एक ध्रुव को दूसरे के विरुद्ध खेलने की अनुमति देगी। इस संदर्भ में, नई दिल्ली चाहता है कि रूस एक महत्वपूर्ण हितधारक बना रहे। शांति और समृद्धि के किसी भी स्थायी माडल को प्राप्त करने के लिए सभी क्षेत्रों और सभी आर्थिक स्तरों के बीच विकेंद्रीकृत शक्ति के साथ एक बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र और इसी तरह के संगठनों को समय की आवश्यकता को पहचानते हुए सुधार करना चाहिए। इस तरह के कार्यों में भारत बड़ी भूमिका निभाने में सक्षम है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की ओर से भारत को अवसर दिया जाना चाहिए। (ये लेखक के निजी विचार हैं)

[फेलो, आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय, भारत सरकार]