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मुफ्तखोरी की राजनीति का मर्ज बहुत पुराना, अभिनेता एनटीआर के अभियान ने दी थी गति

1982 में अभिनेता एनटीआर ने तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) की स्थापना की और आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ा। उन्होंने मतदाताओं से मुफ्त मिड डे मील दो रुपये किलो चावल और बिजली पर सब्सिडी जैसे चुनावी वादे किए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Tue, 14 Dec 2021 06:52 AM (IST)
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धीरे-धीरे उपहारों का दायरा बढ़ता चला गया।
नई दिल्‍ली, जेएनएन। मुफ्तखोरी की राजनीति का मर्ज बहुत पुराना है। इसकी शुरुआत 1967 में तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में हुई थी। उस समय द्रमुक ने एक रुपये में डेढ़ किलो चावल देने का वादा किया था। यह वादा ऐसे समय में किया गया था, जब देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था। दो साल पहले शुरू हुए हिंदी विरोधी अभियान और उसके बाद एक रुपये में चावल के इस वादे के दम पर द्रमुक ने तमिलनाडु से कांग्रेस का सफाया कर दिया था। तब से आज तक यह सिलसिला चलता जा रहा है। तमिलनाडु से शुरू हुआ यह मर्ज धीरे- धीरे सभी राज्यों में फैल चुका है। आज मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे करना सभी राजनीतिक दलों के लिए प्रतिस्पर्धा बन गई है।

मुफ्त उपहारों का गणित यह एक बिजनेस माडल है। कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए यह तरीका अपनाती हैं। इसके अंतर्गत कंपनियां किसी एक उत्पाद को कम दाम या मुफ्त में ग्राहकों को देती हैं और उसी से जुड़ा दूसरा उत्पाद अधिक दाम पर बेच देती हैं। इससे दोनों उत्पादों की बिक्री धीरे-धीरे बढ़ती है। जैसे रेजर की बिक्री बढ़ाने के लिए पहले कंपनियां उसे मुफ्त या कम दाम पर ग्राहकों के लिए उपलब्ध कराती हैं, लेकिन उसमें लगने वाले ब्लेड को अधिक दाम पर बेचती हैं।

नेताओं ने बदल दिया रूप राजनीति में नेताओं ने इसी बिजनेस माडल का उन्नत स्वरूप अपनाया है। राजनीतिक दल अधिक वोट पाने के लिए चुनावी घोषणा पत्र में मतदाताओं को रिझाने के लिए कई लुभावनी स्कीमों की घोषणा करते हैं। मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली- पानी, मुफ्त लैपटाप जैसे चुनावी वादे उनके चुनावी घोषणा पत्रों में शामिल रहते हैं। इन मुफ्त की चीजों के बदले जनता को कई जरूरी व मूलभूत सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है। इनकी कीमत बढ़े हुए टैक्स के रूप में भी चुकानी पड़ती है।

लोकलुभावन वादे! लोगों का कल्याण और उनका जीवन स्तर ऊपर उठाने के मद में किए जा रहे सरकारी खर्चे की पाई-पाई का हिसाब रखने वाली संसद की लोक लेखा समिति के सौ साल बीते सप्ताह पूरे हुए। इस मौके पर संसद में हुए आयोजन पर राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति जैसे कई दिग्गजों ने बताया कि कैसे यह संस्था अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के क्रम में देश के सीमित संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल को भी सुनिश्चित करा रही है। इस मौके पर उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने कहा कि विकास की जरूरतों और कल्याणकारी दायित्वों का सामंजस्य बनाने के बीच लोकलुभावन घोषणाओं पर व्यापक बहस की जरूरत है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि खर्च किया जाने वाला हर रुपया सामाजिक-आर्थिक परिणाम देगा।

पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है। लोकलुभावन घोषणाओं का दौर एक बार फिर शुरू हो चुका है। हमारे राजनीतिक दलों की ये संस्कृति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जड़ों को दीमक की तरह चाट रही है। इसमें कई ऐसे राजनीतिक दल हैं जिनकी सरकारों के पास लोगों तक जरूरी सुविधाएं पहुंचाने के पैसे नहीं हैं। मुफ्तखोरी की राजनीति से न तो जनता का कल्याण होता है और न ही राज्य का। 

घर में नहीं दाने... राज्यों का बजट गवाही नहीं देता, लेकिन मुफ्तखोरी की राजनीति का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। मुफ्तखोरी के बदले लोगों को कई मूलभूत सुविधाओं से समझौता करना पड़ता है। साथ ही इसकी भरपाई के लिए सरकारें किसी न किसी रास्ते से जनता पर ही बोझ डालती हैं। वर्ष-दर-वर्ष घाटे का बजट पेश करने के बावजूद सरकारें और उनके राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणाओं वाली राजनीति से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।

(राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम (एफआरबीएम) में कहा गया है कि कोई भी राज्य किसी वित्त वर्ष में अपने राजकोषीय घाटे को अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के तीन फीसद से अधिक पर नहीं जाने दें।)

एनटीआर के अभियान ने दी गति: 1982 में अभिनेता एनटीआर ने तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) की स्थापना की और आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ा। उन्होंने मतदाताओं से मुफ्त मिड डे मील, दो रुपये किलो चावल और बिजली पर सब्सिडी जैसे चुनावी वादे किए। दो रुपये किलो चावल की बहुत स्कीम लोकप्रिय हुई। राज्य के लोगों को उनकी स्कीम इतनी भाई कि उन्होंने उन्हें जिता दिया। धीरे-धीरे उपहारों का दायरा बढ़ता चला गया।

कानून की जरूरत: मुफ्त उपहारों के बांटे जाने के खिलाफ वकील एस सुब्रमण्यम बालाजी ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। जस्टिस पी सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई की पीठ ने इस याचिका पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ती उपहार की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए कानून की आवश्यकता जताई। कोर्ट ने माना कि उपहार बांटने से मतदाता और चुनावी प्रक्रिया पर असर होता है। इससे दोनों प्रभावित होते हैं। कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश दिया कि वह राजनीतिक पार्टियों से चर्चा कर चुनावी घोषणा पत्रों के लिए प्रभावी दिशानिर्देश तय करे।