समय के साथ नहीं बदले कम्युनिस्ट, इसलिए पहुंचे अपने अंत के निकट
आखिर क्या कारण हैं कि एक समय देश में वैकल्पिक राजनीति के तौर पर उभरा वामपंथ आज अवसान की ओर अग्रसर दिखता है जहां वापसी के भी कोई आसार नहीं लगते।
नई दिल्ली [सुशील स्वतंत्र]। साम्यवाद का काबा माना जाने वाला सोवियत संघ जब भरभराकर ढह गया, तब यह कहा गया कि विश्व की पूंजीवादी शक्तियों ने पूरी ताकत के साथ समाजवाद का अंत कर दिया। उस प्रतिकूल दौर में भी भारत में कई राज्य ऐसे थे जहां कम्युनिस्ट पार्टी का वर्चस्व कायम रहा, लेकिन समय के साथ उनका आधार भी दरकता गया। ऐसे में इस पर जरूर विचार होना चाहिए कि दशकों तक इस सूबों की सत्ता पर काबिज होने वाले इन वामदलों के पराभव के क्या कारण हैं?
कम्युनिस्ट होने का अर्थ था आधुनिक
एक जमाने में कम्युनिस्ट होने का अर्थ आधुनिक होना माना जाता था। जब लोग मुश्किल से टाइपराइटर का इस्तेमाल कर पाते थे, तब कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ्तरों में आधुनिकतम टाइपिंग और साइक्लोस्टाइल मशीनें, छापेखाने और प्रकाशन हुआ करते थे। मगर समय के साथ कम्युनिस्टों ने अपने तंत्र को अपडेट नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि बेहतरीन माना जाने वाला कम्युनिस्टों का संगठन निर्माण कौशल धीरे-धीरे परंपरागत और अप्रसांगिक हो चला है, जबकि उसके मुकाबले खड़े खेमों में आधुनिक तकनीक पर आधारित सांगठनिक ढांचे पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियों में नेतृत्व का संकट भी पैदा हो गया है।विचारधारा से जुड़ने वाले युवाओं का अकाल
कमजोर हो गए कम्युनिस्ट पार्टियों के जनसंगठन
समय के साथ-साथ भारत की लगभग सभी कम्युनिस्ट पार्टियों के जनसंगठन कमजोर हो गए और पार्टी नेतृत्व ने इसे नजरअंदाज कर दिया। नतीजा यह हुआ पार्टी की एक समय पार्टी की ताकत अब उसकी कमजोर कड़ी बन गई। वहीं पार्टी और ट्रेड यूनियन में जो तालमेल होना चाहिए, समय के साथ उसमें भी भारी कमी देखने को मिली है। इसका पार्टी संगठन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इनके अलग-अलग धड़े भी भ्रमित करने का काम करते हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) की स्थापना 1925 में हुई। इसके बाद 1964 में वैचारिक मतभेद के कारण पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और माकपा का जन्म हुआ।एआइसीसीआर का गठन
कम्युनिस्ट पार्टियों के बयान से गायब हुए राष्ट्रीय मुद्दे
विरोधी खेमा लगातार कम्युनिस्टों के बारे में दुष्प्रचार कर रहा है कि ये भारत विरोधी हैं, हिंदू विरोधी हैं, नास्तिक और धर्म विरोधी हैं, विदेशी विचारधारा वाले हैं और यहां तक कि विकास और राष्ट्रवाद के विरोधी भी हैं। इस दुष्प्रचार के विरोध में वे अपने पुराने गौरवशाली अतीत से कई मिसालें दे सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने पूरी तरह समर्पण कर दिया। हालत यहां तक खराब हो चुकी है कि महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर कम्युनिस्ट पार्टियों के बयान तक जारी नहीं हो पाते हैं। भारतीय समाज में धर्म विशेष दखल रखता है। यहां लोगों के जीवन में धर्म का महत्व रोटी के बराबर है। वहीं दूसरी ओर जाति भारतीय समाज की एक और च्वलंत सच्चाई है।हकीकत को किया नजरअंदाज
आचार संहिता का निर्माण
कम्युनिस्टों का आचरण कैसा हो, इसके लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पार्टी संविधान के अलावा एक आचार संहिता का निर्माण किया था, लेकिन आज उस आचार संहिता के अनुपालन की अनिवार्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आमजनमानस में कम्युनिस्टों के बारे में नास्तिक, धर्म विरोधी और विदेशी विचारों के अनुयायी जैसी छवि जो शुरुआत में ही बन गयी थी, वह आज भी कायम है। साथ ही उनकी आंदोलन वाली भावना पर भी वक्त के साथ जंग लग गया है। उनका अति-आत्मविश्वास भी उनके डूबने की अहम वजह रहा। त्रिपुरा में भाजपा की जीत कोई रातोरात हुआ चमत्कार नहीं है। वर्ष 2014 में भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बनने के बाद से भाजपा ने पूर्वोत्तर पर खास ध्यान देना शुरू किया।भाजपा की उत्तर पूर्व में जीत
भाजपा का समर्थन करने वाली धार्मिक, आध्यात्मिक संस्थाएं, एनजीओ और संघ से जुडी अनेक संस्थाओं ने त्रिपुरा सहित समूचे पूर्वोत्तर में सुनियोजित ढंग से काम करना शुरू कर दिया था। इस बात को वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने हल्के में लिया। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को त्रिपुरा में सिर्फ दो फीसदी वोट मिले थे। इसके बाद भाजपा ने जमीनी स्तर पर काम किया और निकाय चुनाव में 221 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा ने सबसे ज्यादा आदिवासियों पर ध्यान दिया है। त्रिपुरा में लेफ्ट का पिछले चुनाव में 51 फीसदी वोट पर कब्जा था, जिसे भाजपा ने इस बार कड़ी चुनौती दी है। यही कारण है कि 25 साल राज करने और बेहतर मत प्रतिशत हासिल करने के बावजूद माकपा त्रिपुरा में सत्ता से बाहर हो गयी है।(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)उत्तर-पूर्व में भगवा लहराने के बाद भाजपा के लिए कितनी आसान होगी कर्नाटक में जीत की राह?भाजपा को टक्कर देने की सूरत में नहीं विपक्ष, आम चुनाव में होगा नॉर्थ ईस्ट से फ़ायदा
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