संविधान की आड़ में तानाशाही का जब अटल ने अपने ही अंदाज में दिया था करारा जवाब
इमरजेंसी के दौर का पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक कविता में बहुत खूब चित्रण किया है। वाजपेयी ने कई बार आपातकाल के लिए इंदिरा गांधी की कड़ी आलोचना भी की है।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Fri, 17 Aug 2018 09:56 PM (IST)
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। आपातकाल को 43 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन उसकी टीस आज भी कई लोगों के जहन में मौजूद है। जिन लोगों ने इसको देखा और झेला वह आज भी उस दौर को नहीं भूल सके हैं। कांग्रेस के लिए भले ही यह कोई नया कीर्तिमान रहा होगा लेकिन दूसरों के लिए यह किसी बुरे सपने जैसा ही था, जिसमें संविधान की आड़ में तानाशाही की जा रही थी। कांग्रेस को छोड़कर दूसरी सभी पार्टियां हमेशा ही इसको लेकर सवाल उठाती रही हैं। इमरजेंसी के दौर का पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक कविता में बहुत खूब चित्रण किया है। वाजपेयी ने कई बार आपातकाल के लिए इंदिरा गांधी की कड़ी आलोचना भी की है।
सरकार कहती थी कि देश में फैली अराजकता की स्थिति को सुधरने के लिए आपातकाल लगाया गया है। इसके बाद 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इंदिरा जी का यह कैसा अनुशासन था। इसी भावना को अटल जी ने इस प्रकार व्यक्त किया-अनुशासन के नाम पर, अनुशासन का खून
भंग कर दिया संघ को, कैसा चढ़ा जुनून
कैसा चढ़ा जुनून, मातृपूजा प्रतिबंधित
कुलटा करती केशव-कुल की कीर्ति कलंकित
यह कैदी कविराय तोड़ कानूनी कारा
गूंज गा भारतमाता- की जय का नारा।
भंग कर दिया संघ को, कैसा चढ़ा जुनून
कैसा चढ़ा जुनून, मातृपूजा प्रतिबंधित
कुलटा करती केशव-कुल की कीर्ति कलंकित
यह कैदी कविराय तोड़ कानूनी कारा
गूंज गा भारतमाता- की जय का नारा।
जेल में सुविधा के नाम पर कुछ नहीं था। इस पर अटल का व्यंग्य-डाक्टरान दे रहे दवाई, पुलिस दे रही पहरा
बिना ब्लेड के हुआ खुरदुरा, चिकना-चुपड़ा चेहरा
चिकना-चुपड़ा चेहरा, साबुन तेल नदारद
मिले नहीं अखबार, पढ़ें जो नई इबारत
कह कैदी कविराय, कहां से लाएं कपड़े
अस्पताल की चादर, छुपा रही सब लफड़े।
बिना ब्लेड के हुआ खुरदुरा, चिकना-चुपड़ा चेहरा
चिकना-चुपड़ा चेहरा, साबुन तेल नदारद
मिले नहीं अखबार, पढ़ें जो नई इबारत
कह कैदी कविराय, कहां से लाएं कपड़े
अस्पताल की चादर, छुपा रही सब लफड़े।
कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने जब इंदिरा गांधी को भारत माता के तुल्य दर्शाने का दुस्साहस किया, तब अटल जी ने चुप ने बैठ सके। उन्होंने करारा व्यंग्य करते हुए ये उद्गार व्यक्त किए-'इंदिरा इंडिया एक है: इति बरूआ महाराज,
अकल घास चरने गई चमचों के सरताज,
चमचां के सरताज किया अपमानित भारत,
एक मृत्यु के लिए कलंकित भूत भविष्यत्,
कह कैदी कविराय स्वर्ग से जो महान है,
कौन भला उस भारत माता के समान है? अटल जी को भरोसा था कि जनता इस तानाशाही को और अधिक बर्दाश्त नहीं करेगी। तभी तो उनका कवि हृदय आश्वस्त होकर यह बोला था -दिल्ली के दरबार में कौरव का है जोर,
लोकतंत्र की द्रौपदी रोती नयन निचोर,
रोती नयन निचोर नहीं कोई रखवाला,
नए भीष्म द्रोणों ने मुख पर ताला डाला,
कह कैदी कविराय बजेगी रण की भेरी,
कोटि-कोटि जनता न रहेगी बनकर चेरी। जेल में दिन बिताने बड़े कठन होते हैं। वे कठिनाई- भरे दिन कैसे बीतते थे, कविवर अटल जी के शब्दों में-दंण्डवत मधु से भरे, व्यंगय विनोद प्रवीण;
मित्र श्याम बाबू सुभग, अलग बजवें बीन;
अलग बजवे बीन तीन में ना तेरह में;
लालकृष्ण जी पोथी, पढते हैं डेरा में;
कह कैदी कविराय, जमीन थी खूब चौकड़ी;
कोट-पीस का खेल जेल में घड़ी दो घड़ी। आखिरकार आपातकाल की अमावस्या छंट गई। यह 20 माह लंबी चली। बाद में इसके बारे में अटल जी ने लिखा "सेंसेर और प्रजातंत्र के एकाधिकार द्वारा श्रीमति इंदिरा गांधी जनता को विपक्ष से पूरी तरह से काट देना चाहती थीं। लेकिन हुआ ठीक इसका उलट। उनके प्रचार-तंत्र की विश्वसनीयता खत्म सी हो गई थी। भूमिगत साहित्य ने विपक्ष से जनता को जोड़े रखा। इसके विपरीत श्रीमति इंदिरा गांधी जनता से बुरी तरह से कट गईं। जनमानस की मन: स्थिति की इसी स्थिति से गैर जानकार रहने के कारण श्रीमति गांधी चुनाव कराने का फैसला ले बैठीं और जब उन्होंने जन-मानस का बदला हुआ रूप देखा, तब तक काफी देर हो चुकी थी। बहुत हद तक इसका श्रेय भूमिगत प्रचार तंत्र को जाता है। भूमिगत प्रचार तंत्र विस्तार विदेशों में था। इसी के कारण सरकार का तानाशाही चरित्र विदेशों में छिप नहीं सका। विदेशों में रहने वाले लाखों भारतीयों, विदेशी बुद्धिजीवियों और सोशलिस्ट इंटरनेशनल के नेताओं, जिन्होंनें तानाशाही के विरुद्ध हमारे संघर्ष का नैतिक समर्थन किया, हम उनके आभारी हैं। इस संघर्ष में विदेशों में प्रचार-अभियान का, विशेष रूप से सर्वश्री सुबह्मण्यम स्वामी, लैला फर्नांडीज, राम जेठमलानी, सीआर ईरानी, केदारनाथ साहनी, मकरंद देसाई आदि का योगदान विशेष रूप से स्मरणीय है। भूमिगत आंदोलन का संचालन लोक संघर्ष समिति ने किया। इसमें मुख्य रूप से सर्वोदय संगठन, कांग्रेस, जनसंघ, लोकदल ओर सोशलिस्ट पार्टी के भूमिगत नेता और कार्यकर्ता थे, परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देशव्यापी संगठन और भरपूर सहयोग के बिना भूमिगत आंदोलन कदाचित इतना प्रभावी नहीं हो पाता।जिन परिवारों ने भूमिगत कार्यकर्ताओं को आश्रय दिया, जिन्होंने भूमिगत संगठन-तंत्र प्रचार-व्यवस्था, संचार-तंत्र और साधन उपलब्ध कराने आदि में सहयोग दिया अर्थात जिन्होंने बिना भूमिगत हुए भूमिगत गतिविधियों में हिस्सा लिया, वे भी गौरव के अधिकारी हैं।"
अकल घास चरने गई चमचों के सरताज,
चमचां के सरताज किया अपमानित भारत,
एक मृत्यु के लिए कलंकित भूत भविष्यत्,
कह कैदी कविराय स्वर्ग से जो महान है,
कौन भला उस भारत माता के समान है? अटल जी को भरोसा था कि जनता इस तानाशाही को और अधिक बर्दाश्त नहीं करेगी। तभी तो उनका कवि हृदय आश्वस्त होकर यह बोला था -दिल्ली के दरबार में कौरव का है जोर,
लोकतंत्र की द्रौपदी रोती नयन निचोर,
रोती नयन निचोर नहीं कोई रखवाला,
नए भीष्म द्रोणों ने मुख पर ताला डाला,
कह कैदी कविराय बजेगी रण की भेरी,
कोटि-कोटि जनता न रहेगी बनकर चेरी। जेल में दिन बिताने बड़े कठन होते हैं। वे कठिनाई- भरे दिन कैसे बीतते थे, कविवर अटल जी के शब्दों में-दंण्डवत मधु से भरे, व्यंगय विनोद प्रवीण;
मित्र श्याम बाबू सुभग, अलग बजवें बीन;
अलग बजवे बीन तीन में ना तेरह में;
लालकृष्ण जी पोथी, पढते हैं डेरा में;
कह कैदी कविराय, जमीन थी खूब चौकड़ी;
कोट-पीस का खेल जेल में घड़ी दो घड़ी। आखिरकार आपातकाल की अमावस्या छंट गई। यह 20 माह लंबी चली। बाद में इसके बारे में अटल जी ने लिखा "सेंसेर और प्रजातंत्र के एकाधिकार द्वारा श्रीमति इंदिरा गांधी जनता को विपक्ष से पूरी तरह से काट देना चाहती थीं। लेकिन हुआ ठीक इसका उलट। उनके प्रचार-तंत्र की विश्वसनीयता खत्म सी हो गई थी। भूमिगत साहित्य ने विपक्ष से जनता को जोड़े रखा। इसके विपरीत श्रीमति इंदिरा गांधी जनता से बुरी तरह से कट गईं। जनमानस की मन: स्थिति की इसी स्थिति से गैर जानकार रहने के कारण श्रीमति गांधी चुनाव कराने का फैसला ले बैठीं और जब उन्होंने जन-मानस का बदला हुआ रूप देखा, तब तक काफी देर हो चुकी थी। बहुत हद तक इसका श्रेय भूमिगत प्रचार तंत्र को जाता है। भूमिगत प्रचार तंत्र विस्तार विदेशों में था। इसी के कारण सरकार का तानाशाही चरित्र विदेशों में छिप नहीं सका। विदेशों में रहने वाले लाखों भारतीयों, विदेशी बुद्धिजीवियों और सोशलिस्ट इंटरनेशनल के नेताओं, जिन्होंनें तानाशाही के विरुद्ध हमारे संघर्ष का नैतिक समर्थन किया, हम उनके आभारी हैं। इस संघर्ष में विदेशों में प्रचार-अभियान का, विशेष रूप से सर्वश्री सुबह्मण्यम स्वामी, लैला फर्नांडीज, राम जेठमलानी, सीआर ईरानी, केदारनाथ साहनी, मकरंद देसाई आदि का योगदान विशेष रूप से स्मरणीय है। भूमिगत आंदोलन का संचालन लोक संघर्ष समिति ने किया। इसमें मुख्य रूप से सर्वोदय संगठन, कांग्रेस, जनसंघ, लोकदल ओर सोशलिस्ट पार्टी के भूमिगत नेता और कार्यकर्ता थे, परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देशव्यापी संगठन और भरपूर सहयोग के बिना भूमिगत आंदोलन कदाचित इतना प्रभावी नहीं हो पाता।जिन परिवारों ने भूमिगत कार्यकर्ताओं को आश्रय दिया, जिन्होंने भूमिगत संगठन-तंत्र प्रचार-व्यवस्था, संचार-तंत्र और साधन उपलब्ध कराने आदि में सहयोग दिया अर्थात जिन्होंने बिना भूमिगत हुए भूमिगत गतिविधियों में हिस्सा लिया, वे भी गौरव के अधिकारी हैं।"