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'हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा...' पढ़िए- अटल बिहारी की कुछ लोकप्रिय कविताएं

अटल जी अपनी बातों और भावनाओं को शब्‍दों में पिरोकर पेश करने की कला में माहिर थे।

By Tilak RajEdited By: Updated: Thu, 16 Aug 2018 06:09 PM (IST)
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'हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा...' पढ़िए- अटल बिहारी की कुछ लोकप्रिय कविताएं

नई दिल्‍ली, जेएनएन। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक बेहतरीन राजनेता ही नहीं, शानदार कवि भी थे। उनकी कविताएं आज भी लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। वह शब्‍दों से खेलना जानते थे। अटल जी अपनी बातों और भावनाओं को शब्‍दों में पिरोकर पेश करने की कला में माहिर थे। राजनीति के अजातशत्रु के नाम से विख्‍यात अटल जी ने कई ऐसी कविताएं भी लिखीं जिन्‍होंने देश के युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। पेश हैं अटल जी की ऐसी ही कुछ चुनिंदा कविताएं...

नए मील का पत्थर
नए मील का पत्थर पार हुआ।
कितने पत्थर न शेष कोई जानता?
अंतिम कौन पड़ाव नहीं पहचानता?
अक्षय सूरज, अखंड धरती,
केवल काया, जीती मरती
इसीलिए उम्र का बढ़ना भी त्योहार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ
बचपन याद बहुत आता है,
यौवन रस घट भर लाता है,
बदला मौसम, ढलती छाया,
रिसती गागर, लुटती माया
सब कुछ दांव लगाकर घाटे का व्यापार हुआ।
नए मील का पत्थर पार हुआ।

गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं।
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी
अंतर को चीर
व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं।

आओ मन की गांठे खोलें
यमुना तट, टीले रेतीले,
घास-फूस का घर हांडे पर
गोबर सी लीपे आंगन में
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर
मां के मुंह से रामायण के
दोहे-चौपाई रस घोले
आओ मन की गांठे खोलें।
बाबा की बैठक में बिछी चटाई
बाहर रखे खड़ाऊं
मिलने वाले के मन में असमंजस
जाऊं या ना जाऊं
माथे तिलक नाक पर ऐनक
पोथी खुली स्वयं से बोलें
आओ मन की गांठे खोलें।
सरस्वती की देख साधना
लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा
मिट्टी ने माथे का चंदन
बनने का संकल्प न छोड़ा
नए वर्ष की अगवानी में
टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें
आओ मन की गांठे खोलें।

धरती को बौनों की
धरती को बौनों की नहीं
ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है
किंतु इतने ऊंचे भी नहीं कि
पांव तले दूब ही न जमे
कोई कांटा न चुभे
कोई कली न खिले
न बसंत हो, न पतझड़ हो
सिर्फ ऊंचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले लगा न सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।

आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाईं से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें
बुझी हुई बाती सुलगाएं
आओ फिर से दिया जलाएं।
हम पड़ाव को समझें मंजिल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वर्तमान के मोहजाल में
आने वाला कल न भुलाएं
आओ फिर से दिया जलाएं।
आहूति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज्र बनाने
नव दधीचि हड्डियां गलाएं
आओ फिर से दिया जलाएं।