कांग्रेस-AAP, JJP और इनेलो के ये फैसले साबित होंगे BJP के लिए संजीवनी? पढ़ें क्या कहता है सियासी समीकरण
Haryana Election हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी की लिस्ट जारी होती ही पार्टी में घमासान मचा हुआ है। टिकट वितरण से नाराज बीजेपी के कई नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। टिकट बंटवारे से उपजा असंतोष बीजेपी के लिए चुनौती बन गया है। हालांकि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन ना होना बीजेपी के लिए सुकून भरा है।
जितेंद्र शर्मा, नई दिल्ली। हरियाणा की सत्ता पर 10 वर्ष से आसीन भाजपा के सामने सत्ता विरोधी लहर के जोखिम के साथ ही टिकट बंटवारे से उपजे असंतोष की भी चुनौतियां हैं। इस बीच हालात से निपटने के लिए चुनावी प्रबंधन में जुटी भाजपा के लिए विपक्षी खेमे से सुकून का हल्का सा झोंका चला है। सबसे बड़ी राहत तो यह मानी जा रही है कि मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन बनते-बनते बिखर गया।
इधर, लोकसभा चुनाव में जिस जाट-दलित समीकरण ने कांग्रेस को ताकत दी, उसी जातीय समीकरण में हिस्सेदारी के लिए जाट बिरादरी की राजनीति करने वाला इंडियन नेशनल लोकदल और दलितों की राजनीति करने वाली बसपा हाथ मिलाकर मैदान में हैं। इसी तरह जाट-दलित वोटों के बिखराव का एक किनारा जननायक जनता पार्टी और उभरते दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी ने बना दिया है।
कांग्रेस-AAP गठबंधन ना होने से BJP को फायदा!
हरियाणा की 90 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव होने जा रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में सारी 10 सीटें जीतने वाली भाजपा के हाथ से कांग्रेस ने इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में पांच सीटें छीन लीं। इसमें दलित और जाट वोटों का कांग्रेस की ओर झुकाव बड़ा कारण माना गया। कांग्रेस अब उसी उत्साह के साथ विधानसभा चुनाव के मैदान में है, लेकिन चिंता के बीच भाजपा के लिए कांग्रेस और आप का गठबंधन टूटने से सुखद आहट भी हुई है।कांग्रेस की बढ़ी चुनौती
दरअसल, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व आम आदमी पार्टी से गठबंधन इसलिए भी चाहता था, क्योंकि पड़ोसी राज्य दिल्ली और पंजाब में सत्तासीन इस दल का दखल धीरे-धीरे हरियाणा की राजनीति में बढ़ा है। 2019 के विधानसभा चुनाव में मात्र 0.04 प्रतिशत वोट पाने वाली आप ने उसी वर्ष लोकसभा चुनाव में जनाधार बढ़ाते हुए 0.36 प्रतिशत वोट प्राप्त किया। वहीं, इस वर्ष लोकसभा चुनाव में वोटों में उसकी हिस्सेदारी 3.94 प्रतिशत तक पहुंच गई। रणनीतिकार मानते हैं कि भाजपा विरोधी वोटों के लिए अब कांग्रेस के अलावा आप भी एक विकल्प होगा। इनका गठबंधन टूटा और अन्य विपक्षी दलों के गठबंधन ने कांग्रेस के लिए चुनौती बढ़ा दी है। इनमें प्रमुख रूप से इंडियन नेशनल लोकदल और बसपा का नाम लिया जा सकता है।
मैदान में आजाद समाज पार्टी
इनेलो 53 तो बसपा 37 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। गठबंधन में शामिल दोनों ही दलों के प्रभाव को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। 2014 के विधानसभा चुनाव में 4.4 प्रतिशत वोट पाने वाली बसपा को 2019 के विधानसभा चुनाव में 4.21 प्रतिशत वोट मिला। इसी तरह 2014 में अविभाजित इनेलो ने 24.1 प्रतिशत मत प्राप्त किया तो 2019 में उसकी हिस्सेदारी 2.44 प्रतिशत रही। दलित और जाट बिरादरी की राजनीति करने वाले इन दोनों दलों की तरह ही पिछली बार भाजपा के साथ सरकार बनाने वाली जजपा और आजाद समाज पार्टी ने भी इस बार गठबंधन किया है। आजाद समाज पार्टी यहां के दंगल में बेशक नई खिलाड़ी है, लेकिन जजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव में 14.80 प्रतिशत वोटों के साथ दस सीटें जीती थीं। ऐसे में यह दोनों गठबंधन जाट-दलित वोटों पर काफी असर डाल सकते हैं।आरक्षित सीटों पर सीधे असर की संभावना
आरक्षित सीटों पर इनेलो-बसपा और जजपा-आसपा ने यदि सेंधमारी की तो उसका काफी नुकसान कांग्रेस को हो सकता है। दरअसल, राज्य में दलितों की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है, जिनके लिए 17 सीटें आरक्षित हैं। 2014 के विधानसभा चुनाव में इनमें से कांग्रेस चार, भाजपा नौ तो इनेलो तीन सीटें जीती थी। 2019 में कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा और उसने 17 में से सात सीटें जीतीं, भाजपा पांच और जजपा चार पर सिमटी। एक अन्य के खाते में गई। वहीं, 2024 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो पांच लोकसभा सीटें जीतने वाली कांग्रेस को आरक्षित 17 सीटों में से 13 पर जीत मिली। इसका संकेत साफ है दलित वोट ने उसी ताकत दी, लेकिन अब इसमें सेंधमारी की आशंका खड़ी हो गई है।