विपक्ष कर रहा एकजुटता का दिखावा, लेकिन हकीकत कुछ और, भाजपा निकाल देगी हवा
लोकसभा चुनाव में अब चंद माह शेष हैं। तमाम विपक्षी दल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के मकसद से एकजुट हो रहे हैं। लेकिन अभी संशय बरकरार है कि मतदाताओं इन विपक्षी दलों की एकजुटता को स्वीकार करेगा या नहीं।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Tue, 11 Sep 2018 02:04 PM (IST)
शिवानंद द्विवेदी। लोकसभा चुनाव को अब कुछ महीने ही शेष हैं। विपक्षी दल यह स्वीकार कर चुके हैं कि लोकप्रियता और विश्वसनीयता के धरातल पर मोदी को मात देना न तो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लिए संभव है और न ही क्षेत्रीय दल मोदी को रोक सकते हैं। चूंकि 2014 में मिली करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस की भूमिका विपक्ष में प्रभावहीन होती गई। उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली प्रचंड जीत ने तो क्षेत्रीय दलों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि मोदी-शाह के दौर की भाजपा के बरक्स उनकी राजनीतिक जमीन कहीं दरकने तो नहीं लगी है! हालांकि विरोधी दल सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकारने से कतराते हैं, लेकिन उनके बयानों में दिखने वाला विरोधाभास, उनकी चिंता को दर्शाता है। एकतरफ तो वे मोदी की जनता के बीच विश्वसनीयता को कम करके आंकते हैं लेकिन दूसरी तरफ मोदी से मुकाबले के लिए विपक्षी एकजुटता की हिमायत करते भी नजर आते हैं।
एक बड़ा सवाल
ऐसे में यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर वाकई मोदी का प्रभाव कम हो चुका है और जनता के बीच उनका असर नहीं है तो इस कथित विपक्षी एकजुटता के लिए चल रही कवायदों के मायने क्या हैं? वर्तमान में कथित विपक्षी एकजुटता का सिर्फ एक उद्देश्य और एकमात्र एजेंडा नजर आता है 2019 में मोदी को रोकना। चूंकि एकजुटता को लेकर भी भाजपा विरोधी दलों में अनेक असहमतियों और टकराव की स्थिति है। विपक्ष अभी खुद कई खेमों में बंटा हुआ है। एकतरफ कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन है, तो दूसरी तरफ तीसरे मोर्चे की संभावनाएं सिर उठाने लगी हैं। चुनावों के दौरान चर्चा में रहने वाला तीसरा मोर्चा 1996 से 1999 के बीच कांग्रेस की अवसरवादी राजनीति की वजह से आंशिक सफलताओं की सीढ़ी चढ़ सका था लेकिन उसके बाद यह हरेक आम चुनाव में एक तिलिस्म की तरह आता है और चुनाव शुरू होते-होते असरहीन होकर दम तोड़ देता है। इस बार भी क्षेत्रीय दलों का एक धड़ा तीसरे मोर्चे की कवायदों में जुटा है।
तीसरा मोर्चा से अलग भाजपा विरोधी धड़ा
तीसरे मोर्चे के इतर भाजपा विरोधी एक धड़ा है जो कांग्रेस के साथ गठबंधन में रहने पर तो सहमत हैं किंतु राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर अभी उनका कोई स्पष्ट रुख तय नहीं है। ऐसे किसी भी गठबंधन की स्थिति में यूपी ही एक ऐसा राज्य है जहां एक से अधिक क्षेत्रीय दलों के भाजपा के खिलाफ गठबंधन की संभावना नजर आती है। अगर यूपी में ऐसा कोई गठबंधन होता भी है तो उसमें कांग्रेस की हिस्सेदारी नगण्य नजर आती है। इसके अलावा कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां के राजनीतिक समीकरण में भाजपा के खिलाफ एक से ज्यादा दल किसी एक देशव्यापी गठबंधन में शामिल होते दिख रहे हों। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात जैसे अनेक राज्यों में ऐसी किसी भी एकजुटता का कोई असर नहीं होगा।
विपक्षी एकजुटता
उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकजुटता होती भी है, तो वह मजबूरियों का मिलन होगा। राजनीति में यह न तो स्थाई होता है और न ही जनहित के अनुकूल। ऐसा हमने बिहार के महागठबंधन में तीन साल पहले देखा है। यूपी में सपा, बसपा और रालोद का राजनीतिक आधार वैचारिक न होकर जाति आधारित है। ऐसे में इस निष्कर्ष पर पहुंच जाना कि ऊपर से थोपे गए ऐसे किसी गठबंधन का असर नीचे के स्तर पर इन दलों के मतदाताओं में भी होगा, जल्दबाजी होगी। विपक्षी एकजुटता का मूर्त रूप लेना अभी दूर की कौड़ी है, फिर भी एकजुटता के भविष्य को समझना हो तो हमें कर्नाटक चुनाव के बाद हुए घटनाक्रमों को देखना चाहिए। कर्नाटक में बहुमत नहीं होने की वजह से भाजपा सरकार नहीं बना सकी लेकिन कांग्रेस ने भाजपा को रोकने की मंशा से अपने धुर विरोधी जेडीएस को समर्थन देकर सरकार बनवा दी।कुमारस्वामी का विषपान
यह एक ऐसी सरकार है जिसके मुख्यमंत्री ने पद संभालने के महीने भर के भीतर यह स्वीकार किया कि उन्हें इस गठबंधन की सरकार में रोज ‘विषपान’ करना पड़ रहा है। हालांकि जिस ‘विषपान’ की बात कुमारस्वामी कर रहे हैं, वह विष कांग्रेस ने पहले कई गठबंधन की सरकारों को पिलाया है। ‘मोदी रोको’ अभियान चलाने वाले यह तर्क देते हैं कि इंदिरा गांधी के दौर में भी ताकतवर सत्ता को हटाने के लिए तमाम दलों ने गठबंधन किया था। यह सही है कि आपातकाल लगाकर लोकतंत्र को कैद करने वाली इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने के लिए 1977 में गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल एकजुट हुए थे लेकिन वह एकजुटता जनांदोलनों की पृष्ठभूमि से उभरी थी। वह ऊपर से राजनीतिक दलों द्वारा थोपा गया ऐसा गठबंधन नहीं था जिसमें इंदिरा गांधी को हटाने की बेजा जिद रही हो। वह परिस्थितिजन्य नैसर्गिक एकजुटता थी।मजबूरियों का मिलन
विकास के मानदंडों पर भी ‘मजबूरियों के मिलन’ वाले ऐसे गठबंधनों से बनी अल्पकालिक सरकारों का कार्यकाल देशहित में नहीं रहा है। नब्बे के दशक में ऐसे गठबंधनों की सरकारें सर्वाधिक बनीं। इस दौरान देश के विकास दर में हर सरकार के दौरान व्यापक फर्क देखा गया। मसलन देवगौड़ा सरकार के कार्यकाल का औसत विकास दर 6.9 था लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री बने इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल का औसत विकास दर 3.5 हो गया। कहने का अर्थ है कि अस्थाई सरकारों की वजह से उनके कामकाज का असर देश के विकास की रफ्तार पर पड़ता है। इसके उलट गठबंधन के दूसरे उदाहरण हैं, जिन्हें ‘नेचुरल एलाइंस’ के नाम से जाना जाता है।राजनीतिक अस्थिरता
अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा देश को स्थाई सरकार देने और राजनीतिक अस्थिरता से देश को निकालने के लिए बनाया गया राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन नेचुरल एलाइंस का एक बड़ा उदाहरण है। आज मोदी और शाह के दौर में राजग का आकार और बड़ा तथा व्यापक हो चुका है। वहीं नेता, नीयत और नेतृत्व का सवाल तो कहीं दूर की बात है, विपक्ष को एकजुट होने में पसीने निकल रहे हैं जबकि दूसरी तरफ मोदी की नीति, नीयत और नेतृत्व पर भरोसा करते हुए 30 से ज्यादा राजनीतिक दल राजग के साथ खड़े हैं। गठबंधन की बहस में यही वर्तमान की तस्वीर है।(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)