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राजनीतिक नवजीवन के उल्लास में इन चुनौतियों को ढंकने से कांग्रेस को होगा बचना, अगले लक्ष्य के लिए कितनी तैयार?

राजनीतिक नवजीवन के उल्लास में चुनौतियों को ढंकने से कांग्रेस को बचना होगा। संसद में विपक्ष की जिम्मेदारी निर्वाहन में सहयोगी दलों की साझी ताकत और पार्टी की जमीनी राजनीति से जुड़ी चुनौतियों में फर्क है। विपक्ष खेमे की सदन में एकजुटता के सहारे पार्टी बेशक एनडीए सरकार को मजबूत चुनौती पेश करते हुए दो कदम पीछे हटने को बाध्य कर सकती है।

By Jagran News Edited By: Nidhi Avinash Updated: Sun, 23 Jun 2024 11:45 PM (IST)
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राजनीतिक नवजीवन के उल्लास में इन चुनौतियों को ढंकने से कांग्रेस को होगा बचना (Image: ANI)
संजय मिश्र, नई दिल्ली। चुनाव से पहले कांग्रेस बीते एक दशक से लगातार जिन मुश्किल हालातों और चुनौतियों से रूबरू हो रही थी उसे देखते हुए लोकसभा में लगभग सौ सीटों का आंकड़ा छूने की उसकी मंजिल वास्तव में राजनीतिक नवजीवन जैसा है। इसमें संदेह नहीं कि इस नतीजे ने पार्टी को मैदान में मुकाबला करने की उसकी खोई हुई मनोवैज्ञानिक ताकत वापस दिलाई है। जहां से अब वह राजनीतिक सत्ता के अपने अगले लक्ष्य के रोडमैप को नया तेवर और कलेवर दे सकती है।

महत्वपूर्ण चुनौतियों की अनदेखी न करें

मगर इस लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए जरूरी है कि कांग्रेस उत्साह में संगठन के ढांचे में सभी स्तरों पर कमियों, पार्टी में जवाबदेही, हिन्दी भाषी राज्यों में नए नेतृत्व के सामने नहीं आने के संकट, कार्यकर्ताओं से संवाद की दूरियां, नए सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में वोटरों के नए वर्ग को जोड़ने जैसी महत्वपूर्ण चुनौतियों की अनदेखी न करें।

देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी

देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरने के बाद जनादेश 2024 की पार्टी अपने हिसाब से सियासी व्याख्या चाहे जिस तरह करे मगर फिलहाल वास्तविकता यही है कि लोकसभा में कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभानी है। इस भूमिका के निर्वाह में बेशक पार्टी के पास सदन में विपक्षी गठबंधन आइएनडीआइए के सभी घटक दलों का 234 का संख्या बल शामिल है।

कांग्रेस को इस बात को लेकर बेहद सतर्क रहने की जरूरत

मगर कांग्रेस को यहां इस बात को लेकर बेहद सतर्क रहने की जरूरत है कि संसद में विपक्ष की जिम्मेदारी निर्वाहन में सहयोगी दलों की साझी ताकत और पार्टी की जमीनी राजनीति से जुड़ी चुनौतियों में फर्क है। विपक्ष खेमे की सदन में एकजुटता के सहारे पार्टी बेशक एनडीए सरकार को मजबूत चुनौती पेश करते हुए दो कदम पीछे हटने को बाध्य कर सकती है। लेकिन जब बात पार्टियों के आपसी राजनीतिक हित की आएगी तो हर दल अपनी सियासी जमीन बचाने को सर्वोपरि रखेगा।

कांग्रेस को करना होगा इन चुनौतियों का सामना

उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के राजनीतिक धरातल पर कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की चुनौती से इस वास्तविकता का हमेशा सामना करना पड़ेगा। कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष बनाकर 2022 में शीर्षस्थ नेतृत्व के गतिरोध का समाधान तो निकाल लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर संगठनात्मक ढांचे में पैनापन का अभाव अभी चुनौती बनी हुई है। पार्टी महासचिवों की जवाबदेही का न कोई तंत्र है या न कसौटी।

कांग्रेस के इन राज्यों में खराब चुनावी प्रदर्शन

राज्यों में खराब चुनावी प्रदर्शन की बात हो तो छत्तीसगढ, राजस्थान, मध्यप्रदेश में महासचिवों का उत्तरदायित्व तय नहीं होता। इसी तरह चाहे हरियाणा हो या दिल्ली आपसी टकराव के ताजा उदाहरणों से साफ है कि राज्यों के संगठनात्मक मसले और गुटबाजी का हल निकालने में नाकाम रहने पर भी पार्टी महासचिवों या प्रभारियों की जवाबदेही तय नहीं होती। शीर्ष संगठन में जवाबदेही का तंत्र बनाने की कांग्रेस ने उदयपुर चिंतन शिविर में 2022 में घोषणा भी कि थी मगर अभी यह कार्यरूप में सामने नहीं आया है।

राजनीतिक विस्तार में फायदा उठाने के लिए जरूरी

कार्यकर्ताओं में फिलहाल जोश है और इसका राजनीतिक विस्तार में फायदा उठाने के लिए जरूरी है कि शीर्ष नेतृत्व के साथ उनकी संवाद की कमी को पार्टी दूर करे। राहुल गांधी यात्राओं और सभाओं के दौरान कार्यकर्ताओं से रूबरू तो होते हैं मगर दिल्ली में हाईकमान के दरवाजे को भेदना आम कांग्रेसियों के लिए आसान नहीं होता। मल्लिकार्जुन खरगे ने अध्यक्ष पद संभालने के बाद कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद का सिलसिला शुरू किया था मगर इसे अब सांकेतिक रखने की जगह संस्थागत बनाए जाने की जरूरत है।

कांग्रेस इन मुद्दों से जुड़ी

कांग्रेस इस चुनाव में युवाओं, किसानों, ओबीसी, एससी-एसटी को उनके मुद्दों के सहारे जुड़ने की गंभीर कोशिश करती दिखी जिसमें वह कुछ हद तक सफल भी रही। लेकिन पार्टी का यह जुड़ाव चुनाव के लिहाज से तात्कालिक नजर आया। पार्टी अपने राजनीतिक वैचारिक आधार को बढ़ाने की किसी दीर्घकालिक रणनीति का अब तक कोई संकेत नहीं दे रही है। आरएसएस जैसे बड़े संगठन से जुड़ी कैडर आधारित पार्टी भाजपा को परास्त करने के लिए कांग्रेस को भी जरूरत है कि वह अपने सामाजिक और वैचारिक आधार का विस्तार करते हुए इसे मजबूती दे।

कांग्रेस इस पहलू पर भी विचार मंथन करें

तेजी से बढ़ते शहरीकरण के दौर में अब शहरी मध्यम वर्ग मतदाताओं का बहुत बड़ा वर्ग है जो वास्तव में राजनीतिक नैरेटिव निर्धारित करने में सबसे प्रमुख भूमिका निभाता है। इस शहरी मध्यमवर्ग के बीच पार्टी का आधार अब भी कमजोर है। इसे पाटने के लिए जरूरी है कि कांग्रेस इस पहलू पर भी विचार मंथन करे कि कि जातीय जनगणना जैसे मुद्दे की राजनीतिक सीमा रेखा क्या होनी चाहिए। जातीय जनगणना ने करीब साढे तीन दशक बाद एक बार फिर मंडल दौर की सियासत के विमर्श को तेज किया है तो इसकी प्रासंगिकता को कसौटी पर परखने की जरूरत है।

कांग्रेस का आधार कमजोर हुआ

नब्बे के दशक में उत्तरप्रदेश तथा बिहार जैसे बड़े राज्यों में मंडल राजनीति के उभार ने कांग्रेस के नीचे जाने की पटकथा तैयार की थी। मंडल दौर में उभरी क्षेत्रीय पार्टियों के बढ़े वर्चस्व का ही नतीजा है कि हिन्दी प्रदेशों में कांग्रेस का आधार कमजोर हुआ जिसकी वजह से उसका संघर्ष भी लंबा हो गया है। राष्ट्रीय सत्ता की बागडोर का लक्ष्य हासिल करने के लिहाज से कांग्रेस के लिए सबसे अहम यह भी है कि वह राज्यों के संगठनात्मक ढांचे के लंबे समय से दिखाई दे रहे परि²श्य को परिवर्तित करे।

इन राज्यों में कांग्रेस की बड़ी समस्या

लोकसभा चुनाव परिणामों की आड़ में उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड जैसे हिन्दी भाषीराज्य ही नहीं गुजरात, ओडिसा, पश्चिम बंगाल और आंध्रप्रदेश में कांग्रेस का कमजोर संगठन पार्टी के बड़े लक्ष्य की राह में बड़ी चुनौती है। इन राज्यों में पार्टी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि राज्य स्तर पर उसका नया मजबूत नेतृत्व सामने नहीं आ रहा है। बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में जनता से पार्टी को जोड़ने में राज्यों के नेतृत्व की अहम भूमिका है और तेलंगाना में रेवंत रेडडी को आगे कर सत्ता हासिल करने वाली कांग्रेस इसे भली भांति परिचित भी है। लेकिन बिहार-उत्तरप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में इस दिशा में अभी तक पार्टी कोई प्रयोग नहीं कर रही है।

राजनीति में योग्यता से ज्यादा लॉयलटी

राजनीति में योग्यता से ज्यादा लॉयलटी यानी वफादारी को अहमियत मिलती है और कांग्रेस में इसका प्रचलन अपेक्षाकृत ज्यादा रहा है। मगर ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन ¨सह, सुष्मिता देव, मि¨लद देवड़ा, अशोक तंवर जैसे चेहरों के राजनीतिक निष्ठा बदलने के उदाहरणों को देखते हुए पार्टी को अब इस पर गहराई से गौर तो करना ही चाहिए कि लॉयलिटी की जगह जमीनी कार्यकर्ताओं को आगे लाने का प्रयोग उसकी सियासी सूरत बेहतर बनाएगा।

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