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कांग्रेस के लिए आसान नहीं आगे की राह, गठबंधन और पार्टी हित की पथरीली राह पर साधना होगा संतुलन

कांग्रेस के लिए आने वाला समय आसान नहीं रहने वाला है। उसके सामने पथरीली राह पर चलने की चुनौतियां होंगा जहां उसे अपने दलीय हित को सुरक्षित रखते हुए विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा। राज्यों में चुनौती तब आएगी जब कांग्रेस अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने के लिए पहल शुरू करेगी। विशेषकर उन राज्यों में जहां उसके घटक दलों की पैठ मजबूत है।

By Jagran News Edited By: Sachin Pandey Updated: Wed, 26 Jun 2024 12:13 AM (IST)
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कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करते हुए बड़े राज्यों में विस्तार पर ध्यान देना होगा। (File Photo)
संजय मिश्र, नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव 2024 ने देश की राजनीतिक व्यवस्था को गठबंधन राजनीति के दौर में लौटने की वास्तविकता स्वीकार करने का संदेश दिया है। मौजूदा जनादेश का यह संदेश सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए दोहरे रूप में मायने रखती है। पहला गठबंधन के आधार पर ही कांग्रेस की सियासत का भविष्य निर्भर होने का भाजपा का नैरेटिव अब उसके खिलाफ नहीं चल पाएगा, क्योंकि उसकी सत्ता भी राजग के सहयोगी दलों पर निर्भर है।

दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि गठबंधन के नए दौर की वापसी ने क्षेत्रीय पार्टियों को राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने को लेकर फिर से सजग कर दिया है। ओडिशा में बीजू जनता दल की करारी हार के बाद नवीन पटनायक का अपने सांसदों को विपक्ष की भूमिका निभाने का सोमवार को दिया गया संदेश चुनाव नतीजों से पैदा हुई इस सजगता का ज्वलंत प्रमाण है। नवीन बाबू की इस घोषणा में राष्ट्रीय राजनीति के दो ध्रुवों का नेतृत्व कर रही दोनों सबसे बड़ी पार्टियों के लिए चुनौती छिपी हुई है।

पथरीली राह पर चलने की चुनौती

हालांकि, इसमें ज्यादा पथरीली राह पर चलने की चुनौतियां कांग्रेस के सामने रहेंगी, क्योंकि उसे अपने दलीय हित को सुरक्षित रखते हुए विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा। चुनावी चिंतन सीरीज के तहत पिछले दो दिनों से हमने लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता हासिल करने वाली कांग्रेस की हालिया उपलब्धियों और आगे की चुनौतियों को लेकर चर्चा की है। कांग्रेस से जुड़ी इस सीरीज की आखिरी स्टोरी में पढि़ए किस तरह इस पार्टी को दलीय हित सुरक्षित रखते हुए आईएनडीआईए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा।

आईएनडीआईए में शामिल समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं। ऐसे में कांग्रेस को सहयोगी दलों के नेताओं के इरादों-महत्वाकांक्षाओं से भी रूबरू होना पड़ेगा। राज्यों में चुनौती तब आएगी, जब कांग्रेस अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने के लिए पहल शुरू करेगी। विशेषकर उन राज्यों में जहां उसके घटक दलों की पैठ मजबूत है। लोकसभा चुनाव ने एक बार फिर यह इस वास्तविकता को स्थापित कर दिया है कि राज्यों में मजबूत हुए बिना केंद्र की राजनीति में वर्चस्व बनाए रखना संभव नहीं है।

राज्यों में विस्तार पर फोकस की जरूरत

इस हकीकत को भली भांति समझते हुए कांग्रेस के लिए विपक्षी गठबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना जितना अहम है, उतना ही महत्वपूर्ण है कि वह कई बड़े राज्यों में अपने विस्तार पर फोकस करे। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने चार चुनावी राज्यों के पार्टी नेताओं के साथ बैठकों का सिलसिला शुरू कर इसका आगाज भी कर दिया है। मगर कई बड़े राज्यों के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि कांग्रेस के लिए विस्तार का प्रयास करना सहज नहीं होगा।

महाराष्ट्र में पहली परीक्षा

महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव पार्टी के लिए गठबंधन की चुनौतियों के बीच अपने राजनीतिक आधार को विस्तार देने की पहली परीक्षा होगी। महाराष्ट्र में लोकसभा की सबसे अधिक सीटें जीतकर कांग्रेस लंबे अर्से बाद एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इस लिहाज से विधानसभा चुनाव में महाविकास आघाड़ी का नेतृत्व करने और सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का उसका दावा बनता है। शरद पवार की राकांपा के साथ ढाई दशक से उसका भरोसे का रिश्ता है। इसलिए राज्य में कांग्रेस की बड़े भाई की भूमिका से उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। मगर बात जब शिवसेना यूबीटी की आएगी तो फिर वह गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस को देने के लिए तैयार नहीं होगी।

महाविकास आघाड़ी का नेतृत्व उद्धव ठाकरे के हाथों में ही रहना चाहिए, इसको लेकर शिवसेना यूबीटी में किसी तरह की दुविधा नहीं है। लोकसभा चुनाव के दौरान उद्धव ठाकरे ने मुंबई की एक सीट समेत तीन ऐसी सीटें कांग्रेस को देने से इन्कार कर दिया था, जिस पर उसका दावा मजबूत था। शिवसेना यूबीटी के इसी रुख के कारण संजय निरुपम जैसे नेता को कांग्रेस छोड़ने को बाध्य होना पड़ा। उद्धव की रणनीति से साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़े जरूर रहेंगे, मगर महाराष्ट्र में उसे बड़े भाई की भूमिका में आने की गुंजाइश नहीं देंगे।

उत्तर प्रदेश में भी बढ़ानी होगी जमीन

इसी तरह सपा से गठबंधन के कारण लोकसभा चुनाव में हुए फायदे के बाद कांग्रेस की नजर अब उत्तर प्रदेश में अपना जमीनी आधार बढ़ाने पर होगी। राज्य में 2014 तथा 2019 के दो लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलता के बाद 2024 में भाजपा का ग्राफ नीचे आया है। ऐसे में कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि अगले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ढलान पर रहेगी और बेरोजगारी, महंगाई, पेपर लीक से लेकर संवैधानिक हकों के प्रति जागरूक एक बड़े वर्ग का उससे मोहभंग होगा।

केरल की वायनाड सीट से इस्तीफा देते हुए राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में पार्टी को मजबूत करने के इरादे जाहिर भी कर दिए थे, क्योंकि पार्टी नेतृत्व बखूबी जानता है कि केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के लिए उसकी झोली में कम से कम 150-200 सीटों का आंकड़ा होना जरूरी है। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों में आधार बढ़ाना पार्टी के लिए जरूरी है।

सपा के आधार से होगा टकराव

मगर लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से 37 सीटें जीतकर देश के तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरे सपा प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस को राजनीतिक आधार बढ़ाने के लिए इतनी गुंजाइश देंगे, इसकी संभावना कम ही है। गठबंधन की राजनीति में पार्टियों के प्रभाव की कसौटी उसकी जमीनी ताकत और संख्या बल से तय होती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का विस्तार कहीं न कहीं सपा के सियासी आधार को संकुचित करेगा, क्योंकि दोनों पार्टियों के वोट बैंक का सामाजिक आधार लगभग एक ही है। ऐसे में गठबंधन का सामंजस्य तथा राजनीतिक हितों के टकराव से जुड़े मुद्दों की चुनौतियां बनी रहेंगी।

बिहार इसका उदाहरण है, जहां राजद इस चिंता के कारण कांग्रेस को आधार बढ़ाने की गुंजाइश नहीं देता कि पार्टी की पैठ मजबूत होगी तो उसकी सियासी प्रासंगिकता कमजोर होती चली जाएगी। हालांकि, राजद जैसे सहयोगी दलों की इस रणनीति को जानते हुए भी गठबंधन की जरूरत को देखते हुए कांग्रेस को कई बार राजनीतिक कुर्बानी देनी पड़ती है। गठबंधन चलाने के लिए सहयोगी दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से समन्वय बनाने में कोई बुराई नहीं है, मगर कांग्रेस के नए शिखर नेतृत्व राहुल गांधी को पार्टी हित के लिए भी एक सीमा रेखा खींचनी ही होगी।

सोनिया गांधी ने खींची थी लकीर

संप्रग के दौर में सोनिया गांधी द्वारा ऐसी सीमा रेखा खींचे जाने का उदाहरण भी है। 2009 के लोकसभा चुनाव में 22 सीटों के सियासी पराक्रम के बल पर लालू प्रसाद ने कांग्रेस को केवल तीन-चार सीटें दी तो सोनिया गांधी ने राजद से गठबंधन तोड़ अपने उम्मीदवार मैदान में उतार दिए। परिणाम यह हुआ कि सियासी प्रभाव और पराक्रम के बावजूद राजद केवल चार सीटें जीत पाई, तो कांग्रेस ने भी अपने बूते चार सीटें बिहार में हासिल कर ली। राज्यों में क्षेत्रीय दलों के प्रभाव के बीच आईएनडीआईए की साझी ताकत के सहारे राजग सरकार को बैकफुट पर रखना कांग्रेस के जितना सहज होगा, उससे कहीं ज्यादा चुनौती पार्टी के सियासी आधार को बढ़ाने में आएगी।