कांग्रेस के लिए आसान नहीं आगे की राह, गठबंधन और पार्टी हित की पथरीली राह पर साधना होगा संतुलन
कांग्रेस के लिए आने वाला समय आसान नहीं रहने वाला है। उसके सामने पथरीली राह पर चलने की चुनौतियां होंगा जहां उसे अपने दलीय हित को सुरक्षित रखते हुए विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा। राज्यों में चुनौती तब आएगी जब कांग्रेस अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने के लिए पहल शुरू करेगी। विशेषकर उन राज्यों में जहां उसके घटक दलों की पैठ मजबूत है।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव 2024 ने देश की राजनीतिक व्यवस्था को गठबंधन राजनीति के दौर में लौटने की वास्तविकता स्वीकार करने का संदेश दिया है। मौजूदा जनादेश का यह संदेश सबसे प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए दोहरे रूप में मायने रखती है। पहला गठबंधन के आधार पर ही कांग्रेस की सियासत का भविष्य निर्भर होने का भाजपा का नैरेटिव अब उसके खिलाफ नहीं चल पाएगा, क्योंकि उसकी सत्ता भी राजग के सहयोगी दलों पर निर्भर है।
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है कि गठबंधन के नए दौर की वापसी ने क्षेत्रीय पार्टियों को राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने को लेकर फिर से सजग कर दिया है। ओडिशा में बीजू जनता दल की करारी हार के बाद नवीन पटनायक का अपने सांसदों को विपक्ष की भूमिका निभाने का सोमवार को दिया गया संदेश चुनाव नतीजों से पैदा हुई इस सजगता का ज्वलंत प्रमाण है। नवीन बाबू की इस घोषणा में राष्ट्रीय राजनीति के दो ध्रुवों का नेतृत्व कर रही दोनों सबसे बड़ी पार्टियों के लिए चुनौती छिपी हुई है।
पथरीली राह पर चलने की चुनौती
हालांकि, इसमें ज्यादा पथरीली राह पर चलने की चुनौतियां कांग्रेस के सामने रहेंगी, क्योंकि उसे अपने दलीय हित को सुरक्षित रखते हुए विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा। चुनावी चिंतन सीरीज के तहत पिछले दो दिनों से हमने लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता हासिल करने वाली कांग्रेस की हालिया उपलब्धियों और आगे की चुनौतियों को लेकर चर्चा की है। कांग्रेस से जुड़ी इस सीरीज की आखिरी स्टोरी में पढि़ए किस तरह इस पार्टी को दलीय हित सुरक्षित रखते हुए आईएनडीआईए के दलों से समन्वय बनाकर चलना होगा।आईएनडीआईए में शामिल समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दल पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं। ऐसे में कांग्रेस को सहयोगी दलों के नेताओं के इरादों-महत्वाकांक्षाओं से भी रूबरू होना पड़ेगा। राज्यों में चुनौती तब आएगी, जब कांग्रेस अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ाने के लिए पहल शुरू करेगी। विशेषकर उन राज्यों में जहां उसके घटक दलों की पैठ मजबूत है। लोकसभा चुनाव ने एक बार फिर यह इस वास्तविकता को स्थापित कर दिया है कि राज्यों में मजबूत हुए बिना केंद्र की राजनीति में वर्चस्व बनाए रखना संभव नहीं है।
राज्यों में विस्तार पर फोकस की जरूरत
इस हकीकत को भली भांति समझते हुए कांग्रेस के लिए विपक्षी गठबंधन का राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना जितना अहम है, उतना ही महत्वपूर्ण है कि वह कई बड़े राज्यों में अपने विस्तार पर फोकस करे। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने चार चुनावी राज्यों के पार्टी नेताओं के साथ बैठकों का सिलसिला शुरू कर इसका आगाज भी कर दिया है। मगर कई बड़े राज्यों के राजनीतिक समीकरण ऐसे हैं कि कांग्रेस के लिए विस्तार का प्रयास करना सहज नहीं होगा।महाराष्ट्र में पहली परीक्षा
महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव पार्टी के लिए गठबंधन की चुनौतियों के बीच अपने राजनीतिक आधार को विस्तार देने की पहली परीक्षा होगी। महाराष्ट्र में लोकसभा की सबसे अधिक सीटें जीतकर कांग्रेस लंबे अर्से बाद एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। इस लिहाज से विधानसभा चुनाव में महाविकास आघाड़ी का नेतृत्व करने और सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का उसका दावा बनता है। शरद पवार की राकांपा के साथ ढाई दशक से उसका भरोसे का रिश्ता है। इसलिए राज्य में कांग्रेस की बड़े भाई की भूमिका से उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। मगर बात जब शिवसेना यूबीटी की आएगी तो फिर वह गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस को देने के लिए तैयार नहीं होगी।
महाविकास आघाड़ी का नेतृत्व उद्धव ठाकरे के हाथों में ही रहना चाहिए, इसको लेकर शिवसेना यूबीटी में किसी तरह की दुविधा नहीं है। लोकसभा चुनाव के दौरान उद्धव ठाकरे ने मुंबई की एक सीट समेत तीन ऐसी सीटें कांग्रेस को देने से इन्कार कर दिया था, जिस पर उसका दावा मजबूत था। शिवसेना यूबीटी के इसी रुख के कारण संजय निरुपम जैसे नेता को कांग्रेस छोड़ने को बाध्य होना पड़ा। उद्धव की रणनीति से साफ है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के साथ मजबूती से खड़े जरूर रहेंगे, मगर महाराष्ट्र में उसे बड़े भाई की भूमिका में आने की गुंजाइश नहीं देंगे।