Move to Jagran APP

क्या राजनीतिक दलों को मिलने वाले चुनावी चंदों में पारदर्शिता लाना समय की मांग है?

चुनाव आयोग ने सरकार से सिफारिश की है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले 2000 रुपये से ज्यादा के सभी नकद चंदे की जानकारी सार्वजनिक की जाए। पहले यह 20 हजार था। इस कदम के प्रभाव को आंकने के लिए हमें राजनीतिक चंदे के फंदे को नजदीक से समझना होगा।

By JagranEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 26 Sep 2022 10:29 PM (IST)
Hero Image
अव्यवस्था का फंदा है चुनावी चंदा। फाइल फोटो
त्रिलोचन शास्त्री। राजनीतिक चंदे को लेकर सुधार के किसी भी कदम से पहले हमें राजनीति एवं चुनावों में पैसे की भूमिका को जानना होगा। चुनावी व्यवस्था में सुधार के लिए दुनियाभर में कैंपेन फंडिंग से जुड़े सुधार प्राथमिकता में हैं। चुनावों में पैसे के महत्व के मामले में भारत की स्थिति भी किसी अन्य देश से अलग नहीं है। हालांकि इस मसले को मतदाताओं के बीच उतना महत्व नहीं मिला है, जितना मिलना चाहिए। ज्यादा धनबल वाले राजनीतिक दल प्राय: ज्यादा आसानी से चुनाव जीत जाते हैं। वे चुनाव अभियानों और मतदाताओं तक पहुंचने के लिए पैसे का इस्तेमाल करते हैं।

भारत में बहुत से राजनीतिक दल अपने क्षेत्रों में मतदाताओं के बीच उपहार भी बांटते हैं। वैसे तो यह अवैध है, लेकिन धड़ल्ले से ऐसा होता है। जब ऐसे दल जीत जाते हैं, तो अंतत: परेशान भी जनता को ही होना पड़ता है, क्योंकि ऐसे दलों का फोकस अच्छे प्रशासन के बजाय अपनी शक्ति पर और चुनावों के दौरान हुए खर्च की उगाही पर ज्यादा रहता है। कई मामलों में ये दल उन लोगों को फायदा पहुंचाते हैं, जिन्होंने चुनाव के दौरान चंदा दिया होता है।

आरटीआइ के तहत व्यवस्था

निश्चित तौर चंदे से जुड़ी व्यवस्था में सुधार बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसे में राजनीतिक दलों के आय के स्रोत पर नजर डालनी होगी। वैसे तो राजनीतिक दलों ने विरोध किया था, लेकिन अब उन्हें चंदे की जानकारी कर विभाग और चुनाव आयोग को देनी पड़ती है। केंद्रीय सूचना आयोग ने भी आरटीआइ के तहत व्यवस्था दी है कि इन सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाएगा। इन आंकड़ों को देखने से पहले हमें यह भी जान लेना चाहिए कि यह राशि केवल राजनीतिक दलों द्वारा घोषित राशि है। अघोषित चंदों के बारे में कोई नहीं जानता है। इसके अलावा, चुनाव के दौरान प्रत्याशियों द्वारा किया जाने वाला खर्च भी घोषित चंदे का हिस्सा नहीं होता है।

सीधे शब्दों में कहें तो घोषित राशि राजनीतिक दलों एवं प्रत्याशियों को मिलने वाले कुल चंदे का बहुत थोड़ा सा हिस्सा होती है। घोषित चंदे का ‘ज्ञात’ और ‘अज्ञात’ स्रोतों के रूप में वर्गीकरण किया जाता है। ज्ञात स्रोत उन्हें कहा जाता है, जिन्हें देने वाले के बारे में पता होता है और उनकी जानकारी चुनाव आयोग को दी जाती है। इनमें परिसंपत्तियों की बिक्री, सदस्यता शुल्क, बैंक से मिला ब्याज आदि शामिल होते हैं। अज्ञात स्रोतों से मिली राशि वह होती है, जिसके देने वाले के बारे में जानकारी नहीं होती है। इनमें इलेक्टोरल बांड से मिले दान, कूपन बिक्री, राहत कोष, अन्य आय, मीटिंग व मोर्चे के दौरान जुटाया गया चंदा आदि शामिल हैं। नकद चंदे भी इसमें शामिल हैं। अभी नकद चंदे की सीमा 20 हजार रुपये है।

आंकड़े बताते हैं कि अभी कुल चंदे में नकद की हिस्सेदारी मात्र 9.43 प्रतिशत है। अगर हम इस सीमा को 20 हजार से घटाकर 2,000 रुपये कर देने से पारदर्शिता पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि चंदे का बड़ा हिस्सा तो अज्ञात ही रहेगा। चंदे की व्यवस्था में सुधार करना है तो व्यापक बदलाव करने होंगे। सबसे पहले तो इलेक्टोरल बांड स्कीम में पारदर्शिता लानी होगी। जरूरी हो तो व्यवस्था को बनाए रखा जाए, लेकिन स्रोत की जानकारी सामने आनी चाहिए। अभी स्रोत अज्ञात रहता है।

पार्टी के नाम पर होने वाले खर्च

भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां इतनी अपारदर्शी व्यवस्था को यह कहकर जनता के सामने पेश किया गया है कि इससे पारदर्शिता बढ़ेगी। यह मामला कई साल से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। इसी तरह दुनिया के कई अन्य देशों की तरह प्रत्याशी या पार्टी के नाम पर होने वाले खर्च को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए। कई एनजीओ और संगठन किसी दल के लिए प्रचार करते हैं। अभी हमें नहीं पता कि इनका खर्च कितना रहता है। यह सामने आना चाहिए। इसी तरह कूपन आदि बेचने की व्यवस्था को भी पारदर्शी बनाना होगा। आज तो एक सामान्य सा व्यक्ति भी पानवाले को डिजिटल तरीके से भुगतान करने में सक्षम है। राजनीतिक दलों को भी इसे अपनाना चाहिए।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो देश में राजनीतिक चंदे की व्यवस्था में व्यापक सुधार और पूर्ण पारदर्शिता की आवश्यकता है। इससे लोकतंत्र मजबूत होगा और पूरी दुनिया के लिए भारत एक उदाहरण बनकर सामने आएगा। ऐसा करके ही स्वतंत्रता के इस अमृत काल को सार्थक किया जा सकता है।

कारपोरेट की तरह बनते जा रहे देश के राजनीतिक दल अब दिल खोलकर चुनाव लड़ते हैं। पैसा पानी की तरह बहता है। जाहिर है रोजमर्रा के कामकाज से लेकर पार्टी प्रबंधन और चुनाव के लिए इनको इफरात धन की जरूरत होती है। बताया जाता है कि ये राजनीतिक दल अपने खर्च के लिए तमाम लोगों और संस्थाओं से चंदा लेते हैं, लेकिन जिस हिसाब से तमाम मदों में ये दिल खोलकर खर्च करते हैं, उससे इनको मिलने वाले चंदे की पवित्रता और शुचिता पर शंका सहज ही खड़ी होती है।

चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाना

चुनाव में काले धन के इस्तेमाल को रोकने के लिए और चुनावी चंदे में पारदर्शिता बढ़ाने के लिए हाल ही में चुनाव आयोग ने विधि मंत्रालय से सिफारिश की है कि राजनीतिक दलों को नकद मिलने वाले चंदे की अधिकतम सीमा 20 हजार से घटाकर दो हजार की जाए। पार्टियों को मिलने वाले कुल चंदे में नकद की सीमा अधिकतम 20 प्रतिशत या 20 करोड़ तक सीमित की जाए। चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने को लेकर लाए गए चुनावी बांड के विवाद में आने के बाद इसे अहम कदम माना जा रहा है। अभी कई पार्टियां यह बताकर अपने चंदे का विवरण नहीं सार्वजनिक करती हैं कि उनको मिले सभी चंदे बीस हजार से कम के थे। हालांकि ढीठ राजनीतिक दल यही बहाना दो हजार रुपये के नकद चंदे वाले मामले में भी कर सकते हैं। ऐसे में चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने और चुनावी व्यवस्था को काले धन से मुक्ति कराने के इस कदम के साथ अन्य प्रभावी तरीकों की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

विभिन्न देशों में राजनीतिक दलों को चंदा देने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए कई अहम प्रावधान किए गए हैं। यहां पर चंदा देने वाले कारपोरेट, ट्रेड यूनियन और वैयक्तिक स्तर पर वैधानिक सीमा लागू कर दी गई है। कुछ प्रमुख देशों में चंदे की प्रक्रिया पर एक नजर :

परदेस में प्रविधान

ब्रिटेन: प्रमुख रूप से चंदे के तीन प्रमुख स्रोत हैं-सदस्यता, चंदा और सरकारी खर्चे पर चुनाव (स्टेट फंडिंग)। विवाद की मुख्य वजह यह है कि देश के राजनीतिक दलों पर आरोप है कि वे कुछ विशेष धनी दाताओं पर ज्यादा ही निर्भर हैं। आयरलैंड: कोई भी व्यक्ति किसी राजनीतिक दल को अधिकतम 6,350 यूरो और किसी उम्मीदवार को अधिकतम 2,540 यूरो चंदे के रूप में दे सकता है। अमेरिका: किसी उम्मीदवार को कोई व्यक्ति 2,800 डालर से ज्यादा का चंदा नहीं दे सकता। हालांकि, उम्मीदवार अपनी निजी संपत्ति से जितना चाहें खर्च कर सकते हैं। पहले अभियान के लिए सरकारी पैसा मिलता था।

2014 में यह कानून बना कि सम्मेलनों के लिए सरकारी पैसा नहीं मिलेगा। प्रत्याशियों की कमेटियों, राजनीतिक दलों की कमेटियों ओर राजनीतिक कार्यवाही कमेटियों (पीएसी) की खर्च की कोई सीमा नहीं है। आस्ट्रेलिया: निर्वाचन आयोग को चंदे का ब्योरा देना अनिवार्य है। किसी प्रत्याशी को यदि कोई नागरिक या संगठन 125 डालर से अधिक या किसी सीनेट समूह को 625 डालर से अधिक देता है तो उसके नाम और पते को घोषित करना होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी पंजीकृत दल को 935 डालर से अधिक का चंदा देता है तो उसको आयकर रिटर्न में दिखाना होता है। फ्रांस: 1995 से व्यापारिक समुदाय से चंदे लेने पर पाबंदी लगा दी गई है। यहां सरकारी खर्चे पर चुनाव होते हैं। चुनाव के दौरान एक व्यक्ति 4600-7500 यूरो के बीच चंदा दे सकता है। इस पर टैक्स में छूट भी मिलती है। जर्मनी: 6700 पौंड से अधिक दिए जाने वाले सभी चंदे का ब्योरा देना आवश्यक है। यूरोपीय यूनियन या किसी कंपनी में एक जर्मन नागरिक की हिस्सेदारी यदि 50 प्रतिशत से ज्यादा है तो वह 336 पौंड का चंदा दे सकता है। प्रमुख रूप से सरकारी खर्चे पर चुनाव होते हैं।

[चेयरमैन, एडीआर एवं प्रोफेसर, आइआइएम बेंगलोर]