भारतीय विदेश नीति का स्वर्णिम दौर, परिवर्तनशील विश्व में भारत का बढ़ता वर्चस्व; एक्सपर्ट व्यू
नई दिल्ली में हाल में ‘नो मनी फार टेरर’ सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 75 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने आतंकवाद से निपटने के लिए ‘अविभेदित और अविभाजित’ दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देते हुए राष्ट्रों से राजनीतिक विभाजन से ऊपर उठने का आग्रह किया।
By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Tue, 22 Nov 2022 11:17 AM (IST)
शिवेश प्रताप। भारत राष्ट्र की बीते 75 वर्षों की यात्रा का सिंहावलोकन करें तो हम पाते हैं कि यह यात्रा आसान नहीं रही है। एक लंबी इस्लामी-ब्रिटिश परतंत्रता के बाद देश जब स्वतंत्र हुआ तो दुनिया ने इसके विफल होने की भविष्यवाणी की थी। भारत ने अपनी जिजीविषा एवं संघर्ष के बल पर एक ऐसा मुकाम हासिल किया है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य न होते हुए भी आज विश्व के अधिकांश स्थायी एवं अस्थायी सदस्य भारत के विचारों या पक्ष को जानने के लिए लालायित रहते हैं। यदि हम अपने 75 वर्षों की विदेश नीति पर विचार करें तो पाते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के द्वारा खड़ी की गई समस्याएं वास्तव में भारत के लिए मुख्य बाधाएं नहीं थीं, अपितु भारत के द्वारा स्वयं से बनाई गई कई वैचारिक हठधर्मिताएं थीं जिस कारण भारत अपने महत्व के साथ विश्व मंच पर नहीं आ पा रहा था।
बीते माह नौ अक्टूबर को भारतीय विदेश सेवा दिवस के अवसर पर विदेश मंत्री डा. जयशंकर ने कहा, ‘आने वाले समय में भारतीय राजनयिक भारत की वैश्विक पहचान एवं हितों को और अधिक मजबूती से विश्व मंच पर रखते हुए दिखेंगे। ऐसे भारतीय राजनयिक वर्ष 2047 तक भारत के बड़े लक्ष्यों की पूर्ति करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे।’ इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत ने कितनी तेजी से अपनी ‘साफ्ट स्टेट’ की पहचान को छोड़कर एक मजबूत एवं स्पष्ट हितों वाले देश के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर ली है। भारत की मुखर विदेश नीति ने सबका ध्यान आकर्षित किया है।
भारतीय विदेश नीति
भारत की विदेश नीति का पहला चरण 1947 में प्रारंभ होकर 1962 तक चलता है। यह आशापूर्ण गुटनिरपेक्षता का दौर रहा। वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध के साथ ही गुटनिरपेक्षता के इस आशावादी सिद्धांत का एक निराशाजनक अंत हुआ। वर्ष 1962 से 1971 तक भारत की विदेश नीति का दूसरा दौर चला जिसे हम यथार्थवाद एवं सुधारों का दौर कह सकते हैं। वर्ष 1964 में भारत ने अमेरिका के साथ रक्षा समझौता किया।
वर्ष 1962 के चीन आक्रमण ने भारत की राजनीति को देश की सुरक्षा राजनीति एवं आर्थिक संसाधनों पर विशेष रूप से बल देने वाली नीतियों की तरफ मोड़ा। इसके बाद तीसरा दौर प्रारंभ होता है 1971 से जो 20 वर्ष के लंबे कालखंड यानी 1991 तक चला। इस दौर में भारत का प्रारंभिक ध्यान अपने क्षेत्रीय संसाधनों को सहेजने पर था। इसका प्रारंभ पाकिस्तान के साथ युद्ध एवं बांग्लादेश के निर्माण के साथ हुआ, परंतु दुर्भाग्य से इसका अंत श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की कार्रवाई के एक दुखद अध्याय के साथ हुआ। हमारी विदेश नीति का चौथा दौर 1991 से लेकर 1999 तक चला जिसमें रणनीतिक एवं कूटनीतिक नीतियों के साथ-साथ देश को आगे बढ़ने के लिए आर्थिक नीतियों का भी समावेशन करना पड़ा।
यह वह दौर था जब विश्व शीत युद्ध खत्म होने के बाद पूरी तरह से एक ध्रुवीय या अमेरिका आधारित बन गया था। इस दौर में भारत ने आर्थिक एवं कूटनीतिक क्षेत्रों में स्वयं को बहुत तेजी से स्थापित किया। अमेरिका के साथ अपने संबंधों को सुधारने के क्रम में बड़ा खतरा मोल लेते हुए 1998 में भारत ने अपना दूसरा नाभिकीय परीक्षण किया। नाभिकीय परीक्षण एवं कारगिल में पाकिस्तान को धूल चटाने के कारण वैश्विक स्तर पर भारत का महत्व तो बढ़ा ही, भारत को व्यावहारिक तौर पर विदेश नीति के परिवर्तन का लाभ भी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। इसके बाद पांचवां दौर वर्ष 2000 से 2013 तक चला। इस दौर में भारत अमेरिका एवं चीन के बीच में शक्तियों के संतुलन का एक अहम किरदार बनकर उभरा। इस दौर में भारत की प्रासंगिकता पूरे विश्व में तेजी से बढ़ी।