Move to Jagran APP

चुनौतियों के बीच मोदी सरकार ने वो कर दिखाया जिसकी उम्‍मीद भी काफी कम थी

मौजूदा समय में मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर दो बड़े झटके लगते दिख रहे हैं- तेल की कीमतों का लगातार बढ़ते जाना और डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट आना।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Fri, 07 Sep 2018 06:43 AM (IST)
चुनौतियों के बीच मोदी सरकार ने वो कर दिखाया जिसकी उम्‍मीद भी काफी कम थी
सुषमा रामचंद्रन। पिछले हफ्ते देश की अर्थव्यवस्था को लेकर अच्छी खबर आई। मोदी सरकार पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों और रुपये में लगातार गिरावट के चलते दबाव में है और हाल में ऐसी खबरें भी आ रही थीं कि यूपीए शासन के दौरान देश की विकास दर कहीं बेहतर थी। ऐसे में मोदी सरकार को इस खबर से निश्चित ही सुकून मिला होगा कि चालू वित्त-वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी विकास दर अनुमान से कहीं अधिक 8.2 फीसद रही। आंकड़ों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि अनेक प्रमुख सेक्टरों में उछाल का रुख है। मसलन, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 13.5 फीसद दर से बढ़ा, जो इस बात का संकेत है कि देश में औद्योगिक विकास रफ्तार पकड़ रहा है। कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में भी अच्छा रुझान देखा गया। कृषि सेक्टर ने भी 5.3 फीसद की दर से विकास करते हुए अच्छी संभावनाएं दर्शाईं।

आलोचकों का हो सकता है यह तर्क
हालांकि आलोचक यह कह सकते हैं कि बढ़ी हुई यह विकास दर पिछले साल इसी अवधि के दौरान रही 5.6 फीसद विकास दर के आधार पर ही आज इतनी अच्छी लग रही है। पिछले साल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 1.8 फीसदी तक गिर गया था, जबकि कृषि सेक्टर महज तीन फीसद की दर से बढ़ा था। कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था अब नोटबंदी और जीएसटी के झटकों से भी उबरने लगी है और विकास दर में उछाल उसी का नतीजा है।

आंकड़ों से बैचेनी 
इसमें कोई संदेह नहीं कि पहले जारी किए गए उन आंकड़ों को लेकर काफी बेचैनी रही, जो यह बताते थे कि डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में देश की अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन कहीं बेहतर था। राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की उप-समिति द्वारा पिछली सीरिज (2004-05) के आधार पर तैयार किए गए जीडीपी आंकड़े से यह पाया गया कि यूपीए सरकार के कार्यकाल में दो साल आर्थिक विकास दर 10 फीसद से अधिक रही और पहले कार्यकाल में तो यह लगातार आठ फीसद से ऊपर बनी रही। अब इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि विकास में यह उछाल यूपीए कार्यकाल में उठाए गए नीतिगत कदमों की वजह से थी या फिर अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए सरकार द्वारा लागू किए गए सुधारों के सिलसिले का नतीजा थी।

मनमोहन ने किया शुरू, वाजपेयी ने बढ़ाया आगे
सच तो यह है कि 1991 से ही (जब पीवी नरसिंह राव देश के प्रधानमंत्री थे) देश की अर्थव्यवस्था लगातार सुधार कार्यक्रमों से प्रभावित होती रही है। यह नरसिंह राव ही थे, जिन्होंने उस वक्त डॉ. मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधार लागू करने की खुली छूट दी थी। इसके साथ-साथ इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह वाजपेयी थे जिन्होंने कुछ बरस के बाद सुधारों की इस विरासत को आगे बढ़ाया और सुधार कार्यक्रमों को कुछ ऐसे क्षेत्रों में भी लेकर गए, जिन्हें पहले सुधारों के लिहाज से वर्जित समझा जाता था। यह वाजपेयी ही थे, जिन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के विनिवेश की पहल की।

स्वर्णिम चतुभरुज सड़क परियोजना
स्वर्णिम चतुभरुज सड़क परियोजना एक ऐसी योजना थी, जिसने निवेश और रोजगार को प्रोत्साहन दिया। वाजपेयी के राज में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का भी स्वागत किया गया, जिसने ऐसे विश्लेषकों को भी हैरान कर दिया, जो स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के एजेंडे को आगे बढ़ाने में जुटे थे। माना जा रहा था कि स्वदेशी जागरण मंच के अलावा मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं के विचार हावी रहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वर्ष 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री के अवतार में वापसी से कइयों को यह लगा कि सुधारों को उसी प्रबलता से आगे बढ़ाया जाएगा, जैसा पहले किया गया था।

आर्थिक सुधारों का दौर
लेकिन कुछ हद तक ऐसा इसलिए भी नहीं हुआ, क्योंकि बड़े-बड़े आर्थिक सुधार पहले ही हो चुके थे और तब यह भी समझा गया कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सहारा देने की जरूरत है। तब ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम को बड़े पैमाने पर विस्तारित करने की योजना बनाई गई, ताकि गांवों में रोजगार का सृजन हो। इसके साथ-साथ वित्तीय सेक्टर में भी सुधारों को लागू किया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रही उच्च विकास दर को एनडीए सरकार के सुधारों से भी संबल मिला था, लेकिन हम यह भी न भूलें कि मनमोहन सरकार को वर्ष 2008 में आई आर्थिक मंदी और अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की आसमान छूती कीमतों से भी जूझना पड़ा था।

मोदी सरकार की शुरुआती स्थिति
वास्तव में नरेंद्र मोदी सरकार शुरुआती सवा दो साल तक तो बहुत संतुलित स्थिति में थी। तभी उसने अप्रत्याशित ढंग से नोटबंदी का फैसला किया, जिससे अचानक अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ गई। इसके बाद जीएसटी की लांचिंग अर्थव्यवस्था के लिए एक और झटके की तरह रही, क्योंकि व्यापार व उद्योग जगत को इस नई कर प्रणाली के साथ तालमेल बिठाने में समय लगा। अंतत: इसके प्रभाव काफी सकारात्मक रहे क्योंकि इससे करदाताओं का दायरा काफी बढ़ गया। हालांकि कर राजस्व में उतनी बढ़ोतरी नहीं हुई, जितनी उम्मीद की जा रही थी, लेकिन अब यह रफ्तार पकड़ रहा है क्योंकि अनेक सामग्रियों पर कर की दरें घटाते हुए जीएसटी के ढांचे को ज्यादा सुसंगत बनाया गया है। इसके साथ-साथ इसका प्रत्यक्ष करों पर भी असर पड़ा है क्योंकि जो जीएसटी के दायरे में आ रहे हैं, वे अब आखिरकार अपना आयकर रिटर्न भी दाखिल करने लगे हैं।

अर्थव्यवस्था में तेजी
अर्थव्यवस्था पुन: तेजी से सुदृढ़ता की राह पर बढ़ने लगी है। हालांकि कुछ बड़ी समस्याएं अभी भी बरकरार हैं जो मोदी सरकार के इस अंतिम वर्ष में रंग में भंग डाल सकती हैं। इनमें पहली समस्या है रुपये के मूल्य में तीव्र गिरावट, जिसके चलते आयात और महंगे हो गए हैं तथा चालू खाता घाटा बढ़ने का भी अंदेशा पैदा हो गया है। रुपये में गिरावट की वजह से कच्चे तेल का आयात बिल और अधिक बढ़ जाएगा। ऐसे में मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि राजस्व का अंतर्प्रवाह चालू खाता घाटे को स्वीकृत सीमा के भीतर रखने के लिहाज से पर्याप्त बना रहे। ये कुछ ऐसे मसले हैं, जो फिलहाल हमारे नीति-नियंताओं को परेशान करते रहेंगे। इन सूरतेहाल में जीडीपी के ताजा आंकड़े घने बादलों के बीच एक उजली किरण की तरह नजर आते हैं।

(लेखक आर्थिक विश्लेषक हैं)