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राष्‍ट्रपति भवन कभी हुआ करता था वायसराय हाउस, लुटियंस ने अपने निर्माण पर खुश होकर चूम ली थी यहां की दीवार

Rashtrapati Bhavan News देश का वह सर्वाधिक प्रतिष्ठित पता जिसकी परिकल्पना भारत में ब्रिटिश सत्ता के केंद्र ‘वायसराय हाउस’ के तौर पर हुई थी और जो स्वाधीनता के बाद लोकतंत्र के संरक्षण का शीर्ष बन गया। यह भारतीय इतिहास तथा संस्कृति की स्मृतियों का श्रेष्ठतम संग्रहालय भी है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sun, 24 Jul 2022 10:43 AM (IST)
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देश की प्रथम नागरिक और पांच साल के लिए राष्ट्रपति भवन की निवासी होंगी।
विष्णु शर्मा। Rashtrapati Bhavan News भारत गणराज्य के 15वें राष्ट्रपति के रूप में कल 25 जुलाई को शपथ लेंगी द्रौपदी मुर्मू। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष का हर्ष इस बात से द्विगुणित हो गया है और ऐतिहासिक भी कि वे देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन होने वाली प्रथम आदिवासी महिला हैं। राष्ट्रपति भवन, जिसकी परिकल्पना अंग्रेजों ने भारत में ब्रिटिश सत्ता के केंद्र ‘वायसराय हाउस’ के तौर पर की थी, देखा जाए तो भारतीय इतिहास की यादों का सबसे दिलचस्प संग्रहालय है। 1857 की क्रांति को दबाने, बहादुर शाह जफर के दोनों शहजादों को मारने और उनको रंगून निर्वासित करने के बाद अंग्रेजों के बीच लाल किला, जामा मस्जिद को ढहाने से लेकर 200 अमीरों के घर तोड़ने तक की योजनाएं बनीं। समय के साथ कलकत्ता में क्रांतिकारियों के हमले, अंग्रेजों के व्यापार की बजाय भारत पर शासन करने की इच्छा और रेलवे के जाल के चलते पुरानी दिल्ली को दुरुस्त करने के बजाय नई दिल्ली बसाने का फैसला लिया गया, मुगल छाया से निकलकर एक बिल्कुल नया शहर। चूंकि ताकत का केंद्र वायसराय हाउस था, इसलिए सबसे ज्यादा ध्यान उसी पर दिया गया।

दिशाओं के फेर में घूमे विदेशी

नई दिल्ली शहर बनाने का ऐलान हुआ दिल्ली के तीसरे दरबार में, ब्रिटेन का राजा जार्ज पंचम और क्वीन मैरी ने 15 दिसंबर, 1911 को नई दिल्ली शहर की आधारशिला रखी किंग्जवे कैंप में। जिस 640 किलोग्राम चांदी के सिंहासन पर इस दरबार में राजा बैठे थे, वह अभी राष्ट्रपति भवन में रखा हुआ है। तमाम राजा-महाराजाओं के साथ मशहूर पत्रकार खुशवंत सिंह के दादा सुजान सिंह भी अपने दोनों बेटों के साथ यहां मौजूद थे। बाद में राष्ट्रपति भवन के प्रांगण सहित उनको दिल्ली में 28 प्रमुख भवन बनाने का मौका मिला। शहर बनने तक उत्तरी दिल्ली के सिविल लाइंस में राजधानी की अस्थायी इमारतें खड़ी कर दी गईं। राजधानी बनते ही राजनीतिक गतिविधियां यहां तेज हो गईं। कई अखबार यहां से शुरू हो गए, होमरूल लीग का दफ्तर बन गया, 1917 में कांग्रेस ने भी अधिवेशन आयोजित किया। क्रांतिकारी गतिविधियां तो लार्ड हार्डिंग के हाथी पर पहले दिन ही बम फेंककर रासबिहारी बोस के साथियों ने शुरू कर ही दी थीं। नई दिल्ली के लेआउट, साइट आदि के बारे में फैसले के लिए भारत सचिव ने जो कमेटी बनाई, उसमें कैप्टन स्विंटन चेयरमैन थे और जे. ए. ब्राडी और एडविन लुटियंस सदस्य। हार्डिंग को लुटियंस के नाम पर ऐतराज था कि अभी तक उसने कुछ बड़ा नहीं बनाया है, जबकि उसके चाहने वाले कहते थे कि महंगी इमारतें बनाने में उसे महारत हासिल है। ये भी बहस छिड़ी कि नई दिल्ली लाल किले के उत्तर में हो या दक्षिण में, क्योंकि तीनों दिल्ली दरबार उत्तर में हुए थे, लेकिन उत्तर में यमुना के प्रकोप का डर था। कमेटी ने रिपोर्ट में रायसीना हिल को चुना। जिस पर बसा था गांव रायसीना और मालचा। पुराना किला, निजामुद्दीन और हुमायूं मकबरा जैसी इमारतें नई दिल्ली को पुरानी दिल्ली से भी जोड़ सकती थीं। हार्डिंग पहले मालचा देखने गया, अभी जिस इलाके में चाणक्यपुरी और नारायणा का थोड़ा हिस्सा है। नारायणा का नाम भी चर्चा में आया, लेकिन लोगों ने कहा कि इसे दिल्ली में नहीं माना जाता।

अपशगुन ने बदल दी जगह

अपनी किताब ‘कनाट प्लेस एंड द मेकिंग आफ न्यू देहली’ में किंग्जवे कैंप से रायसीना हिल पर राजधानी ले जाने की दो और वजह स्वप्ना लिडल बताती हैं। घोषणा के अगले ही दिन जिब्राल्टर की खाड़ी में ‘दिल्ली’ नाम का वो जहाज बड़ी दुर्घटना का शिकार हो गया, जिसमें किंग की बहन प्रिंसेस लुईस और उनके पति सफर कर रहे थे। आधारशिला रखने के लिए सामान्य पत्थर की शिला इस्तेमाल हुई थी। अफवाह उड़नी शुरू हो गई कि अधिकारियों ने जल्दबाजी में कब्र का पत्थर लगा दिया है। कमेटी की रिपोर्ट के बाद वायसराय हाउस के लिए कई जगह के सर्वे के बाद लिवरपुल के म्यूनिसिपल इंजीनियर ए. ब्राडी के सुझाव को लार्ड हार्डिंग ने मानकर रायसीना हिल को चुना। सोभा सिंह रात के अंधेरे में मजदूरों के साथ जाकर वो दोनों फाउंडेशन स्टोन कोरोनेशन पार्क से उठा लाए और रायसीना हिल पर लगा दिया। ‘खुशवंतनामा’ में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि, ‘ये मेरे पिता का पहला काम था, बैलगाड़ी किराए पर लेकर उसके साथ साइकिल चलाते हुए रात के अंधेरे में 11 किलोमीटर तक लाए क्योंकि लोग उन पत्थरों को अपशगुन मानने लगे थे। इसके लिए उन्हें कुल 16 रुपए मिले थे।’

भिड़ गए जब दोनों आर्किटेक्ट

लुटियंस को जिम्मेदारी मिली वायसराय हाउस बनाने की, जिसे स्वतंत्रता दिवस के दिन उसका नाम गवर्नमेंट हाउस और फिर राष्ट्रपति भवन रख दिया गया। लुटियंस के सुझाव पर उसके एक सीनियर हरबर्ट बेकर को बुलाया गया, ताकि बाकी महत्वपूर्ण इमारतों जैसे साउथ ब्लाक और नार्थ ब्लाक को बनाया जा सके। हरबर्ट बेकर ने सचिवालय की इन दोनों इमारतों को भी रायसीना हिल पर ही बनाने की इजाजत ले ली, वही एक गलती लुटियंस से हो गई, क्योंकि विजय चौक से आज आपको राष्ट्रपति भवन ठीक से नहीं दिखता तो इसकी वजह ‘दिल्ली, हिस्ट्री एंड प्लेसेज आफ इंटरेस्ट’ में प्रभा चोपड़ा लिखती हैं, ‘बेकर की योजना के चलते वायसराय हाउस को पूरे 400 गज पीछे खिसका दिया गया। जो बहुत बाद में जाकर लुटियंस को पता चला। जिसके चलते दोनों में काफी विवाद हुआ, लेकिन लुटियंस की किसी ने नहीं सुनी और सालों तक दोनों में बात नहीं हुई।’

इटली से मंगाए चाकलेटी मार्बल

अब लुटियंस को तमाम सुझाव आने लगे, किंग जार्ज ने भी सुझाव दिया कि इसे मुगल स्टाइल में बनाया जाए, शायद इसी के चलते यहां के एक बाग को मुगल गार्डन कहा गया। हालांकि लुटियंस ने कई महीनों तक भारत की कई ऐतिहासिक इमारतों का दौरा किया, खास तौर पर राजपूतों और मुगलों की। ताजमहल उसको पसंद नहीं आया, लेकिन उसके बाग पसंद आए थे। उसने इंडो-यूरोपीय ढंग से इसे डिजाइन करने का सुझाव भी खारिज कर दिया। उसने राजपूतों और मुगलों के ही प्रतीकों को मिलाया। इसीलिए उनसे पानी से जुड़ी संरचनाएं नहर और फव्वारे इस्तेमाल कीं। मुगलों के पसंदीदा गुलाबी बलुआ पत्थर और राजपूतों के पसंदीदा धौलपुरी क्रीम बलुआ पत्थर को ही राष्ट्रपति भवन में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया। यूं तो वहां कई रंगों के 10,000 घनमीटर मार्बल इस्तेमाल हुए, लेकिन केवल गहरे चाकलेटी मार्बल को खास तौर पर इटली से मंगाया था, बाकी सफेद व गुलाबी मार्बल मकराना व अलवर से, हरा मार्बल बड़ौदा व अजमेर से, स्लेटी मार्बल जोधपुर से, पीला मार्बल जैसलमेर से आया था।

सांची के स्तूप का गुंबद पर प्रभाव

सबसे ज्यादा महत्व दिया वहां के विशाल गुंबद शिखर को। कई डिजाइन खारिज की गईं। 54 मीटर ऊंचाई, बेहद मुश्किल काम था। शुरू में उसके साथ दो फव्वारे भी बनाए गए थे, लेकिन बाद में हटाने पड़े। लुटियंस ने रोम पेंथियोन को प्रेरणा बताया, लेकिन विशेषज्ञ इसे सांची के स्तूप से जोड़ते हैं। लुटियंस की पत्नी एमिली चूंकि एनी बेसेंट की थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ी थी, इसलिए भी लोग भारतीय प्रतीकों के राष्ट्रपति भवन में इस्तेमाल पर उसका प्रभाव बताते हैं। राष्ट्रपति भवन के चारों ओर बौद्ध रेलिंग को इसी भाव से देखा जाता है। राष्ट्रपति भवन में आज छज्जे, छतरियों और जालियों को इसी क्रम में देख सकते हैं।

पांच प्रतीकों का हुआ जमकर प्रयोग

पांच बड़े भारतीय प्रतीकों- हाथी, शेर, कमल, मंदिर की घंटियां और कोबरा का लुटियंस ने जमकर इस्तेमाल किया। कभी अपने बच्चों के लिए नाचते हुए हाथी की तस्वीर बनाने वाले लुटियंस ने यहां के दरवाजों, खंभों, तहखानों में सब जगह हाथियों को लगाया। इसी तरह जयपुर स्तंभ पर मौजूद कमल से प्रेरित होकर मुगल गार्डन में दो बड़े फव्वारों को कमल के आकार में ही डिजाइन किया। साउथ कोर्ट में दो खंभों के शीर्ष पर फन फैलाए कोबरा को देख सकते हैं। कर्नाटक के जैन मंदिर से घंटियों की प्रेरणा राष्ट्रपति भवन की पत्थरों की घंटियों में दिखेगी। तहखानों में लगे खंभे अजंता की गुफाओं जैसे मिलेंगे तो बालकनियों पर राजपूती छाप दिखेगी। इसी तरह जयपुर स्तंभ के पास से बैठे हुए छोटे शेरों की एक लंबी कतार दिखेगी। सर्वज्ञ है कि भारत और ईरान में शेर को हमेशा से शाही प्रतीक माना जाता रहा है।

जब दिल्ली को मिला नया नाम

योजना के मुताबिक, इस भवन को चार साल में पूरा करना था, लेकिन पहले प्रथम विश्व युद्ध, फिर लगातार बदलते बजट, वायसराय और भारत सचिवों के चलते वायसराय हाउस को बनाने में 17 साल लग गए। हालांकि लुटियंस के दोस्त कहते हैं कि उसको कुल जमा 5,000 पाउंड्स ही मिले, शुरुआत में 30 शिलिंग्स रोज मिलते थे और 1,500 रुपए कार के मिले। लुटियंस ने इसके लिए 18 बार भारत का दौरा किया और हर बार शिप के जरिए, लेकिन जब अंग्रेज अधिकारी प्रोजेक्ट के लिए पैसे देने में आनाकानी करते थे तो उसे पसंद नहीं आता था। एच. वाई. शारदा प्रसाद ने अपनी किताब ‘राष्ट्रपति भवन’ में बताया है कि एक बार लुटियंस ने हताशा में कहा कि दिल्ली का नाम पागलखाना रख देना चाहिए।

कालीन भारत के, झूमर यूरोप के

राष्ट्रपति भवन का दरबार हाल आज पुरस्कार समारोहों के लिए मशहूर है। उसके पास बरामदे में एक बैल की मूर्ति है, जिसे अशोक स्तंभ से लिया गया है और दरबार हाल के अंदर बुद्ध की प्रतिमा लुटियंस की देन नहीं, बल्कि एक प्रदर्शनी में यहां 1947 में लगाई गई थी और बाद में वो यहीं की हो गई। इसके पास एक सिंहासन कक्ष भी बना, जिसमें वायसराय और उसकी पत्नी के दो सिंहासन भी रखे गए। मेहमानों के लिए नालंदा और द्वारका नाम से दो सुइट बनाए गए। फर्नीचर भारतीय टीक लकड़ी से ही बनाया गया, जबकि शानदार झूमर यूरोप से मंगाए गए। पर्दे फ्रांस से थे, जिनको बाद में भारतीय कपड़ों से बदल दिया गया, वहीं कालीन शुरू से ही भारतीय थे।

डांस के लिए बालरूम

स्वाधीन भारत के पहले भारतीय गर्वनर जनरल सी. राजगोपालाचारी को वायसराय का सुइट बेहद विशाल लगा, सो उन्होंने अपने लिए दूसरे कमरे चुने। फिर वही राष्ट्रपति की फैमिली विंग बन गई और वायसराय सुइट को गेस्ट विंग बना दिया गया। ज्वैलरी बाक्स जैसा लगने वाला अशोका हाल, जहां शपथ ग्रहण आदि कार्यक्रम होते हैं, को बतौर स्टेट बालरूम डिजाइन किया गया था, बीच में बड़ा सा डांसिंग फ्लोर, जो लकड़ी का बना था। तीन दर्शक दीर्घाएं भी थीं, इसे लेडी वेलिंटगटन की देखरेख में बनाया गया था। लुटियंस ने तय कर लिया था कि साज-सज्जा यूरोपीय नहीं होगी, उसने तो यह तक सुझाव दिया कि डेकोरेशन के कलाकारों के लिए भारत में एक स्कूल बनाया जाए, लेकिन उसके लिए अंग्रेजों ने बजट मंजूर नहीं किया। यूरोपीय सजावट आपको केवल काउंसिल रूम में मिलेगी, कला इतिहासकार पर्सी ब्राउन की सोच के मुताबिक उसमें भारत के लिए समुद्री मार्ग चित्रित किए। ये काउंसिल रूम बंटवारे और भारत की स्वतंत्रता की कई बैठकों और फैसलों के लिए जाना जाता है। यहां कई वायसरायों के साथ महात्मा गांधी की भी बैठकें हुईं।

बाहर नहीं मिलेगी यह बहार

लुटियंस ने पहले दो बागों के बारे में सोचा था, एक जनता के लिए और दूसरा वायसराय के लिए, लेकिन लेडी हार्डिंग के कहने पर उसने मुगल गार्डन डिजाइन किया, इसमें भी यूरोपियन प्रभाव काफी है। शायद ही कहीं सुंदर फूलों और औषधीय पौधों की इतनी प्रजातियां कहीं और मिलें। 250 से ज्यादा तो गुलाब की प्रजातियां हैं। इसके व मुख्य इमारत के अलावा भी यहां कुल 42 इमारतें खड़ी की गईं, जिनमें टेनिस कोर्ट, गोल्फ क्लब, अधिकारियों के बंगले, स्टाफ क्वाटर्स आदि हैं। जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह ने दिल्ली दरबार की याद में 145 फुट का एक जयपुर स्तंभ वायसराय हाउस में बनाने का प्रस्ताव दिया, जिसे लुटियंस ने डिजाइन किया था। इसके अंदर पांच टन की स्टील राड है, जिससे शीर्ष पर बने कमल व स्टार बंधे हुए हैं। रायसीना और मालचा के 300 परिवारों को वहां से हटाकर कहीं और भेजा गया, जिनके वंशजों ने बाद में कोर्ट में मुआवजे के दावे भी किए, लेकिन खारिज हो गए। निर्माण सामग्री लाने के लिए रेलवे लाइन बिछाई गई, वायसराय हाउस को बनाने में कुल 70 करोड़ ईंटें और 30 लाख घनफुट पत्थरों का इस्तेमाल हुआ। इस तरह 2,00000 वर्गफुट पर 340 कमरों का विशाल परिसर खड़ा किया गया। कुल 23 हजार मजदूर लगातार लगे रहे, जिनमें 3,000 तो केवल पत्थर काटने के लिए थे। कुल 1.4 करोड़ रुपए का खर्च उस वक्त आया। जब लार्ड इरविन 23 जनवरी, 1931 को वायसराय हाउस में आया तो लुटियंस ने थोड़ी देर के लिए डिनर से बाहर आकर यहां की दीवार को चूम लिया। आखिर उसकी बनाई यह इमारत सैकड़ों साल उसका नाम जिंदा रखने वाली थी।

हर राष्ट्रपति ने छोड़ा कुछ प्रभाव

पांच वायसराय इस भवन में रहे, सी. राजगोपालाचारी के बाद सारे राष्ट्रपति इसमें रहते आ रहे हैं और सभी ने इस पर अपना कुछ न कुछ असर भी छोड़ा। सी. राजगोपालाचारी ने यहां कुछ मैदानों को खेतों में बदल दिया और अनाज उगाया। आर. वेंकटरमण को कई मशहूर पेंटिंग्स लगाने के लिए जाना जाता है तो राजाजी, राजेंद्र बाबू व जाकिर हुसैन अपने साथ चरखे भी लाए थे। राजेंद्र बाबू ने मुगल गार्डन को सबसे पहले जनता के लिए खुलवाया था और तब से परंपरा भी शुरू हो गई। प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन को स्मार्ट बना दिया, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, स्टूडियो अपार्टमेंट्स, रेजीडेंशियल ब्लाक्स, आयुष वैलनेस सेंटर, इंटेलीजेंट आपरेशन सेंटर, ई-गिफ्ट मैनेजमेंट सिस्टम आदि उन्हीं के काम हैं। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को औषधीय पौधों को समर्पित आध्यात्मिक बाग का श्रेय जाता है।

(लेखक इतिहास में रुचि रखने वाले स्तंभकार हैं)