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क्या जाति के आधार पर होने वाले सामाजिक भेदभाव हमारे समाज के विकास में बाधक है?

व्यापक स्तर पर देखें तो जातियों की पूर्ण समाप्ति संभव नहीं। आवश्यक है कि प्रत्येक जाति का सम्मान हो। इसमें सवर्णों का सम्मान भी सम्मिलित है। सार्वजनिक मंचों पर जाति की अनावश्यक चर्चा रुकनी चाहिए। चुनाव में जाति के आधार पर उम्मीदवारों का निर्धारण बंद होना चाहिए।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 17 Oct 2022 03:09 PM (IST)
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विभेद को राजनीति से मिलते हैं प्राण। पीटीआई फोटो
प्रोफेसर एके जोशी। जाति व्यवस्था मूलत: सामाजिक संस्करण की ऐसी व्यवस्था है जिसमें एक जाति की सामाजिक परिस्थिति दूसरे की तुलना में उच्च, निम्न या समकक्ष होती है। यह व्यवस्था हिंदू, मुस्लिम व ईसाई सभी में समान रूप से दिखती है। समाजशास्त्री जीएस घुर्ये ने जाति पर कई पुस्तकें लिखीं हैं। आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व उन्होंने बताया था कि भारत के प्रत्येक भाषाई क्षेत्र में लगभग 2000 जातियां या उपजातियां विद्यमान हैं। हम समझ सकते हैं कि भारतवर्ष के भाषाई क्षेत्रों को देखते हुए यहां कितनी जातियां होंगी।

लगभग एक दशक पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी भारतीय समाज से जाति व्यवस्था को समाप्त करने की अपील की थी। इस अपील के पीछे बहुत गहरा सोच है। हिंदुओं में एकता इसी व्यवस्था के चलते नहीं आ पा रही है। संवैधानिक प्रविधानों के कारण कुछ अन्य तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं। निम्न जातियों में सवर्णों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही जातिवाद देखने को मिलता है। वे भी दूसरी जातियों में वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करते हैं। आज जाति को समाप्त करना आसान नहीं है। सरकारी प्रयास से कुछ नहीं होगा। समय के साथ-साथ नई सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियां इसके प्रभाव को कम कर सकती हैं।

राजनीति जाति के लिए अमृत समान

आज शहरी क्षेत्रों में जाति के मूल्य एवं उनके निषेध ज्यादा प्रभावी नहीं हैं। जाति संबंधी बातें सामान्यत: व्यक्ति करता नहीं है। राजनीति जाति के लिए अमृत समान है। चुनाव आते ही जाति जोर-शोर से चर्चा में आ जाती है। समाचार पत्र एवं संचार के समस्त माध्यम जाति के आधार पर विश्लेषण प्रारंभ कर देते हैं। इसके साथ ही साथ विभिन्न जातियों के आरक्षण का लाभ सरकारी स्तर पर दिए जाने की संभावना के चलते स्वार्थी तत्व मुद्दे को उभारने का काम करते हैं। अनेक लोग वर्ण और जाति को एक समझने की भूल करते हैं। वर्ण व्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज की एक ऐसी व्यवस्था थी जो गुण और कार्य पर आधारित थी। यह खुली व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति अपनी क्षमताओं का भरपूर प्रयोग करता था। अपने गुण और कार्य के आधार पर व्यक्ति किसी भी वर्ण में जा सकता था। वर्ण समानताएं थीं, लेकिन उनमें जाति व्यवस्था जैसे दोष नहीं थे। प्रत्येक वर्ण के धर्म (कर्तव्य) निर्धारित थे लेकिन वर्ण धर्म के साथ-साथ समान धर्म इत्यादि की व्यवस्था थी।

समाज का खंडात्मक विभाजन आया सामने

यह कहा गया कि सभी वर्ण समान हैं। अंतर है तो केवल गुण और कर्म का। इसी आधार पर वर्ण प्रकार्यों की भिन्नता दिखाई जाती रही है। वर्ण की उत्पत्ति के कई सिद्धांत भी सामने आए। जाति कब वर्ण के स्थान पर आ गई, कोई स्पष्ट ठोस प्रमाण नहीं है। इसकी उत्पत्ति के भी सिद्धांत वही बताए जाते हैं जो वर्ण के बताए गए हैं। स्पष्ट है कि ऐसा संभव नहीं हो सकता कि गुण और कर्म पर आधारित व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गई। वर्ण की गतिशीलता इसमें गायब हो गई। जाति एक बंद वर्ग के रूप में विश्लेषित की जाने लगी। समय के साथ-साथ जाति के आधार पर समाज में बहुसंख्यक लोगों को विविध भेदभाव, अन्याय, अत्याचार, शोषण का शिकार होना पड़ा। समाज का खंडात्मक विभाजन सामने आया। यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि जितनी जाति की आलोचना हुई उतनी ही यह व्यवस्था मजबूत होती गई। कई आरोप तो निराधार भी रहे। संवैधानिक मूल्यों का पालन जरूरी है और उतना ही जरूरी है भारत माता को मजबूती प्रदान करने की। राष्ट्रवाद की भावना को बाधित करने वाली जाति को विदा करने का समय आ गया है। सम्मिलित प्रयास की आवश्यकता है ताकि भारत विश्व गुरु के रूप में आशान्वित सफलता प्राप्त कर सके।

[पूर्व अध्यक्ष, समाज विज्ञान संकाय, बीएचयू]