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Jharkhand Politics: इन सीटों पर आदिवासी नेताओं की नजर, हाईकमान ने दिया दो टूक जवाब; क्यों बढ़ी BJP की सिरदर्दी?

Jharkhand Politics झारखंड में विधानसभा चुनाव नजदीक आ चुके हैं और जल्द ही इसका बिगुल बजने वाला है। तमाम पार्टियां अपनी रणनीति मजबूत करने में जुट गई हैं। इस बीच भाजपा के लिए चुनाव से पहले ही कुछ सीटें उसके लिए सिरदर्दी बनी हुई हैं। इन्हीं सीटों के कारण पार्टी को राज्य की सत्ता से बाहर भी जाना पड़ा था। जानिए क्या है इस बार पार्टी की रणनीति।

By Jagran News Edited By: Sachin Pandey Updated: Thu, 10 Oct 2024 11:39 PM (IST)
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भाजपा के कई नेता अपने लिए सामान्य सीट की जुगाड़ में लगे हैं। (File Image)
अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। झारखंड विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने ही वाला है। राज्य की कुल 81 सीटों में से 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। झामुमो-कांग्रेस गठबंधन को चुनौती देने के लिए भाजपा को आरक्षित सीटों पर तगड़े प्रत्याशी की तलाश है, लेकिन दिक्कत है कि भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी नेताओं की नजर सामान्य सीटों पर टिकी हुई है, क्योंकि आरक्षित सीटों पर हार का खतरा ज्यादा है।

यही कारण है कि झारखंड भाजपा अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी, पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा एवं रांची की पूर्व मेयर आशा लकड़ा समेत भाजपा के कई नेता अपने लिए सामान्य सीट की जुगाड़ में लगे हैं। हालांकि, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दो-टूक बता दिया है कि बाबूलाल को छोड़कर अनारक्षित सीटों पर किसी अन्य आदिवासी नेता को प्रत्याशी नहीं बनाया जाएगा। अगर ऐसा होगा तो वोटरों तक गलत संदेश जाएगा और धारणा के मोर्चे पर पहले ही पराजय हो सकती है।

(कंद्रीय नेतृत्व ने केवल प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी को ही सामान्य सीट से लड़ने की इजाजत दी है। File Photo)

आरक्षित सीटें बनी भाजपा के लिए सिरदर्द

भाजपा नेताओं के साथ आदिवासी सीटों पर सबसे बड़ी दिक्कत है कि जिनकी जमीनी पकड़ है, उनकी ऊपर तक पहुंच नहीं है और जिन्होंने ऊपर में माहौल बना रखा है, वह वोटरों से काफी दूर हैं। पिछले कई चुनावों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि झारखंड में आदिवासी के लिए आरक्षित सीटें भाजपा के लिए सिरदर्द हैं।

इस बार लोकसभा की आरक्षित सभी पांच ट्राइबल सीटों पर भाजपा की हार हो गई। पिछले विधानसभा चुनाव में प्रदेश की 28 आरक्षित सीटों में से 26 सीटों पर भाजपा की हार का सामना करना पड़ा था। यही बड़ी हार थी, जो रघुवर सरकार के सत्ता से बाहर जाने का कारण भी बनी, जबकि अनारक्षित सीटों पर भाजपा की जीत का प्रतिशत बेहतर था। इसलिए आदिवासी नेता भी सामान्य सीटों को ही सुरक्षित मान कर दावा जता रहे हैं।

राजधनवार से बाबूलाल की दावेदारी तय

भाजपा में शामिल होने से पहले पिछले विधानसभा चुनाव में बाबूलाल मरांडी राजधनवार सीट से विधायक बने हैं। यह अनारक्षित है। शीर्ष नेतृत्व ने प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते उन्हें अपनी पुरानी सीट से लड़ने की इजाजत दे रखी है, लेकिन लगभग हर चुनाव में सीट बदल लेने वाले बाबूलाल ने विकल्प के रूप में रांची शहर की सीट को भी रखा है। वैसे उनकी राजधनवार से दावेदारी तय है।

(झारखंड में जल्द बजने वाला है चुनावी डंका (File Image))

इसी लाइन पर अर्जुन मुंडा भी रांची या पूर्वी जमशेदपुर की सामान्य सीट का दावा जता रहे थे, जो नेतृत्व को मंजूर नहीं है। उन्हें आरक्षित खिजरी सीट का ऑफर दिया गया है, लेकिन वह सहमत नहीं दिख रहे हैं। मुंडा की परंपरागत सीट खरसावां रही है, लेकिन 2014 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद उन्होंने फिर वहां से नहीं लड़ा।

जामताड़ा से लड़ सकती हैं सीता सोरेन

हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन जामताड़ा सीट से लड़ सकती हैं। यह भी सामान्य सीट है, किंतु लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हुई सीता ने हार के डर से किसी अन्य सीट का विकल्प भी खुला रखा है। पिछली बार झामुमो के टिकट पर जामा से विधायक बनी थीं।

(सीता सोरेन File Image)

लोकसभा चुनाव में सीता के कारण दुमका से बेटिकट हुए सुनील सोरेन को इस बार जामा से प्रत्याशी बनाया जा सकता है। भाजपा के लिए रांची शहर की सीट सबसे मुफीद मानी जाती है। पिछले सात चुनाव से अबतक भाजपा यहां कभी हारी ही नहीं। आशा लकड़ा रांची की मेयर रह चुकी हैं। अब विधानसभा की दावेदारी है।