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नानाजी देशमुख: अभाव और संघर्षों में बीता पूरा जीवन, निस्‍वार्थ करते रहे समाज की सेवा

नानाजी देशमुख का पूरा जीवन ही समाज की निस्‍वार्थ सेवा में बीता। उनका मानना था कि सत्‍ता में शामिल किसी भी व्‍यक्ति को मोह से मुक्‍त होना चाहिए।

By Kamal VermaEdited By: Updated: Sun, 11 Aug 2019 03:23 PM (IST)
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नानाजी देशमुख: अभाव और संघर्षों में बीता पूरा जीवन, निस्‍वार्थ करते रहे समाज की सेवा
नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। नानाजी देशमुख को आज किसी पहचान की जरूरत नहीं है। उनकी सोच और विचार आज भी पहले की ही तरह प्रासंगिक हैं। उन्‍होंने सार्वजनिक जीवन में रहते हुए कभी किसी पद का मोह नहीं किया। भाजपा को यदि छोड़ भी दें तो देश में उनके विचारों को आदर्श मानने वालों की कोई कमी नहीं है। 9 अगस्‍त 2019 को उन्‍हें राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश के सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान मरणोपरांत भारत रत्‍न से सम्‍मानित किया था। इस सम्‍मान को उनके परिवार के सदस्‍य ने ग्रहण किया। यह वक्‍त उनको एक बार फिर जानने का भी है।

लालची नेताओं से नफरत
छत्‍तीसगढ़, झारखंड और उत्‍तराखंड बनने के बाद उन्‍होंने एक इंटरव्‍यू दिया था। इसमें उन्‍होंने कई मुद्दो पर अपनी राय व्‍य‍क्‍त की थी। इस इंटरव्‍यू में उन्‍होंने उन नेताओं को भी लताड़ लगाई थी जो सीएम बनना चाहते थे। उनका कहना था कि ऐसे नेता जो इसको लेकर आपस में लड़ रहे हैं उन्‍हें इन नए राज्‍यों के विकास का रोडमैप लेकर आना चाहिए और बताना चाहिए कि हमारे पास में इस राज्‍य के विकास के लिए ये रास्‍ता है। लेकिन ये लोग सिर्फ सीएम की कुर्सी पर बैठने की होड़ में शामिल हो रहे हैं।

भगवान राम थे आदर्श
भगवान राम को आदर्श मानने वाले नानाजी का कहना था कि उन्‍होंने किसी भी समय में एक आदर्श मानव, आदर्श पुरुष, आदर्श पति, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श सखा कैसा होना चाहिए इसकी सीख दुनिया को दी थी। उनका कहना था कि उनके आदर्श हर मजहब पर लागू होते हैं। नेताओं के मंत्री बनने की होड़ पर भी उन्‍होंने कड़ा प्रहार किया था। उनका कहना था कि मं‍त्री बनने की होड़ में नेता पागल हुए रहते हैं, भले की उन्‍हें कोई भी मंत्रालय मिल जाए। उनका कहना था कि जो भी कोई इंड्रस्ट्रियल मिनिस्‍टर बनता है उसको यह सोचना चाहिए कि क्‍या कभी उसने कोई इंडस्‍ट्री खड़ी की है या उसने कभी किसी इंडस्‍ट्री में जाकर वहां की हकीकत जानने की कोशिश की है। जो व्‍यक्ति इंडस्‍ट्री की बारीकियों को नहीं जानता है वो भी मंत्री बनने के लिए लड़ता दिखाई देता है। ऐसा व्‍यक्ति उस क्षेत्र के विकास की नीतियों को कैसे निर्धारित कर सकता है जिसको वह जानता तक नहीं है। ऐसे लोग सिर्फ निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए खुद को मंत्री बनते हुए देखना पसंद करते हैं। लेकिन, इससे सरकार नहीं चलती है। उन्‍होंने कहा था कि सत्‍ता को मोह सभी को है, लेकिन सत्‍ता चलाने की क्षमता किसी में दिखाई नहीं देती है।

कांग्रेस का बापू से मनमुटाव
नानाजी कहते थे कि आजादी के बाद देश के नागरिकों में जो स्‍वालंबन की तरफ झुकाव होना चाहिए था, वो दिखाई नहीं दिया। वो पूरी तरह से सरकार पर निर्भर हो गया। वहीं कांग्रेस के लिए वो कहते थे कि उन्‍होंने आजादी मिलने के बाद बापू को किनारे कर दिया। बापू चाहते थे कि आजादी के बाद कांग्रेस को खत्‍म कर दिया जाए या फिर इसको केवल लोकसेवक बनकर काम करना चाहिए। सत्‍ता के लिए कोई दूसरी पार्टी भले ही बनाई जाए। यह वो वक्‍त था जब महात्‍मा गांधी के साथ कांग्रेस का मनमुटाव भी शुरू हुआ। इसकी वजह थी कि कांग्रेस ने सत्‍ता को बापू के कथन से ज्‍यादा महत्‍व दिया था।

मोह से मुक्‍त हो शासक
नानाजी हमेशा से ही मानते थे कि राज करने वाला मोह से मुक्‍त होना चाहिए। वो देश के आम लोगों के लिए आदर्श होना चाहिए। सत्‍ता में शामिल लोगों को जनमानस के कल्‍याण के लिए अपना सबकुछ लुटाने की हिम्‍मत होनी चाहिए। लेकिन अब ऐसा दिखाई नहीं देता है। वो इस बात से हमेशा दुखी रहे कि नेताओं के पास अकूत संपत्ति का होना ही इस बात का प्रमाण है कि वह वास्‍तव में कितने देशभक्‍त हैं। वो जोड़तोड़ की राजनीति के हमेशा खिलाफ थे। उनका कहना था कि जो लोग देश में होने वाली गड़बड़ी के लिए पाकिस्‍तान को दोषी ठहराते हैं उन्‍हें यह जानना चाहिए कि यदि ऐसा होता है तो यह उनकी कमजोरी है।

जब ठुकराया था मंत्रीपद
आपको बता दें कि नानाजी देशमुख को 1977 में तत्‍कालीन मोरारजी देसाई के नेतृत्‍व में जनता पार्टी सरकार में शामिल होने के लिए अपील की गई थी, जिसे उन्‍होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि उनकी आयु के लोगों को सरकार से बाहर रहकर समाज सेवा के कार्यर् करने चाहिए। ऐसे उदाहरण सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में कम ही देखने को मिलते हैं। वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। अटलजी के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण स्वाबलंबन के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान के लिये पद्म विभूषण भी प्रदान किया।

ऐसा था निजी जीवन
नानाजी का जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कडोली नामक छोटे से कस्बे में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका पूरा जीवन संघर्ष और अभाव में बीता। कम उम्र में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया था जिसके बाद उनकी मामा ने उनका लालन पालन किया। उन्‍होंने पढ़ाई के लिए सब्‍जी तक बेची और शिक्षा के लिए पैसे जुटाए। नानाजी महाराष्‍ट्र से थे लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्‍थान और उत्‍तर प्रदेश रहा। हेडगेवार ने नानाजी की प्रतिभा को पहचान लिया और आरएसएस की शाखा में आने के लिये प्रेरित किया। आरएसएस से जुड़कर उन्‍होंने विभिन्‍न राज्‍यों में खूब काम किया। सरसंघचालक के कहने पर वह प्रचारक के रूप में गोरखपुर गए। बाद में वह उत्तरप्रदेश के प्रांत प्रचारक भी बने। नानाजी ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया और गोरखपुर में सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना गोरखपुर की।

करीब से देखा आरएसएस का उतार-चढ़ाव
1947 में जब आरएसएस ने राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश, जो कि एक हिन्दी समाचारपत्र था, निकालने का फैसला किया तो उसके प्रबंधन की जिम्‍मेदारी नानाजी को ही दी गई थी। नानाजी ने आरएसएस के उतार-चढ़ाव को बेहद करीब से देखा। हर मुश्किल घड़ी में वह अडिग रहते हुए अपने काम को जारी रखते रहे। उत्‍तर प्रदेश में कई जगहों पर आरएसएस की शाखाएं जो आज हम देखते हैं उसकी शुरुआत नानाजी ने ही की थी। नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। इसके लिए वे दो महीनों तक विनोबा के साथ रहे।

चित्रकूट में बिताए आखिरी वर्ष
देश में आपातकाल हटने के बाद जो चुनाव हुए उसमें नानाजी देशमुख बलरामपुर लोकसभा सीट से सांसद चुने गये। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें रहकर समाज-सेवा की। इसके अलावा उन्होंने चित्रकूट में चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय है। 1989 में वे पहली बार चित्रकूट आए और फिर यहीं पर बस गए। उन्‍होंने चित्रकूट को ही अपने सामाजिक कार्यों का केंद्र भी बनाया। चित्रकूट में ही रहते हुए 27 फरवरी 2010 को उन्‍होंने प्राण त्‍यागे थे।

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