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Lok Sabha Election 2024: मतदाता हो या पार्टी, सभी चाहते हैं मुफ्त की रेविड़यों की संस्कृति; आईना दिखाती एसबीआइ की रिपोर्ट

मुफ्त की रेवड़ियों की भरमार के साथ पांच राज्यों के चुनाव हो गए और अब लोकसभा चुनाव में भी घोषणा-पत्रों में इस तरह की खूब घोषणाएं होंगी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी कि सभी दल मुफ्त की रेवड़ियां चाहते हैं क्योंकि ज्यादातर दल मुफ्त की रेवड़ियों पर कोर्ट की सुनवाई का विरोध कर रहे हैं और कुछ ने चुप्पी साध रखी है।

By Jagran News Edited By: Piyush Kumar Updated: Tue, 12 Mar 2024 05:42 AM (IST)
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राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त की रेवड़ियों की घोषणा को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी जताई चिंता।(फोटो सोर्स: जागरण)
माला दीक्षित, नई दिल्ल। किसी भी तरह चुनाव जीतने की जुगत में लगे राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियों की घोषणा करते हैं, जबकि मतदाता से लेकर राजनीतिक दलों और सरकार, सभी को पता है कि इससे अर्थव्यवस्था चौपट होती है। इस पर विमर्श खूब हुआ।

न्यायालय ने भी चिंता जताई, लेकिन रोक के लिए न तो सरकार कानून लाई और न कोर्ट ने आदेश दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई बार इस पर चिंता जता चुके हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे अर्थव्यवस्था के लिए घातक और गंभीर मुद्दा बताते हुए संसद में चर्चा का सुझाव दिया था। सर्वदलीय बैठक बुलाने से लेकर विशेषज्ञ समिति गठित करने तक की बात उठी, लेकिन सब बातों तक ही सीमित रह गया।

सभी दल मुफ्त की रेवड़ियां चाहते हैं: सुप्रीम कोर्ट

इस बीच मुफ्त की रेवड़ियों की भरमार के साथ पांच राज्यों के चुनाव हो गए और अब लोकसभा चुनाव में भी घोषणा-पत्रों में इस तरह की खूब घोषणाएं होंगी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी कि सभी दल मुफ्त की रेवड़ियां चाहते हैं, क्योंकि ज्यादातर दल मुफ्त की रेवड़ियों पर कोर्ट की सुनवाई का विरोध कर रहे हैं और कुछ ने चुप्पी साध रखी है।

आम आदमी पार्टी, डीएमके और वाईएसआरसीपी ने तो बकायदा अर्जी दाखिल कर सुनवाई का विरोध किया है। केंद्र सरकार ने जरूर कोर्ट से इस पर आदेश देने या विचार के लिए विशेषज्ञ समिति गठित करने का अनुरोध किया था।

सर्वदलीय बैठक में विमर्श के सुझाव पर सरकार का कहना था कि जब ज्यादातर दल कोर्ट में सुनवाई का विरोध कर रहे हैं तो सर्वदलीय बैठक में हल कैसे निकलेगा। मुफ्त की रेवड़ियों में नकद पैसा देने से लेकर हर तरह के उपहार, बिजली, पानी बिल माफ करने और यहां तक कि कर्ज माफी तक का प्रलोभन शामिल है।

पहले भी उठती रही है मांग

यह पहला मौका नहीं है कि जब कोर्ट से मुफ्त की रेवड़ियों को चुनाव में भ्रष्ट आचरण घोषित करने की मांग हो रही हो। करीब 11 वर्ष पूर्व पांच जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ऐसी ही मांग ठुकरा चुका है। कोर्ट ने कहा था कि राजनीतिक दलों द्वारा घोषणा-पत्र में किए गए मुफ्त उपहारों के वादे, जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में नहीं आएंगे, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व कानून उम्मीदवारों की बात करता है, न कि राजनीतिक दलों की। यह फैसला दो जजों की पीठ ने दिया था।

मुफ्त रेवड़ियों से लोग प्रलोभित होते हैं: कोर्ट

कोर्ट ने यह भी कहा था कि राजनीतिक दलों को गवर्न करने के लिए अलग से कानून बनाने की जरूरत है। हालांकि, कोर्ट ने माना था कि मुफ्त रेवड़ियों से लोग प्रलोभित होते हैं और ये स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव पर असर डालती हैं।

चुनाव आयोग ने भी कोर्ट में कहा था कि इससे चुनाव प्रक्रिया दूषित होती है, इसलिए कोर्ट इस पर आदेश दे, मगर कोर्ट ने कहा कि उसके पास इस बारे में निर्देश देने की सीमित शक्ति है। वह मामला तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में रंगीन टीवी, सोना, मिक्सर ग्राइंडर आदि मुफ्त देने की राजनीतिक दलों की घोषणाओं और जीतने के बाद उन्हें पूरा करने पर होने वाले खर्च के बारे में था।

मुफ्त की रेवड़ी और कल्याणकारी योजना के बीच महीन अंतर

2022 में भाजपा नेता अश्वनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए मुफ्त घोषणा पर रोक और उसे चुनाव में भ्रष्ट आचरण घोषित करने की मांग की। बाद में कुछ और याचिकाएं दाखिल हुईं, जिनमें 2013 के फैसले पर पुनर्विचार की भी मांग हुई। उस पर कोर्ट ने यह मामला तीन जजों की पीठ को भेज दिया।

नई सुनवाई में भी कोर्ट ने माना कि मामला गंभीर है, पर कहा कि यह तय करना भी महत्वपूर्ण है कि किस चीज को मुफ्त की रेवड़ी माना जाए और किसे कल्याणकारी योजना, क्योंकि दोनों के बीच बहुत महीन अंतर है।

आईना दिखाती एसबीआइ की रिपोर्ट

मुफ्त की रेवड़ी संस्कृति का अर्थव्यवस्था पर कितना बुरा असर पड़ता है, इसकी बानगी स्टेट बैंक आफ इंडिया (एसबीआइ) की मुफ्त की रेवड़ियों के बारे में तीन अक्टूबर, 2022 की रिपोर्ट में दिखती है। रिपोर्ट में ऐसी घोषणाओं के प्रति आगाह किया गया है और इसे अर्थव्यवस्था के लिए घातक बताया गया है।

एसबीआइ ने कहा था कि वह सुप्रीम कोर्ट के नेतृत्व वाली समिति से अपेक्षा करता है कि ऐसी कल्याणकारी योजनाओं को राज्य के सकल घरेलू उत्पाद या कर संग्रह के एक प्रतिशत तक ही सीमित रखा जाएगा। बात तब की है, जब कोर्ट ने समिति बनाने के संकेत दिए थे।

हालांकि, अभी तक इस पर कोई समिति गठित नहीं हुई है। रिपोर्ट में अन्य मुफ्त घोषणाओं के अलावा पुरानी पेंशन योजना लागू करने से राज्यों पर बढ़ते बोझ का भी आकलन है। रिपोर्ट से साबित होता है कि अगर अभी नहीं चेते तो आने वाला समय खराब हो सकता है। सरकार या कोर्ट को इस पर अंकुश लगाना होगा।

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