Lok Sabha Election: सहकारी समितियां भी बदल सकती हैं वोट का समीकरण, इस क्षेत्र से जुड़ा देश का हर दूसरा आदमी
Lok Sabha Election सहकारिता संस्कृति के रूप में राजनीति का एक पुराना मोर्चा फिर से धीरे-धीरे सशक्त होने लगा है। लगभग तीन दशकों से इस क्षेत्र में ठहराव आ गया था। केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने गियर बदलकर इसे फिर से रफ्तार दी है। दो वर्ष पहले सहकार से समृद्धि की संकल्पना के तहत केंद्र में अलग मंत्रालय बनाया गया था।
By Jagran NewsEdited By: Mohd FaisalUpdated: Wed, 30 Aug 2023 10:29 PM (IST)
अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। सहकारिता संस्कृति के रूप में राजनीति का एक पुराना मोर्चा फिर से धीरे-धीरे सशक्त होने लगा है। लगभग तीन दशकों से इस क्षेत्र में ठहराव आ गया था। केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने गियर बदलकर इसे फिर से रफ्तार दी है।
दो साल पहले बनाया गया था केंद्र में अलग मंत्रालय
दो वर्ष पहले सहकार से समृद्धि की संकल्पना के तहत केंद्र में अलग मंत्रालय बनाया गया था। लक्ष्य था अभावों में जी रहे परिश्रमी एवं दूरदर्शी लोगों को भविष्य सुधारने में मदद करना। सहकारिता के माध्यम से छोटी-छोटी पूंजी को एकत्र कर उन्हें बड़े उद्यम का भागीदार बनाना। काम दिखने भी लगा है। केंद्र ने को-आपरेटिव को भी कारपोरेट का दर्जा दिया है। इसका फायदा भविष्य में दिखने वाला है। अगले तीन वर्षों में देश की प्रत्येक पंचायत में एक-एक पैक्स होगा।
सहकारी समितियां भी बदल सकती हैं वोट का समीकरण
राजनीति में सहकारी समितियां दो तरह से उपयोगी होती हैं। पार्टियों के धन का स्त्रोत बढ़ाती हैं और कार्यकर्ताओं को संरक्षण भी देती हैं। देश में अभी साढ़े आठ लाख सहकारी समितियां निबंधित हैं। एक लाख पैक्सों से 13 करोड़ लोग जुड़े हैं। अभी दो लाख नए पैक्स बनाए जाने हैं। पूरा होते ही इनसे करीब 26 करोड़ लोग और जुड़ जाएंगे। इस तरह देश का प्रत्येक दूसरा आदमी किसी न किसी रूप में सहकारी संस्थाओं से संबद्ध है। इतनी बड़ी आबादी सहकारी आंदोलनों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े दलों के लिए बड़ा वोट बैंक साबित हो सकती है।सहकारिता ने शीर्ष पर पहुंचाया
इसके पहले गुजरात एवं महाराष्ट्र की सहकारी संस्थाओं ने नया वोट बैंक बनाने का रास्ता दिखा चुका है। शरद पवार इसी रास्ते पर चलकर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे हैं। नितिन गडकरी का राजनीतिक उत्थान के पीछे भी सहकारी संस्थाओं का ही संबल है। बिहार में पहले से ही यह क्षेत्र प्रभावी था, लेकिन पारदर्शी एवं संगठित नहीं था। तपेश्वर सिंह समेत कई नेताओं ने इसी रास्ते पर चलकर संसद तक की दूरी तय की थी। बिहार में अभी 25 से अधिक सांसद-विधायक हैं, जिनका रास्ता सहकारिता से होकर गुजरी है। मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक एवं तमिलनाडु समेत कई राज्यों में भी सहकारी संस्थाएं सशक्त हैं।
राजनीतिक सोच पर भी पड़ेगा असर
सहकारी संस्थाओं की पहुंच गांव-गांव तक है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव आ सकता है, जो राजनीतिक दलों के लिए मजबूत आधार साबित होगा। केंद्र की योजना पैक्सों को पेट्रोल पंप एवं जन औषधि केंद्र समेत 176 सेवाएं उपलब्ध कराने की है। अभी 72 सेवाएं दी जा रही हैं। सुविधाओं में सहजता आएगी तो सोचने का तरीका भी बदलेगा। कई क्षेत्रों में दिखने लगा है, परिवर्तन सहकारी संस्थाओं को आगे बढ़ाने का पहली बार गंभीर प्रयास किया जा रहा है।सहकारिता मंत्रालय की हर हफ्ते खबर लेते हैं अमित शाह
गृह मंत्रालय के साथ अमित शाह हर हफ्ते सहकारिता मंत्रालय की खबर भी लेते हैं। कृषि क्षेत्र एवं किसानों को भी जोड़ा जा रहा है। कृषि ऋण में 29 प्रतिशत हिस्सा सहकारिता क्षेत्र का है। उर्वरक वितरण एवं उत्पादन में करीब 35 प्रतिशत, चीनी उत्पादन में 35 प्रतिशत, दूध की खरीद-बिक्री एवं उत्पादन में 15 प्रतिशत, गेहूं खरीद में 13 प्रतिशत एवं धान खरीद में 20 प्रतिशत हिस्सा सहकारिता क्षेत्र का है।