क्या मल्लिकार्जुन खरगे विभिन्न राज्यों में मृतप्राय हो रही कांग्रेस पार्टी में नई जान फूंक पाएंगे?
स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश में राजनीतिक दल का अर्थ मुख्यत कांग्रेस ही था लेकिन कुछ वर्ष बीतते-बीतते जादू टूटने लगा था। पिछले ढाई दशक तो पार्टी के लिए किसी बुरे सपने जैसे ही रहे हैं। पिछले दो चुनावों में पार्टी दोहरे अंकों में ही सिमट गई।
नई दिल्ली, जेएनएन। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस को तीन साल से ज्यादा समय के बाद अंतत: पूर्णकालिक अध्यक्ष मिल गया है। खरगे का चुना जाना इस मामले में भी अहम है कि सीताराम केसरी के बाद से करीब ढाई दशक बाद पार्टी की कमान गांधी परिवार से इतर किसी के हाथ में गई है। प्रश्न केवल नए अध्यक्ष का नहीं है। खरगे के चयन के बाद अब प्रश्न यह उठ रहा है कि क्या वह पार्टी के लिए नया नेतृत्व भी बनकर सामने आ पाएंगे?
गांधी परिवार से उनकी करीबी और परिवार के प्रति निष्ठा कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक भी है कि वास्तव में खरगे पार्टी को कैसे नई दिशा देंगे? कांग्रेस खरगे के समक्ष पांच ब रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष मल्लिकार्जुन बड़ी चुनौतियां हैं, जिनका उन्हें सामना करना पड़ेगा। अध्यक्ष के रूप में उनकी सफलता इन चुनौतियों से निपटने में उनकी निपुणता से ही सिद्ध होगी।
कुनबे को एक रखने की जरूरत
हाल के वर्षों में पार्टी ने गुलाम नबी आजाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, कुलदीप बिश्नोई और आरपीएन सिंह समेत कई नेताओं का साथ खोया है। पार्टी कैसे अपने सक्षम लोगों
को प्रबंधित करने में विफल रही है, ये नाम उसका उदाहरण हैं। इस सूची में और नाम न जुड़ने पाएं, यह खरगे के लिए बड़ी चुनौती होगी।
देना होगा भरोसेमंद नेतृत्व
अध्यक्ष पद से राहुल के इस्तीफा देने और सोनिया के अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी में एक नेतृत्व का असमंजस दिखा है। कई मामलों में शिकायतें आने के बाद भी शीर्ष नेतृत्व की तरफ से जरूरी कदम नहीं उठाए जाने की बात भी सामने आती रही है। खरगे को इन कमियों को दूर करते हुए पार्टी नेताओं में भरोसा पैदा करना होगा।
संवाद से बनेगी बात
राजनीति धारणाओं पर टिकी है। इसमें संवाद की भूमिका अहम है। जनता से संवाद न होने का नतीजा ही पार्टी के स्ट्राइक रेट में दिखता है। खरगे के लिए पार्टी को संवाद के सही रास्ते पर लाना चुनौती है।
पुरानी पार्टी को अपनाने होंगे नए तरीके
राजनीतिक विश्लेषक प्रशांत किशोर ने कहा था कि कुछ ऐसे प्रत्याशी होते हैं, जिन्हें जनता नहीं चाहती है। आंकड़ों के विश्लेषण के नए तरीके ऐसे लोगों की पहचान में मददगार होते हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी को इन नए तौर-तरीकों को अपनाने के लिए तैयार करना खरगे की चुनौती होगी।
सबसे बड़ा रुपैया
चुनावी खर्च के लिए चंदा जरूरी है, लेकिन चंदा आमतौर पर जीतने वाली पार्टियों को मिलता है। पिछले कुछ समय में जिस तरह से पार्टी का प्रदर्शन गिरा है, उसी के साथ-साथ उसको मिलने वाला चंदा भी कम होता जा रहा है। खरगे को इस बारे में खाका तैयार करना होगा कि फंडिंग कैसे बढ़े।
वर्ष दर वर्ष केंद्र और राज्यों में सिमटता गया जनाधार
स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश में राजनीतिक दल का अर्थ मुख्यत: कांग्रेस ही था, लेकिन कुछ वर्ष बीतते-बीतते जादू टूटने लगा था। पिछले ढाई दशक तो पार्टी के लिए किसी बुरे सपने जैसे ही रहे हैं। पिछले दो चुनावों में पार्टी दोहरे अंकों में ही सिमट गई।
लोकसभा चुनावों में घटतीं सीटें
1984 में 400 सीटों का आंकड़ा पार कर जाने वाली कांग्रेस आज मुख्य विपक्षी दल बनने लायक सीटें पाने के लिए भी संघर्ष करती दिख रही है।
दो राज्यों तक सिमटी सत्ता
कांग्रेस आज बस दो राज्यों में ही अपने बूते पर सरकार में बची है।