सुप्रीम कोर्ट में आदेश में सीएम केजरीवाल को है चेतावनी तो एलजी को भी हैं निर्देश
दिल्ली देश के अन्य राज्यों की तरह पूर्ण राज्य नहीं है और तीन बड़े विषय जमीन, कानून-व्यवस्था और पुलिस इसके शासन के अधीन नहीं आते।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Sat, 07 Jul 2018 08:22 AM (IST)
[विजय संघवी] दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संभवत: पहली बार केंद्र सरकार, राज्यों में संवैधानिक प्रमुख के रूप में नियुक्त उसके प्रतिनिधि यानी राज्यपाल या उपराज्यपाल तथा राज्य की निर्वाचित सरकारों के कामकाज के दायरों को परिभाषित किया है। हालांकि दिल्ली देश के अन्य राज्यों की तरह पूर्ण राज्य नहीं है और तीन बड़े विषय जमीन, कानून-व्यवस्था और पुलिस इसके शासन के अधीन नहीं आते। फिर भी प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ का यह फैसला इस मामले में नजीर स्थापित करता है कि संघीय संरचना में केंद्र व राज्य बेहतर तालमेल के साथ कैसे काम करें।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने अपने फैसले से जहां यह जताया कि दिल्ली के उपराज्यपाल केंद्र की कठपुतली की तरह काम नहीं कर सकते और न ही उन्हें करना चाहिए, वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी एक तरह से चेता दिया कि वे अराजकतावादी की तरह व्यवहार नहीं कर सकते और न ही हर जगह अपनी मनमर्जी चला सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कहता है कि संविधान के तहत तानाशाही या अराजकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। हालांकि यह फैसला अन्य राज्यों से संबंधित नहीं है, लेकिन यह जरूर बताता है कि राज्यों व केंद्र के बीच संबंध कैसे होना चाहिए। इस फैसले का एक निहितार्थ यह भी है कि केंद्र सरकार राज्यों की निर्वाचित सरकारों पर अपनी मर्जी थोप नहीं सकती और न ही उन्हें अपने हिसाब से किसी भी दिशा में चला सकती है, क्योंकि वे लोकप्रिय जनादेश के जरिये सत्ता में आती हैं। दोनों को ही देश के संविधान के दायरे में रहकर काम करना चाहिए। भाव को समझकर उसके अनुरूप काम करें
इसमें यह नैतिक संदेश निहित है कि विभिन्न संस्थाएं संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या सिर्फ शब्दों के आधार पर न करते हुए उसमें निहित भाव को समझे और उसी के अनुरूप काम भी करें। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इसीलिए आया, क्योंकि दिल्ली सरकार को लग रहा था कि केंद्र उसे अपने हिसाब से काम नहीं करने दे रहा है और एलजी के माध्यम से रोड़े अटकाए जा रहे हैं। भले ही संवैधानिक व्यवस्था के लिहाज से उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासक हों, लेकिन वह मंत्रिपरिषद की सहायता और उसकी राय पर काम करने के लिए बाध्य हैं। चूंकि केजरीवाल सरकार दिल्ली के मतदाताओं का भरोसा जीतते हुए सत्ता में आई, लिहाजा वह इसी का हवाला देते हुए एलजी की कार्यशैली पर असंतोष जताती रही है।1जहां तक केंद्र (या कहें कि उपराज्यपाल) की बात है तो उसके पास भी केजरीवाल सरकार के इरादों पर संदेह करने का पर्याप्त आधार था।
सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने अपने फैसले से जहां यह जताया कि दिल्ली के उपराज्यपाल केंद्र की कठपुतली की तरह काम नहीं कर सकते और न ही उन्हें करना चाहिए, वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी एक तरह से चेता दिया कि वे अराजकतावादी की तरह व्यवहार नहीं कर सकते और न ही हर जगह अपनी मनमर्जी चला सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कहता है कि संविधान के तहत तानाशाही या अराजकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। हालांकि यह फैसला अन्य राज्यों से संबंधित नहीं है, लेकिन यह जरूर बताता है कि राज्यों व केंद्र के बीच संबंध कैसे होना चाहिए। इस फैसले का एक निहितार्थ यह भी है कि केंद्र सरकार राज्यों की निर्वाचित सरकारों पर अपनी मर्जी थोप नहीं सकती और न ही उन्हें अपने हिसाब से किसी भी दिशा में चला सकती है, क्योंकि वे लोकप्रिय जनादेश के जरिये सत्ता में आती हैं। दोनों को ही देश के संविधान के दायरे में रहकर काम करना चाहिए। भाव को समझकर उसके अनुरूप काम करें
इसमें यह नैतिक संदेश निहित है कि विभिन्न संस्थाएं संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या सिर्फ शब्दों के आधार पर न करते हुए उसमें निहित भाव को समझे और उसी के अनुरूप काम भी करें। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष इसीलिए आया, क्योंकि दिल्ली सरकार को लग रहा था कि केंद्र उसे अपने हिसाब से काम नहीं करने दे रहा है और एलजी के माध्यम से रोड़े अटकाए जा रहे हैं। भले ही संवैधानिक व्यवस्था के लिहाज से उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासक हों, लेकिन वह मंत्रिपरिषद की सहायता और उसकी राय पर काम करने के लिए बाध्य हैं। चूंकि केजरीवाल सरकार दिल्ली के मतदाताओं का भरोसा जीतते हुए सत्ता में आई, लिहाजा वह इसी का हवाला देते हुए एलजी की कार्यशैली पर असंतोष जताती रही है।1जहां तक केंद्र (या कहें कि उपराज्यपाल) की बात है तो उसके पास भी केजरीवाल सरकार के इरादों पर संदेह करने का पर्याप्त आधार था।
संवैधानिक प्रावधान को मानने से इन्कार
आखिर अरविंद केजरीवाल ने अपने पिछले संक्षिप्त कार्यकाल में उस संवैधानिक प्रावधान को मानने से इन्कार कर दिया था जो यह कहता है कि राज्य विधानसभा में विधेयक पेश करने से पूर्व राज्यपाल या उपराज्यपाल के जरिये राष्ट्रपति की सहमति ली जाए, भले ही ऐसा विधेयक राज्य सूची या समवर्ती सूची में दर्ज मामलों पर कानून बनाने से संबंधित हो। लेकिन तब केजरीवाल ने उनकी सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस पार्टी और विपक्ष में बैठी भाजपा के जबर्दस्त विरोध के बावजूद लोकपाल विधेयक को सीधे विधानसभा में पेश कर दिया। जाहिर है, यह विधेयक पारित नहीं हुआ और इसी को आधार बनाते हुए केजरीवाल मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। चूंकि केजरीवाल शुरुआत से ही एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के बजाय किसी एनजीओ के मुखिया की तरह बर्ताव करते नजर आए हैं, लिहाजा दिल्ली के नए उपराज्यपाल भी उनकी कार्यशैली को लेकर सशंकित रहे। सीएम का अारोप
मुख्यमंत्री केजरीवाल का यह आरोप रहा है कि उनकी सरकार द्वारा स्वीकृत अनेक योजनाओं को इसी तरह राष्ट्रपति की मंजूरी के इंतजार में अटका दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप जहां उपराज्यपाल की कार्य संबंधी सीमाओं को परिभाषित किया, वहीं साथ ही साथ यह भी बता दिया कि दिल्ली सरकार को भी एक दायरे में ही रहकर काम करना होगा, चूंकि दिल्ली अन्य राज्यों की तरह कोई पूर्ण राज्य नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 239AA में दर्ज प्रावधानों का हवाला देते हुए इस फैसले में यह भी इंगित किया गया कि हालांकि उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि किसी मसले पर राज्य सरकार के साथ मतभेद होने की स्थिति में वह इसे आगे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे हर मामले में ऐसा करें।
आखिर अरविंद केजरीवाल ने अपने पिछले संक्षिप्त कार्यकाल में उस संवैधानिक प्रावधान को मानने से इन्कार कर दिया था जो यह कहता है कि राज्य विधानसभा में विधेयक पेश करने से पूर्व राज्यपाल या उपराज्यपाल के जरिये राष्ट्रपति की सहमति ली जाए, भले ही ऐसा विधेयक राज्य सूची या समवर्ती सूची में दर्ज मामलों पर कानून बनाने से संबंधित हो। लेकिन तब केजरीवाल ने उनकी सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस पार्टी और विपक्ष में बैठी भाजपा के जबर्दस्त विरोध के बावजूद लोकपाल विधेयक को सीधे विधानसभा में पेश कर दिया। जाहिर है, यह विधेयक पारित नहीं हुआ और इसी को आधार बनाते हुए केजरीवाल मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। चूंकि केजरीवाल शुरुआत से ही एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के बजाय किसी एनजीओ के मुखिया की तरह बर्ताव करते नजर आए हैं, लिहाजा दिल्ली के नए उपराज्यपाल भी उनकी कार्यशैली को लेकर सशंकित रहे। सीएम का अारोप
मुख्यमंत्री केजरीवाल का यह आरोप रहा है कि उनकी सरकार द्वारा स्वीकृत अनेक योजनाओं को इसी तरह राष्ट्रपति की मंजूरी के इंतजार में अटका दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप जहां उपराज्यपाल की कार्य संबंधी सीमाओं को परिभाषित किया, वहीं साथ ही साथ यह भी बता दिया कि दिल्ली सरकार को भी एक दायरे में ही रहकर काम करना होगा, चूंकि दिल्ली अन्य राज्यों की तरह कोई पूर्ण राज्य नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 239AA में दर्ज प्रावधानों का हवाला देते हुए इस फैसले में यह भी इंगित किया गया कि हालांकि उपराज्यपाल को यह अधिकार है कि किसी मसले पर राज्य सरकार के साथ मतभेद होने की स्थिति में वह इसे आगे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे हर मामले में ऐसा करें।
इसके लिए बाध्य है सरकार
यह सही है कि सरकार अपने कामकाज से जुड़े हर मामले या फैसले पर उपराज्यपाल से चर्चा करने या उनके पास भेजने के लिए बाध्य है, लेकिन उपराज्यपाल यांत्रिक तरीके से उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते। आखिर निर्वाचित सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है और लोकतंत्र में असली शक्ति उसी के पास होनी चाहिए। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भले ही दिल्ली के संदर्भ में आया हो, जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी प्राप्त नहीं है, लेकिन यह केंद्र-राज्य संबंध के सिलसिले में ऐतिहासिक महत्व का फैसला है। इस फैसले में राष्ट्रपति (दूसरे शब्दों में कहें तो केंद्र सरकार), राज्यों के संवैधानिक प्रमुख के रूप में उसके प्रतिनिधि (राज्यपाल या उपराज्यपाल) और राज्य सरकार के दायरों का स्पष्ट निर्धारण किया गया है। यह फैसला हमारे भारत के संघीय ढांचे को समुचित आकार दे सकता है और ऐसा होना भी चाहिए। एकात्मक होकर रह गया संघीय ढांचा
देश की आजादी के बाद तकरीबन दो दशक तक केंद्र व राज्यों में एक ही पार्टी की सरकारें रहीं, इससे संघीय ढांचा भी एकात्मक होकर रह गया। लेकिन देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारों के दौर में एकात्मक ढांचा संभव नहीं है। दरअसल दिल्ली में जो हो रहा है, वह इस संघीय और एकात्मक ढांचे की अवधारणाओं के मध्य होने वाला टकराव है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस टकराव का अंत हो जाना चाहिए। केजरीवाल फैसले को अपनी जीत बताते हुए जश्न मना रहे हैं, लेकिन कदाचित उन्हें इस बात का भान नहीं कि उन्होंने अपनी कार्यशैली के जरिये अब तक जो कांटे बोए हैं, उससे उनकी राह और मुश्किल होने वाली है। अब वे अपनी नाकामियों के लिए दूसरों को दोष नहीं दे सकते और न ही कोई बहाना बना सकते हैं। वास्तव में उनकी असली परीक्षा तो अब शुरू हुई है। उनके विरोधियों की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि उनकी आगे की राह कितनी संघर्षपूर्ण है।(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
यह सही है कि सरकार अपने कामकाज से जुड़े हर मामले या फैसले पर उपराज्यपाल से चर्चा करने या उनके पास भेजने के लिए बाध्य है, लेकिन उपराज्यपाल यांत्रिक तरीके से उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते। आखिर निर्वाचित सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है और लोकतंत्र में असली शक्ति उसी के पास होनी चाहिए। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भले ही दिल्ली के संदर्भ में आया हो, जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा भी प्राप्त नहीं है, लेकिन यह केंद्र-राज्य संबंध के सिलसिले में ऐतिहासिक महत्व का फैसला है। इस फैसले में राष्ट्रपति (दूसरे शब्दों में कहें तो केंद्र सरकार), राज्यों के संवैधानिक प्रमुख के रूप में उसके प्रतिनिधि (राज्यपाल या उपराज्यपाल) और राज्य सरकार के दायरों का स्पष्ट निर्धारण किया गया है। यह फैसला हमारे भारत के संघीय ढांचे को समुचित आकार दे सकता है और ऐसा होना भी चाहिए। एकात्मक होकर रह गया संघीय ढांचा
देश की आजादी के बाद तकरीबन दो दशक तक केंद्र व राज्यों में एक ही पार्टी की सरकारें रहीं, इससे संघीय ढांचा भी एकात्मक होकर रह गया। लेकिन देश के विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारों के दौर में एकात्मक ढांचा संभव नहीं है। दरअसल दिल्ली में जो हो रहा है, वह इस संघीय और एकात्मक ढांचे की अवधारणाओं के मध्य होने वाला टकराव है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस टकराव का अंत हो जाना चाहिए। केजरीवाल फैसले को अपनी जीत बताते हुए जश्न मना रहे हैं, लेकिन कदाचित उन्हें इस बात का भान नहीं कि उन्होंने अपनी कार्यशैली के जरिये अब तक जो कांटे बोए हैं, उससे उनकी राह और मुश्किल होने वाली है। अब वे अपनी नाकामियों के लिए दूसरों को दोष नहीं दे सकते और न ही कोई बहाना बना सकते हैं। वास्तव में उनकी असली परीक्षा तो अब शुरू हुई है। उनके विरोधियों की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि उनकी आगे की राह कितनी संघर्षपूर्ण है।(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)