Third Battle of Panipat: जब 12 घंटे में मारे गए थे डेढ़ लाख सैनिक और मराठा सेना को मिली थी करारी हार
पानीपत में हुई तीनों लड़ाइयों में विदेशी आक्रांताओं की ही जीत हुई। क्या यह महज संयोग है या इसके पीछे छिपी थी हमारी कमजोरियां?
By Brij Bihari ChoubeyEdited By: Updated: Mon, 25 May 2020 10:55 AM (IST)
नई दिल्ली (ब्रजबिहारी)। कहते हैं कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है, लेकिन इसके बावजूद सचाई यही है कि मानव सभ्यता के निर्माण में इनकी अहम भूमिका रही है। युद्धों के कारण ही ढेर सारी खोजें और आविष्कार हुए जो आगे चलकर मानवता के उत्थान के काम आए। ऐसी ही एक लड़ाई पानीपत के मैदान में 14 जनवरी, 1761 को लड़ी गई थी।
मराठी का बेस्टसेलरइसी ऐतिहासिक लड़ाई पर साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक विश्वास पाटिल ने मराठी में `पानीपत` नामक उपन्यास लिखा था, जिसका अंग्रेजी अनुवाद पाठकों के सामने है। 1988 में जब मराठी में यह उपन्यास आया था तो साहित्य जगत में तहलका मच गया था। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ और मराठी साहित्य के इतिहास में यह पांच सबसे ज्यादा बिकने वाली रचनाओं में शुमार है।
लाल किले में सिमटा मुगल शासन
पानीपत की तीसरी लड़ाई अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली दुर्रानी और मराठों के बीच दिल्ली की गद्दी पर कब्जे के लिए लड़ी गई थी। अहमद शाह अब्दाली इससे पहले भी हिंदुस्तान पर हमले कर चुका था लेकिन इस बार उसका सामना एक ऐसी फौज से हुआ जो अपनी दुर्दमनीय वीरता, अदम्य साहस और कुशल रणनीति के लिए जानी जाती थी। 18वीं सदी के जिस काल में ये घटनाएं घटित हुई, तब तक मुगल शासन सिमट कर लाल किले तक रह गया था।
क्या था अहमदिया पैक्टकहा जाता है कि बादशाह का धोबी उनके कपड़े सुखाने के लिए जब यमुना के उस पार जहां जाता था, वह जाटों के कब्जे में आ चुका था। ऐसे हालात में दिल्ली सल्तनत और मराठों के बीच अहमदिया पैक्ट हुआ था जिसके अनुसार दिल्ली की रक्षा की जिम्मेदार मराठों ने ले ली थी। जब अब्दाली ने दिल्ली पर धावा बोला तो मराठों की फौज उसकी हिफाजत के लिए कूच कर गई।
मराठे क्यों हारेमराठों की इस सेना का नेतृत्व कर रहे थे पेशवा नानासाहेब के चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ। वे अपने साथ एक लाख सैनिकों की फौज लेकर चले थे। यह उस जमाने की बात है जब मराठों की राजधानी पुणे की कुल आबादी ही 20 हजार हुआ करती थी। भाऊ की सेना में इब्राहिम गर्दी भी थे जिन्होंने फ्रांसीसियों से तोप चलाने का प्रशिक्षण लिया था। इतनी बड़ी सेना और इतने कुशल लड़ाकों के बावजूद जब 14 जनवरी, 1761 को ऐसा क्या हुआ कि मराठा सेना को हार का सामना करना पड़ा?
पराजय के सबकइस हार के कई कारण थे जिनका इस उपन्यास में विस्तार से उल्लेख किया गया है और जिन्हें जानना जरूरी है। इनमें मौजूदा पीढ़ी के लिए कई सबक है, जिनसे सीख लेना आवश्यक है, क्योंकि जो देश अपने इतिहास से सबक नहीं सीखता है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता है। मराठे विदेशी अब्दाली से नहीं, अपनी कमजोरियों के कारण पराजित हुए। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि पानीपत में लड़ी गई तीनों लड़ाइयों में जीत विदेशी आक्रांताओं की ही हुई।
साजिश और षड़यंत्रगौर से देखा जाए तो इस उपन्यास में महान मराठा जाति के गुणों और दुर्गुणों का समान रूप से जिक्र किया गया है। मराठाओं की वीरता, साहस और युद्धनीति पर कोई संदेह नहीं है लेकिन जैसा कि हर बड़े साम्राज्य के साथ होता है, मराठा साम्राज्य में ईर्ष्या, द्वेष, साजिश, षड़यंत्र, दुरभिसंधि आनी पतन की ओर ले जाने वाले सारे दुर्गुणों का समावेश हो चुका था। नानासाहेब की पत्नी गोपीकाबाई अपने बेटे विश्वासराव को ही अगले पेशवा के रूप में देखना चाहती थी। उन्हें लगता था कि हर दृष्टि से योग्य सदाशिवराव भाऊ उसकी राह में रोड़ा हैं क्योंकि नानासाहेब उन्हें बहुत पसंद करते थे। इसलिए, अब्दाली को रोकने के लिए रघुनाथदादा के बजाय गोपिकाबाई ने नानासाहेब पर सदाशिवराव को भेजने का दबाव डाला और इसमें सफल भी रहीं।
मराठा क्षत्रपों की बेरुखीउधर, अहमदिया पैक्ट के बाद पेशवा के प्रतिनिधि के तौर पर उत्तर भारत में तैनात होल्कर और शिंदे क्षत्रप अपनी स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप नहीं चाहते थे। यही नहीं, उनके अत्याचारों से उत्तर भारत के छोटे-छोटे राजा इतने त्रस्त हो चुके थे कि किसी ने पानीपत की लड़ाई में सदाशिवराव का साथ नहीं दिया। यहां तक कि मराठों के एहसानों तले लदे अयोध्या के नवाब शुजाउद्दौला भी अब्दाली के खेमे में जुड़ गए और मराठों को करारी हार का सामना करना पड़ा। अगर उत्तर भारत के राजाओं, क्षत्रपों और नवाबों ने मराठों का साथ दिया होता तो देश पर अंग्रेजों का नहीं मराठों का शासन होता।
इतिहास की सबसे खूंरेजी जंगइस प्रलयंकारी युद्ध में मात्र 12 घंटे में डेढ़ लाख से ज्यादा इंसानी जानों का नुकसान हुआ था। इस लिहाज से यह इतिहास के सबसे खूंरेजी युद्धों में शामिल है। इस विनाशकारी लड़ाई की कहानी को आज की पीढ़ी के लिए शब्दों में बयान करने के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं। इसके एक-एक पन्ने पर उनका शोध, उनकी दृष्टि औ मेहनत साफ-साफ झलकती है। प्रूफ की एकाध गलतियों (काशीराज पंडित को एक जगह काशीराम लिख दिया गया है) को छोड़ दिया जाए तो 575 पेज का यह उपन्यास अपने पर्याप्त प्रवाह और शानदार शैली से पाठकों को आखिर तक बांधे रखता है। त्रुटिहीन अनुवाद के लिए नदीम खान की जितनी तारीफ की जाए कम है।