भाजपा की जीत ने लिखी पूर्वोत्तर में उसके विस्तार की नई इबारत
राजनीति में ऐसे विरले ही उदाहरण देखने को मिलते हैं जहां पिछले विधानसभा चुनाव में शून्य पर रही पार्टी अगले चुनाव तक आते-आते सत्ता के शिखर पर पहुंच जाए।
नई दिल्ली [शिवानंद द्विवेदी]। त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव परिणामों ने पूर्वोत्तर में भाजपा के विस्तार की नई इबारत लिखी है। वैसे तो इन तीनों ही राज्यों में भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन त्रिपुरा के चुनाव परिणाम बेहद अहम हैं। त्रिपुरा की जनता ने भाजपा को दो तिहाई सीटों के साथ पूर्ण बहुमत का जनादेश देकर ढाई दशकों से त्रिपुरा की सत्ता पर आसीन वामगढ़ के अभेद दुर्ग को ध्वस्त किया है। कुछ समय पहले तक भाजपा को हिंदू पट्टी तक सिमटी हुई पार्टी ही माना जाता था कि यह खास इलाके और वर्ग की ही पार्टी है, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मिली प्रचंड जीत के बाद इस अवधारणा के टूटने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह बदस्तूर जारी है।
20 से अधिक राज्यों में सत्ता
आज भाजपा अपने और सहयोगी दलों के साथ देश के 20 से अधिक राज्यों की सत्ता संभाल रही है। यह स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक की अभूतपूर्व घटना है। मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में भाजपा ने वह करिश्मा कर दिखाया है जो इंदिरा गांधी और प्रचंड बहुमत से सत्ता में आए राजीव गांधी भी नहीं कर पाए थे। वर्ष 2014 के बाद पूवरेत्तर के राज्यों में भाजपा का प्रभाव बढ़ा है। असम और मणिपुर में भाजपा पहले ही जीत चुकी है और नगालैंड में भी गठबंधन के साथ सरकार में थी। ऐसे में भाजपा के लिए त्रिपुरा को बड़ी चुनौती के रूप देखा जा रहा था। त्रिपुरा की चुनावी लड़ाई के दो आयाम थे-पहली लड़ाई वैचारिक थी और दूसरी लड़ाई चुनावी हार-जीत की थी।
ढाई दशक से त्रिपुरा में माकपा सरकार
चूंकि ढाई दशक से त्रिपुरा में माकपा सरकार थी और राज्य को कम्युनिस्टों का अभेद्य किला कहा जाता था। इसमें कोई दो राय नहीं कि वैचारिक स्तर पर माकपा और भाजपा दो ध्रुव हैं। लिहाजा त्रिपुरा में दो वैचारिक ध्रुवों की लड़ाई को भाजपा के लिहाज से अत्यंत कठिन माना जा रहा था। अगर त्रिपुरा की लड़ाई को चुनावी दृष्टि से देखा जाए तो यहां जनादेश की कसौटी पर भाजपा की स्थिति शून्य थी। विधानसभा चुनाव-2013 में भाजपा को पूरे प्रदेश में मात्र 33,808 यानी 1.5 फीसद वोट मिले थे। त्रिपुरा में भाजपा का कोई भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका था। अनेक विधानसभाएं तो ऐसी थीं जहां भाजपा के उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए थे। इस लिहाज से इस लड़ाई को कठिन कहना स्वाभाविक था।
चुनाव के परिणाम एकदम उलट
कुल 60 सीटों वाले त्रिपुरा में 2013 के विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्ट दलों ने 49.7 फीसद मतों के साथ 50 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस को 10 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन ठीक पांच साल बाद हुए 2018 के विधानसभा चुनाव के परिणाम एकदम उलट सिद्ध हुए। सत्ताधारी दल 16 सीटों पर सिमट गया और पिछले चुनावों में 8 लाख से ज्यादा वोट हासिल करने वाली कांग्रेस को मात्र 41,325 वोट हासिल हुए और उसके खाते में एक सीट भी नहीं आई। महज पांच वषों में भाजपा ने 43.2 फीसद वोट के साथ शून्य से 35 सीटों का सफर पूरा करते हुए शानदार जीत दर्ज की। यहां भाजपा सिर्फ 51 सीटों पर चुनाव लड़ी थी जबकि कम्युनिस्ट पार्टी सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इसके बावजूद भाजपा का मत फीसद माकपा से ज्यादा है।
कांग्रेस का त्रिपुरा में जनाधार
वहीं कांग्रेस का त्रिपुरा में जनाधार भी नहीं बचा है। भाजपा को पिछले चुनाव की तुलना में लगभग 9 लाख 60 हजार मतों का फायदा हुआ है, और 43 फीसद वोट के साथ वह अकेले दम पर सबसे बड़ी पार्टी बनी है. अगर भाजपा गठबंधन का मत फीसद जोड़ दें तो यह आंकड़ा 43 सीटों और 50.5 फीसद वोट तक पहुंच जाता है। वहीं कांग्रेस के हाथ से मेघालय के फिसलने की गुंजाइश इसलिए बनी है, क्योंकि भाजपा की स्थिति में मजबूती और कांग्रेस के प्रति घटते जन विश्वास को एक कारण माना जा सकता है। आंकड़ों के धरातल और जनादेश की कसौटी पर त्रिपुरा में सभी दलों को मात दे चुकी भाजपा ने महज पांच वषों में यह उपलब्धि कैसे हासिल कर ली, यह समझना ज्यादा रोचक है। दरअसल, राजनीति की एक अपनी वैज्ञानिक प्रणाली होती है।
राजनीति की दशा-दिशा
राजनीति में सामाजिक गणित राजनीति की दशा-दिशा तय करते हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने और अमित शाह के हाथों भाजपा की बागडोर आने के बाद से ही इस बात के संकेत मिलने लगे थे कि पार्टी और सरकार दोनों एक दूसरे के पूरक बनकर देश के हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर समुदाय तक पहुंचेंगे। पार्टी की विचारधारा के आर्थिक और सामाजिक तत्व सरकार की योजनाओं के मूल में होंगे तो वहीं पार्टी द्वारा सरकार की योजनाओं को संगठन के माध्यम से ले जाने का कार्य किया जाएगा। अमित शाह ने अध्यक्ष पद संभालते ही संगठन की पहुंच को बूथ स्तर से नीचे जाकर पन्ना प्रमुख तक ले जाने का कार्य किया। उन्होंने पार्टी को साल के हर दिन और हर पल जीवंत और गतिशील रखने के कार्यक्रम चलाए।
सरकार की योजनाएं
सरकार की योजनाएं बूथ-बूथ तक कैसे पहुंचें, इसके लिए संगठन स्तर पर विस्तारकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम तय किए। शाह ने खुद देशव्यापी भ्रमण करके पार्टी की संगठनात्मक कार्यप्रणाली को सुदृढ़ता प्रदान की। शाह कई बार यह कह चुके हैं कि उनके लिए हर चुनाव कड़ा है और वह हर चुनाव को परिश्रम की हद तक जाकर लड़ते हैं। त्रिपुरा में असंभव सी दिखने वाली जीत के पीछे भी शाह की यही रणनीति काम कर रही थी। गत वर्ष 6-7 मई 2017 को अपने संगठनात्मक प्रवास के दौरान अमित शाह ने त्रिपुरा के संगठन और वहां की सामाजिक स्थिति की नब्ज टटोल ली थी। इस प्रवास के दौरान वह स्थानीय पत्रकारों, प्रबुद्ध वर्ग, संगठन के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं, बूथ विस्तारकों से खुद मिले थे।
कम्युनिस्ट सरकार की खामियां
त्रिपुरा की कम्युनिस्ट सरकार की नाकामियों और संघ व भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या के मुद्दे को सही ढंग से चिन्हित करने और उसे उठाने के लिए शाह ने अत्यंत सूक्ष्मता से नीति तैयार की और उसे कुशलता से बूथ स्तर तक पहुंचाया। साथ ही मोदी सरकार की उपलब्धियों को भी जनता तक पहुंचाकर भाजपा को एक विकल्प के रूप में स्थापित किया। त्रिपुरा में मिली इस जीत के आलोक में अगर पिछले कुछ वषों से पूर्वोत्तर के घटनाक्रमों को देखा जाए तो भाजपा अपने संगठन के माध्यम से पूवरेतर के लिए नीतिगत स्तर पर कार्य कर रही है। स्थानीय सरकारों की खामियों को उजागर करने के साथ-साथ केंद्र सरकार की उपलब्धियों को बताने का समानांतर कार्य भाजपा ने सफलतापूर्वक किया। इसका परिणाम है कि आज भाजपा त्रिपुरा जैसे अभेद किले को भेद पाने में कामयाब हुई है। इस मामले में भाजपा के बरक्स राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस अत्यंत कमजोर सिद्ध हो रही है। जिसके पास न तो नीति है और न ही सही दिशा।
(लेखक श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)