कभी सोवियत संघ का हिस्सा रहा यूक्रेन पहले ही गिरा चुका है लेनिन की हजारों प्रतिमाएं
यूक्रेन के सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि वहां पर एक समय में लेनिन की करीब 5500 छोटी बड़ी प्रतिमाएं थीं जिनमें से अब एक भी नहीं है।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। भाजपा को त्रिपुरा में मिली जीत के बाद जो घटनाक्रम चला उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सख्त नाराजगी जताई है। इस जीत के बाद त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा को बुलडोजर से गिरा दिया गया और कुछ जगहों पर आगजनी की भी घटनाएं सामने आईं थीं। इसके जवाब में दक्षिण कोलकाता में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कालिख पोत दिया गया। बहरहाल, जिस लेनिन की मूर्ति को लेकर पूरा विवाद शुरू हुआ था उसके बारे में शायद कम ही लोग जानते हैं। लिहाजा पहले आपको बता दें कि लेनिन की प्रतिमा को गिराए जाने का यह दुनिया में पहला मामला नहीं है, जिसके पीछे बवाल हो रहा है। सोवियत संघ से टूटकर अलग राष्ट्र बने यूक्रेन ने पिछले वर्ष ही अपने यहां लेनिन की करीब 1320 प्रतिमाओं को तत्काल प्रभाव से तोड़े जाने के आदेश दिए थे। इस आदेश के बाद सोवियत रूस का प्रभाव रखने वाली इन प्रतिमाओं को वहां एक-एक कर नष्ट कर दिया गया था। यूक्रेन के सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि वहां पर एक समय में लेनिन की करीब 5500 छोटी बड़ी प्रतिमाएं थीं जिनमें से अब एक भी नहीं है।
यहां भी हटाई गईं हैं लेनिन की प्रतिमाएं
इसके अलावा जर्मनी में 1970 में लगाई गई लेनिन की प्रतिमा को भी सरकार ने 1992 में हटाकर उसको ईस्ट बर्लिन के घने जंगल में दफना दिया था। इसके वहीं हंगरी के सिटी पार्क में लगी लेनिन की प्रतिमा को 1991 में, लातविया में 1959 में लगी, लेनिन की प्रतिमा को 1990-91 में, पोलैंड में 1989 से लेकर 2014 तक कई प्रतिमाओं को गिरा दिया गया। वर्ष 1983 में इथोपियों में लेनिन की प्रतिमा लगाई गई थी। यह अफ्रीका में लगी लेनिन की पहली प्रतिमा थी, जिसको 1991 में गिरा दिया गया था। 1991 में रूस के विभिन्न इलाकों में लगी लेनिन की प्रतिमाओं को गिरा दिया गया था। इसके अलावा दुनिया में दूसरे नंबर की सबसे बड़ी लेनिन की प्रतिमा और स्मारक को स्टालिन की मौत के बाद बम से उड़ा दिया गया था। यह स्मारक ड्यूबना में वोल्गा नदी के किनारे पर बना था।
क्यों लगाई और क्यों गिराई गईं लेनिन की प्रतिमाएं
त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा गिराए जाने को लेकर खासा विवाद हो रहा है। लेकिन यहां ये जानना जरूरी है कि आखिर क्यों लेनिन की प्रतिमा लगाई गई और फिर क्यों इन्हें गिराया गया। दरअसल भारत ही नहीं, दुनिया भर में लेनिन की प्रतिमा गिराने का सिलसिला शुरू हुआ। ये वो दौर था, जब रूस में कम्युनिस्ट शासन का पतन हुआ, और फिर रूस का विघटन हुआ। लेनिन की प्रतिमा को गिराया जाना कोई पहली घटना नहीं है, जब यूएसएसआर खत्म हुआ, तभी से पूरी दुनिया में लेनिन की प्रतिमा गिराई जा रही है।
संरक्षित है लेनिन का शरीर
सोवियत संघ के विघटन के बाद कई देशों में लगभग एक चौथाई शताब्दी तक लेनिन की प्रतिमाओं को गिराने का सिलसिला जारी रहा। बता दें कि रूस में लेनिन के मृत शरीर को संरक्षित भी किया गया, उनका शरीर आज भी रेड स्क्वायर चौक पर संरक्षित है। इसके साथ ही उनकी 70 फीट लंबी प्रतिमा को वहां के एक चौक पर स्थापित है, जो कि शहर की सबसे बड़ी प्रतिमा है और महान यूरी गार्गिन की प्रतिमा भी है, जो कि अंतरिक्ष में पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे। मास्को में कम्यूनिस्ट युग के स्मारकों को संरक्षित किया गया। हालांकि इनमें से कई प्रतिमाओं को वर्ष 1991 में गिरा दिया गया।
यूक्रेन से खत्म हुए लेनिन के स्मारक
सोवियत संघ से विघटन के बाद यूक्रेन ने पूरी तरह से अपने यहां स्थापित लेनिन की प्रतिमाओं को गिरा दिया। ऐसी खबर है कि यूक्रेन में पिछले कुछ वर्षों में करीब 100 स्मारकों को हटा दिया गया। ये स्मारक ऐसे थे, जहां कम्यूनिस्ट विचारकों की प्रतिमा स्थापित थी। यूक्रेन की राजधानी कीव में लेलिन के विरोध में कई प्रतिमाओं को तोड़ा गया। इन देशों में प्रतिमाओं को उखाड़ा जाना आमतौर पर लेनिन के साम्राज्य के विरोध में होता था।
ग्लोरी ऑफ यूक्रेन
आपको यहां पर ये भी बता दें कि जिस वक्त यूक्रेन में खाक्रिव फ्रीडम स्क्वायर ग्राउंड में लगी लेनिन की प्रतिमा को गिराया गया उस वक्त वहां पर हजारों की संख्या में लोग मौजूद थे जो लेनिन के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। इतना ही नहीं उन्होंने इस दिन को ग्लोरी ऑफ यूक्रेन का नाम तक दिया था। वहां मौजूद लोगों ने इसका जबरदस्त तरह से स्वागत किया था।
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कौन थे लेनिन
व्लादिमीर इलिच उल्यानोव का जन्म साल 1870 में 22 अप्रैल को वोल्गा नदी के किनारे बसे सिम्ब्रिस्क शहर में हुआ था। पढ़े-लिखे और रईस परिवार में जन्मे व्लादिमीर बाद में दुनिया में लेनिन के नाम से विख्यात हुए। वो स्कूल में पढ़ाई में अच्छे थे और आगे जाकर उन्होंने क़ानून की पढ़ाई का फैसला किया। यूनिवर्सिटी में वो 'क्रांतिकारी' विचारधारा से प्रभावित हुए। बड़े भाई की हत्या का उनकी सोच पर गहरा असर पड़ा। उनके बड़े भाई रिवोल्यूशनरी ग्रुप के सदस्य थे।
विश्विद्यालय से निकाले गए लेनिन
'चरमपंथी' नीतियों की वजह से उन्हें यूनिवर्सिटी से बाहर निकाल दिया गया, लेकिन उन्होंने साल 1891 में बाहरी छात्र के रूप में लॉ डिग्री हासिल की। इसके बाद वो सेंट पीटर्सबर्ग रवाना हो गए और वहां प्रोफ़ेशनल रिवॉल्यूशनरी बन गए। अपने कई समकालीन लोगों की तरह उन्हें गिरफ्तार कर निर्वासित जीवन बिताने के लिए साइबेरिया भेज दिया गया। साइबेरिया में उनकी शादी नदेज़्हदा क्रुपस्काया से हुई। साल 1901 में व्लादिमीर इलिच उल्यानोव ने लेनिन नाम अपनाया।
यूरोप में गुजरे 15 वर्ष
निर्वासन के बाद उन्होंने करीब 15 साल पश्चिमी यूरोप में गुजारे जहां वो अंतरराष्ट्रीय रिवॉल्यूशनरी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने लगे और रशियन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी के 'बॉल्शेविक' धड़े के नेता बन गए। साल 1917 में पहले विश्व युद्ध से थका हुआ महसूस कर रहे रूस में बदलाव की चाहत जाग रही थी। उस समय जर्मन ने लेनिन की मदद की। उनका अंदाजा था कि वो अगर रूस लौटते हैं तो जंग की कोशिशों को कमजोर किया जा सकेगा। लेकिन लेनिन लौटे और उसी प्रॉविजनल सरकार को उखाड़ फेंकने की दिशा में काम करना शुरू किया जो जार साम्राज्य को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश कर रही थी।
देश की दिक्कतों को किया नजरअंदाज
लेनिन ने जिसकी शुरुआत की, उसी को बाद में ऑक्टूबर रिवॉल्यूशन के नाम से जाना गया। हालांकि इसे एक तरह से सत्ता परिवर्तन माना गया। इसके बाद तीन साल रूस ने गृह युद्ध का सामना किया। बॉल्शेविक जीते और सारे देश पर नियंत्रण हासिल कर लिया। ऐसा भी कहा जाता है कि क्रांति, जंग और भुखमरी के इस दौर में लेनिन ने अपने देशवासियों की दिक्कतों को नजरअंदाज किया और किसी भी तरह के विपक्ष को कुचल दिया। लेनिन कड़ा रुख अपनाने के लिए जाने जाते थे, लेकिन वो व्यवहारिक भी थे। जब रूसी अर्थव्यवस्था को सोशलिस्ट मॉडल के हिसाब से बदलने की उनकी कोशिशें थम गईं तो उन्होंने नई आर्थिक नीति का ऐलान किया। इसमें प्राइवेट एंटरप्राइज को एक बार फिर इजाजत दी गई और ये नीति उनकी मौत के कई साल बाद भी जारी रही।
स्टालिन की बढ़ती ताकत से थी लेनिन को परेशानी
साल 1918 में उनकी हत्या की कोशिश की गई जिसमें वो गंभीर रूप से जख्मी हो गए थे। इसके बाद उनकी सेहत में गिरावट आई और साल 1922 में हुए स्ट्रोक ने उन्हें काफी परेशानी में डाल दिया। अपने अंतिम समय में वो सत्ता के नौकरशाही का चोला ओढ़ने को लेकर परेशान रहे और जोसफ स्टालिन की बढ़ती ताकत को लेकर उन्होंने चिंता भी जताई। बाद में स्टालिन, लेनिन के उत्तराधिकारी बने। साल 1924 में 24 जनवरी को लेनिन का निधन हुआ, लेकिन उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया। उनके शव को एम्बाम किया गया और वो आज भी मॉस्को के रेड स्कवेयर में रखा है। 20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण और असरदार शख्सियतों में गिने जाने वाले लेनिन की मौत के बाद उनकी पर्सनेलिटी ने बड़े तबके पर गहरा असर डाला।
लेनिन बड़े पैमाने पर हत्या के लिए जिम्मेदार
साल 1991 में सोवियत संघ के बिखरने तक उनका खासा असर जारी रहा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ उनकी वैचारिक अहमियत काफी रही और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट मूवमेंट में उनका खास स्थान रहा। हालांकि, उन्हें काफी विवादित और भेदभाव फैलाने वाला नेता भी माना जाता है। लेनिन को उनके समर्थक समाजवाद और कामकाजी तबके का चैम्पियन मानते हैं, जबकि आलोचक उन्हें ऐसी तानाशाही सत्ता के अगुवा के रूप में याद करते हैं, जो राजनीतिक अत्याचार और बड़े पैमाने पर हत्याओं के लिए जिम्मेदार रहे। लेनिन के राज्य में विरोधियों को रेड टेरर का सामना करना पड़ा। ये वो हिंसक अभियान था, जो सरकारी सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से चलाया गया। इस दौरान हजारों लोगों को प्रताड़ना दी गई। साल 1917 से 1922 के बीच उनकी सरकार ने रूसी गृह युद्ध में दक्षिणपंथी और वामपंथी बॉल्शेविक-विरोधी सेनाओं को परास्त किया। जंग के बाद जो भुखमरी फैली और निराशा ने जन्म लिया, उससे निपटने के लिए लेनिन ने नई आर्थिक नीतियों के जरिए हालात पलटने की कोशिश की।
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