Move to Jagran APP
5/5शेष फ्री लेख

Uniform Civil Code: सभी देशवासियों के लिए समान कानून की कवायद, एक्सपर्ट व्यू

Uniform Civil Code गुजरात में विधानसभा चुनाव प्रक्रिया आरंभ होने के साथ समान नागरिक संहिता की आवश्यकता की जांच करने और इस संहिता के लिए प्रारूप तैयार करने के लिए राज्य कैबिनेट ने उच्च स्तरीय समिति बनाने को हरी झंडी दे दी है।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Fri, 04 Nov 2022 10:40 AM (IST)
Hero Image
Uniform Civil Code: समान नागरिक संहिता पर फिर से बहस छिड़ गई है।

कैलाश बिश्नोई। भारत में समान नागरिक संहिता के संदर्भ में स्वाधीनता के बाद से ही बहस चल रही है। लेकिन हाल के वर्षों में समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) या यूसीसी पर राजनीतिक परिवेश ज्यादा गर्म रहा है। बीते दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वादा किया था कि यदि वे फिर से सत्ता में आएंगे, तो राज्य के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करेंगे। इसी क्रम में पुष्कर सिंह धामी ने इसका प्रारूप तैयार करने को कुछ माह पहले सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समिति का गठन किया है।

भारत में आपराधिक कानून सभी लोगों के लिए एक समान है और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं। परंतु देश में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोगों के लिए शादी, बच्चों को गोद लेना, संपत्ति या उत्तराधिकार आदि मामलों को लेकर पृथक पृथक नियम है। लिहाजा किसी धर्म में जिस बात को लेकर पाबंदी है, दूसरे संप्रदाय में उसी बात की खुली छूट है। कई नागरिक मामलों के लिए एक ही प्रकार की संहिता अथवा अधिनियम लागू हैं, जैसे भारतीय संविधान अधिनियम, वस्तु विक्रय अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, भागीदारी अधिनियम और साक्ष्य अधिनियम आदि। परंतु इनमें भी राज्यों ने सैकड़ों संशोधन कर डाले हैं। जिस तरह भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता सब पर लागू हैं, उसी तरह समान नागरिक संहिता (यूसीसी) भी होनी चाहिए, जो सभी वर्गों और समुदायों के लिए समान रूप से लागू हो।

दंड प्रक्रिया संहिता सब पर लागू

यूसीसी लागू करने के बाद विवाह, तलाक, गोद लेना और संपत्ति के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल ला यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं। पर्सनल ला के अधिकांश प्रविधान महिलाओं की स्वतंत्रता तथा उनके मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं। अनुच्छेद-21 के अंतर्गत गरिमामय व स्वतंत्र जीवन का सिद्धांत होने के बावजूद महिलाओं के लिए निरंतर इसका हनन होता रहा है। इसके अलावा उत्तराधिकार मामले भी हैं, जहां विभिन्न पर्सनल ला में अंतर स्पष्ट दिखता है। ऐसे में महिलाओं के अधिकार रक्षा हेतु समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है।

यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि यूसीसी के लागू होने से नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत, वेश-भूषा आदि धार्मिक परंपराओं पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। कानून में समय के साथ बदलाव होते हैं, परंतु पर्सनल कानूनों का क्रियान्वयन उस धर्म के ही अधिकांश रूढ़िवादी तत्वों के हाथों में होने के कारण वे समय पर बदल नहीं पा रहे हैं जिससे उन समाजों के पिछड़ने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। विभिन्न संप्रदायों के अपने अलग-अलग सिविल कानून होने के कारण न्यायपालिका में भ्रम की स्थिति विद्यमान रहती है तथा निर्णय देने में कठिनाई के साथ-साथ समय भी अधिक लगता है।

कानूनी मामलों के विशेषज्ञों का मानना है कि जब बहुसंख्यक वर्ग को शादी, गोद लेने, संपत्ति और उत्तराधिकार संबंधी कानून का पालन करना पड़ा तो इससे अन्य धर्मों के लोगों को क्यों बचाकर रखा गया है। एक पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य का उत्तरदायित्व है कि वह विभिन्न जाति, धर्म, वर्ग और लिंग से संबंध रखने वाले अपने सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक और व्यक्तिगत कानून का निर्माण करे। अधिकांश विचारकों का यह मानना है कि एक देश में कानून भी एक ही होना चाहिए, चाहे वह दंड विधान हो या नागरिक विधान, अंग्रेजों ने इसके लिए कोशिश की थी, पर उन्होंने मात्र एक दंड विधान को लागू किया और नागरिक विधानों के पचड़े में नहीं पड़े। सच्चाई यह है कि ऐसा मुस्लिमों के विरोध के चलते हुआ, जबकि अन्य धर्मावलंबी उसके लिए तैयार थे।

प्रासंगिक परिवर्तन अपेक्षित

वर्तमान भारत पूरी तरह से एक नया समाज है, जिसमें लगभग 46 प्रतिशत जनसंख्या 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों की है। भारत के इस नौजवान वर्ग की सामाजिक चेतना को समानता, मानवता और आधुनिकता के सार्वभौमिक और वैश्विक सिद्धांतों ने आकार दिया है। यूसीसी इस चेतना को और भी मजबूत बनाएगा। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द है और ऐसे गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाना चाहिए। यूसीसी, न केवल इस्लाम से, बल्कि हिंदू और ईसाई धर्मों से भी संबंधित है। जहां तक इस्लाम और यूसीसी के संबंध की बात है तो यह एक प्रचलित भ्रम है कि यूसीसी भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के हितों के विरुद्ध होगा, जबकि सच यह है कि यूसीसी से सबसे अधिक लाभान्वित मुस्लिम समुदाय की महिलाएं ही होंगी।

यदि यूसीसी लागू होता है तो वे तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी मध्यकालीन और अमानवीय प्रथाओं से मुक्ति पा सकती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत को यदि प्रगतिशील व सही मायने में पंथनिरपेक्ष देश बनाना है तो उसके लिए प्रगतिशील व सेकुलर कानूनों की जरूरत है। कानून के कई विशेषज्ञ कहते हैं कि हमारे देश में ऐसा नहीं हो सकता कि डंडे के जोर पर कोई कानून लागू कर दिया जाए। यह देश संविधान से चलता है। मांगें उठती रहती हैं और सुधारों की गुंजाइश बनी रहती है। लेकिन उसके लिए समाज को तैयार होने की आवश्यकता है।

समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। कई लोगों को यह आशंका है कि यूसीसी को लागू करने का प्रयास करके संसद केवल कानून के पश्चिमी माडल की नकल कर रही है जो एकरूपता पर आधारित है, लेकिन पंथनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा धर्म और लोगों की विविधता पर आधारित है। अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट जैसे कई देश हैं जहां समान नागरिक संहिता लागू है। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यूसीसी के बारे में लोगों की अनभिज्ञता है, जिसका कारण शिक्षा की कमी, गलत समाचार, तर्कहीन धार्मिक विश्वास आदि हैं। भारत में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक वर्ग और उनका प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं का मानना है कि यूसीसी उनके धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन होगा। समझना होगा कि ऐसा इस मुद्दे के राजनीतिकरण के कारण हुआ है।

आगे की राह

यह सही है कि लैंगिक विभेदन को दूर करने के लिए तथा लोकतंत्र की पूर्ण प्राप्ति हेतु समान नागरिक संहिता आवश्यक है। वोट बैंक की राजनीति इस मुद्दे पर संजीदगी से पहल न होने की एक बड़ी वजह रही है। लेकिन अब सभी धर्मों के सबसे कमजोर हिस्से को न्याय और दूसरी सुविधाएं दिलाने की कसौटी को ध्यान में रखकर समान नागरिक संहिता का एक प्रारूप बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। पहले सभी के मन से यह डर मिटाना होगा कि उनकी धार्मिक परपंराओं में अनावश्यक हस्तक्षेप करना इसका उद्देश्य नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है, लेकिन यह व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही लागू की जा सकती है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र और विधि के शासन वाले देश में व्यवस्था में परिवर्तन क्रमिक एवं प्रगतिशील रूप से लाया जाना चाहिए तथा आदर्श रूप में यूसीसी के लक्ष्य को चरणबद्ध तरीके से पूरा किया जा सकता है।

[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]