वीर सावरकर को भारत रत्न देने पर सियासत तेज, एक नजर उनके जीवन के कुछ पहलुओं पर...
महाराष्ट्र चुनाव के घोषणा पत्र में जब भाजपा ने सावरकर को भारत रत्न देने की बात कही तो एक वर्ग ने इस पर ऐतराज जताना शुरू कर दिया। पूरा चुनाव इस मुद्दे के इर्द-गिर्द हो गया।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 21 Oct 2019 08:12 AM (IST)
ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। नासिक के भगूर गांव में एक 12 वर्षीय बच्चे ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में अपनी हथेली पर गर्म दीया रखकर कसम खाई थी, ‘शत्रूला मारिता मारिता मरेतो झुंजेन’। अर्थात, शत्रु को मारते-मारते इस हद तक जूझेंगे कि किसी एक की मौत हो जाए। यही बच्चा आज स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के नाम से जाना जाता है और उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग पर एक वर्ग द्वारा ऐतराज किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने दोहरे काले पानी की सजा पाने के बाद तत्कालीन अंग्रेज सरकार के सामने अपनी रिहाई की याचिका दायर की थी।
यह बात आज की परिस्थिति में समझी जा सकनी मुश्किल है कि सावरकर ने अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहने के दौरान अंग्रेज सरकार के सामने छह बार क्यों रिहाई का आवेदन किया? ये वही सावरकर थे, जो बचपन से ही लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिनचंद्र पाल की उग्र विचारधारा से प्रभावित थे। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन उच्च शिक्षा का शौक था। इसलिए विवाह से पहले उन्होंने शर्त रखी कि जो व्यक्ति उनकी उच्च शिक्षा का खर्च वहन कर सके, उसकी बेटी से ही विवाह करेंगे।
उनके ससुर रामचंद्र त्र्यंबक चिपलूणकर ने इसी शर्त का पालन करते हुए अपनी बेटी यमुना बाई से उनका विवाह किया और उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा एवं विदेश जाकर वकालत की पढ़ाई में भी मददगार रहे। लाल- बाल-पाल से प्रभावित सावरकर ने ब्रिटेन जाने से पहले पुणे के फग्र्यूसन कॉलेज में पढ़ाई करते हुए ही आजादी की लड़ाई का अभ्यास शुरू कर दिया था। वहां उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का काम उस दौरान किया था, जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी का पदार्पण भी नहीं हुआ था। फिर ब्रिटेन जाकर वहां के ग्रेज इन लॉ कॉलेज में उन्होंने सिर्फ पढ़ाई ही शुरू नहीं की, बल्कि वहां के पुस्तकालय में मौजूद भारत संबंधी दस्तावेज को पढ़कर अपने क्रांतिकारी विचारों को निखारने का भी काम किया।
ब्रिटेन जाने के पहले वह लोकमान्य तिलक से मिलकर गए थे। ब्रिटेन में प्राप्त ज्ञान के आधार पर उन्होंने तिलक के मराठी अखबार ‘केसरी’ के लिए एक नियमित स्तंभ लिखना शुरू किया, जिसका नाम था, शत्रूंच्या शिविरा। अर्थात, शत्रु के शिविर से। ब्रिटेन में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने वहां मौजूद दस्तावेज के आधार पर 1857 के गदर को देश का ‘पहला स्वतंत्रता संग्राम’ बताने वाली पुस्तक लिखी, जिसका नाम था, ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’। अंग्रेजों ने यह पुस्तक प्रतिबंधित कर दी थी।
ब्रिटेन के इंडिया हाउस में रहते हुए ही उन्होंने रूस के एक क्रांतिकारी से बम बनाने की विधि सीखी और उसे मराठी में लिखकर भारत के क्रांतिकारियों के पास भेजा। 1909 में एक सभा में सर विलियम हट कर्जन वायली की हत्या करने वाले क्रांतिकारी मदनलाल धींगरा सावरकर के अच्छे मित्र और उनके समर्थक थे। सावरकर की 1857 के गदर को पहला स्वतंत्रता संग्राम बताने वाली पुस्तक के कारण वह अंग्रेजों की निगाह में आ चुके थे, लेकिन अपनी सभी गतिविधियां अत्यंत चतुराई से निर्वहन करते थे। इसलिए ब्रिटिश सरकार को उन पर कार्रवाई का मौका नहीं मिलता था।
इस मामले में हुई पहली गिरफ्तारी अंग्रेजों को यह मौका मिला 1910 में नासिक के कलेक्टर कर्नल जैक्सन की हत्या के बाद। इसका आरोप लगा अनंत कान्हेरे पर और कहा गया कि इस हत्या के लिए हथियार विनायक दामोदर सावरकर ने भिजवाया था। इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और पानी के जहाज से भारत भेजने की व्यवस्था की। इस यात्रा के दौरान फ्रांस के मार्सेली बंदरगाह पर सावरकर पानी के जहाज से समुद्र में कूद गए। वह फ्रांस में राजनीतिक शरण चाहते थे, लेकिन अपनी मनचाही सही जगह पर पहुंच पाते, उससे पहले ही उनका पीछा कर रहे अंग्रेज सिपाहियों ने उन्हें पुन: गिरफ्तार कर लिया। भारत लाने के बाद पुणे की येरवडा जेल में रखकर उन पर मुकदमा चला और उन्हें दोहरे काले पानी सजा सुनाई गई। सजा सुनकर सावरकर हंस पड़े। सजा सुनाने वाले जज ने जब उनसे हंसने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि तब तक आपका शासन रहेगा क्या?
जेल में लिखे कई ग्रंथ सेल्यूलर जेल में रहते हुए, मानवचालित कोल्हू में तेल पेरते हुए, अंडमान-निकोबार की जेल में लकड़ियां काटते हुए उन्होंने जेल की पत्थर की दीवार पर बबूल के कांटों से न सिर्फ दो महाकाव्य लिखे, बल्कि उन्हें वहां से छूटने वाले कैदियों को कंठस्थ करवाकर बाहर भी भिजवाए। ये महाकाव्य प्रकाशित भी हुए। जेल में रहते हुए और फिर बाहर आकर उन्होंने कई और ग्रंथ भी लिखे।
रिहाई के लिए लिखे पत्र अंडमान-निकोबार की 698 कमरों वाली जेल में उन पर हुए जुल्मों की दास्तान बहुचर्चित है, लेकिन इस कैद से छुटकारा पाने के लिए न सिर्फ स्वयं उन्होंने छह बार अंग्रेज सरकार को चिट्ठी लिखी, बल्कि उनकी बिना शर्त रिहाई के लिए महात्मा गांधी, विट्ठल भाई पटेल और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी 1920 में अंग्रेज सरकार को पत्र लिखा था। करीब 10 वर्ष की कड़ी सजा के बाद सेल्यूलर जेल से छोड़े जाने के बाद भी उन्हें और उनके भाई को पहले महाराष्ट्र की रत्नागिरी जेल में कैद रखा गया, फिर इस निर्देश के साथ उन्हें रिहा किया गया कि वह वहां के कलेक्टर से पूछे बिना रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते। इसलिए रत्नागिरी में रहते हुए उन्होंने अपने समय का उपयोग कई सामाजिक कार्यों में किया।
शिक्षा के प्रसार के लिए ‘पैसा फंड’ जमा करना शुरू किया। इसमें वह प्रत्येक व्यक्ति से सिर्फ एक पैसा चंदा लेते थे। इस फंड से उनके द्वारा कई विद्यालय स्थापित किए गए थे। इनमें से कुछ तो अभी भी ‘पैसा फंड हाई स्कूल’ के नाम से चल रहे हैं। हिंदू समाज की जातीय विषमता को दूर करने के लिए उन्होंने ‘पतित पावन संगठन’ की स्थापना की और रत्नागिरी में ही ‘पतित पावन मंदिर’ बनवाया। इस मंदिर में देवता की प्राण प्रतिष्ठा उन्होंने अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति से करवाई।
अंग्रेजों के खिलाफ पूरे परिवार ने किया संघर्षये सावरकर के जीवन के वो पहलू हैं, जो उनके क्रांतिकारी जीवन, जेल में उन पर हुए जुल्म और उनके माफीनामों पर होने वाली बहसों के सामने कभी चर्चा में नहीं आते। सावरकर के सहयोगी रहे बालाराव सावरकर से मिल चुके पत्रकार-चिंतक अभिजीत मुल्ये बालाराव की ही पुस्तक ‘शतपैलू सावरकर’ का जिक्र करते हुए कहते हैं कि संगठक, क्रांतिकारी, विचारक, समाज सुधारक, शिक्षाविद, महाकवि, विज्ञान प्रसारक, ऐसे सैकड़ों पहलू सावरकर के जीवन में हैं, जो एक-एक रत्न के बराबर हैं।
अभिजीत के अनुसार, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान न सिर्फ स्वयं सावरकर, बल्कि उनका पूरा परिवार अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में लीन था। स्वयं उनके भाई गणेश सावरकर भी उसी सेल्यूलर जेल में बंद थे, जहां सावरकर थे और दोनों की मुलाकात भी नहीं होती थी। आजादी की लड़ाई के दौरान उनकी और उनके भाई की पत्नियां गर्भवती स्त्री का रूप धर पेट में बम बांधकर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने का काम करती रहीं। यही नहीं, गांधी हत्या के बाद जब सावरकर के परिवार सहित महाराष्ट्र के हजारों ब्राह्मणों पर कहर टूटा, तो आजाद भारत की संभवत: पहली ‘मॉब लिंचिंग’ में जान गंवाने वाले भी सावरकर के एक भाई नारायण सावरकर ही थे।
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