उत्तर-पूर्व में भगवा लहराने के बाद भाजपा के लिए कितनी आसान होगी कर्नाटक में जीत की राह?
भाजपा की अग्नि परीक्षा यहीं पर खत्म नहीं हो गई है। अभी उसको और चुनावी संग्राम लड़ने हैं जिनमें से कर्नाटक का चुनाव सबसे अहम है।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। भाजपा को उत्तर पूर्व में मिली ऐतिहासिक जीत की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि उसने वर्षों पुरानी माणिक सरकार को जबरदस्त शिकस्त दी बल्कि ऐसा इसलिए भी है क्योंकि भाजपा ने महज चार वर्षों के अन्दर वहां पर जमीनी पकड़ बनाने में सफलता हासिल की, जिसका प्रयास वह कई वर्षों से कर रही थी। आपको बता दें कि त्रिपुरा में वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के 50 में से 49 उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई थी। त्रिपुरा की जीत इसलिए भी बेहद खास हो जाती है। बहरहाल भाजपा की अग्नि परीक्षा यहीं पर खत्म नहीं हो गई है, अभी उसको और चुनावी संग्राम से पार पाना बाकी हैं, जिनमें से कर्नाटक का चुनाव सबसे अहम है।
कई मायनों में खास कर्नाटक का चुनाव
कर्नाटक में फ़िलहाल सिद्दारमैया के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है। खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मानते हैं कर्नाटक समेत ओडिशा और तमिलनाडु में जब तक भगवा नहीं लहराता तब तक पार्टी का स्वर्णिम काल नहीं आयगा। बहरहाल कर्नाटक का चुनाव कई मायनों में खास होने वाला है। भाजपा और कर्नाटक की राजनीति पर नजर रखने वाले भी ऐसा ही इशारा दे रहे हैं।
कर्नाटक में जीत की राह मुश्किल
इस बाबत वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह ने दैनिक जागरण से बात करते हुए कहा कि कर्नाटक में तीन दल मैदान में हैं। उनके मुताबिक जनता दल सेक्युलर भी इसबार चुनावी लड़ाई में बड़ी पार्टी है। इसके आलावा कांग्रेस और भाजपा तो हैं ही। लेकिन असल मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में ही है। उनका कहना है कि सिद्दारमैया ट्रेडिशनल कांग्रेसी नहीं हैं, वो जनता दल से आए हैं। उनकी पृष्ठभूमि भी समाजवादी रही है। वो जमीन से जुड़े नेता हैं इसलिए यहां पर भाजपा के लिए राह मुश्किल है।
अब ख़त्म हो गया मन मुटाव
कर्नाटक को लेकर की गई बातचीत में उन्होंने कहा कि पिछली बार भाजपा की वहां पर हार का सबसे बड़ा कारण येदियुरप्पा का एक बड़े धड़े के साथ टूट कर अलग हो जाना था। लेकिन अब येदियुरप्पा पार्टी में वापस आ गए हैं और पार्टी में एकता साफ दिखाई दे रही है। कोई ऐसे बड़े विवादित मुद्दे भी पार्टी में नहीं हैं जिसका संकट आसपास दिखाई देता हो। राज्य स्तर पर जो कभी मन मुटाव था वो भी अब ख़त्म हो गया है लिहाजा ये कहने में कोई परहेज नहीं है कि इसबार भाजपा की तयारी पिछले चुनाव के मुकाबले काफी बेहतर है। इसके बावजूद वह ये भी मानते हैं की वहां पर कांग्रेस को हराना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा। लेकिन यह नामुमकिन भी नहीं है। उनके मुताबिक ये चुनाव बड़ा कांटे का होगा।
चार वर्षों में मजबूत हुई भाजपा
प्रदीप का कहना था की बीते चार वर्षों में भाजपा ने जहां मजबूती हासिल की है वहीं विभिन्न राज्यों में मौजूद क्षेत्रीय दल लगातार कमजोर होते गए हैं, फिर चाहे सपा हो या बसपा हो, जिसका अब यूपी में कोई वजूद नहीं रह गया है। इसके अलावा DMK, AIADMK हो या और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां हों, सभी कमजोर हुए हैं। ये दल आज अपने वजूद को बचाने की ही कवायद कर रहे हैं, जिसमे कांग्रेस भी शामिल है। लिहाजा आज के दौर में विपक्ष भाजपा को टक्कर दे पाने की स्थिति में नहीं है।
क्यों लगातार उपचुनाव हार रही भाजपा
ये पूछे जाने पर कि आखिर जहां भाजपा लगातार राज्यों में अपनी जीत दर्ज करवा रही है, वहीं इस दौरान हुए उपचुनावों में लगातार हारती जा रही है। उनका जवाब था की उपचुनाव में ज्यादातर वहां की सरकार के खिलाफ हवा होना या उम्मीदवार का गलत होना इसकी एक बड़ी वजह बनता है। जहां तक मध्य प्रदेश में हुए उपचुनाव कि बात है तो वह सीट परंपरागत तौर पर कांग्रेस की ही रही है। वहां से कांग्रेस के उम्मीदवार मोदी लहर में भी जीते थे, लिहाजा कांग्रेस ने अपनी सीट दोबारा हासिल की है। लेकिन जहां तक राजस्थान में पार्टी को मिली हार की बात है तो वो जरूर चिंताजनक है। इसके बावजूद राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहां हर 5 वर्ष में सरकार बदलती आई है। यहां ये कहने में भी कोई परहेज नहीं होना चाहिए की आने वाले दिनों में जहां भी चुनाव होने वाले हैं उनमें भाजपा के लिए सबसे कमजोर राजस्थान ही है।
कौन है सिद्दारमैया
सिद्दारमैया कर्नाटक के दो बार उप मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। जनता परिवार और जनता दल एस से होकर कांग्रेस का दामन थामने वाले सिद्दारमैया ने मई 2013 को प्रदेश के 22वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी। किसान परिवार से ताल्लुके रखने वाले सिद्दारमैया काफी मुश्किलों के बाद यहां तक पहुंचे हैं। बात चाहे उनकी पढ़ाई की करें या फिर उनके राजनीतिक सफर की दोनों में ही उन्होंने मुश्किल दौर से गुजरकर सफलता पाई है। उनका राजनीतिक सफर 1978 में शुरू हुआ था। 1983 में वह पहली बार विधानसभा के लिए चुने गए थे। इसके बाद वह पहली बार 1985 में राज्य सरकार में मंत्री बने थे। वर्ष 1989 में उन्हें हार का भी सामना करना पड़ा था। 1994 में वह फिर विधानसभा के लिए चुने गए और 1996 में वह राज्य के उप-मुख्यमंत्री बने। जनता दल के टूटने और 1999 में हार के बाद उन्हें दोबार वापसी करने में कुछ समय जरूर लगा। 2004 में उन्होंने अपनी दूसरी सियासी पारी कांग्रेस के साथ शुरू की थी।
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