क्या मल्लिकार्जुन खरगे के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस में विरोध के स्वर थमेंगे?
मल्लिकार्जुन के सामने स्वयं को गांधी परिवार के रबर स्टांप से ज्यादा साबित करने की चुनौती है। खरगे का भविष्य कुछ हद तक इस पर भी निर्भर करेगा कि राहुल अपनी यात्रा से लोगों का कितना ध्यान खींच पाते हैं और इससे पार्टी को क्या मिलता है।
By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Mon, 31 Oct 2022 05:03 PM (IST)
नीरजा चौधरी। एक तरफ गांधी परिवार से इतर कोई व्यक्ति 24 साल बाद पार्टी प्रमुख बना है, तो दूसरी ओर पी चिदंबरम जैसे वरिष्ठ पार्टी नेता ने पार्टी अध्यक्ष एवं पार्टी का चेहरा होने के बीच अंतर की बात भी कर दी है। वैसे यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस में इन दोनों पदों को अलग-अलग किया गया है। कांग्रेस के इतिहास में पहले भी ऐसा हुआ है। नेहरू के दौर में पार्टी प्रमुख के पद पर अलग-अलग लोग रहे थे। इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते भी कई लोगों ने पार्टी प्रमुख का पद संभाला था।
आपातकाल के समय 1975 से 1977 तक डीके बरुआ के हाथ में पार्टी की कमान थी। बरुआ वही थे, जिन्होंने कहा था- इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा। 1977 में हार के बाद पार्टी अध्यक्ष का पद इंदिरा ने अपने हाथ में ले लिया। राजीव गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद अपने पास ही रखा था। 1992-96 तक पीवी नरसिंह राव ने भी ऐसा ही किया, जिससे पार्टी में शक्ति के दो केंद्र न उभर आएं। पार्टी प्रमुख और पार्टी के चेहरे को फिर अलग-अलग किया गया, जब सोनिया गांधी ने कमान संभाली। 1998 में वह पार्टी अध्यक्ष बनीं और 22 साल इस पद पर रहीं। इस बीच 10 साल मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे। सोनिया गांधी पार्टी की शक्ति का स्रोत बनी रहीं।
ये उदाहरण इस बात को दिखाने के लिए काफी हैं कि खरगे भले ही अध्यक्ष बने हैं, लेकिन वह पार्टी का चेहरा भी होंगे, इसकी संभावना कम ही है। पार्टी का चेहरा गांधी परिवार बना रहेगा। भले ही चुनाव जिताने की गांधी परिवार की ताकत कम हो रही है और पिछले आठ साल में पार्टी ने 49 में से 39 चुनावों में हार का सामना किया है, लेकिन पार्टी पर उनकी पकड़ बनी हुई है। पार्टी अध्यक्ष पद के चुनाव में गांधी परिवार के करीबी खरगे के पक्ष में एकमुश्त 85 प्रतिशत वोट पड़ना इस बात का प्रमाण भी है। इस चुनाव के बीच ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से यह संकेत भी साफ मिल रहा है कि पार्टी का चेहरा राहुल गांधी ही रहेंगे। भारत जोड़ो यात्रा को अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। हालांकि यह कहना अभी भी मुश्किल है कि इससे पार्टी को कितना फायदा मिलेगा?
यह संभव है कि इस यात्रा से राहुल की छवि बदले। कन्याकुमारी से कश्मीर तक 3,500 किलोमीटर की पद यात्रा से वह एक ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आएंगे, जिसमें कुछ करने का जज्बा है। स्थितियां बहुत सकारात्मक नहीं रहीं तो गांधी परिवार नीतीश कुमार जैसे किसी गैर-कांग्रेसी नेतृत्व के लिए हामी भर सकता है। इसके पीछे सीधा सा गणित यह होगा कि यदि राहुल विपक्ष का स्वीकार्य चेहरा नहीं हो पाते हैं, तो फिर कांग्रेस में ही किसी और को समानांतर शक्ति का केंद्र क्यों बनाया जाए? इसलिए इस बात की संभावना बहुत कम है कि खरगे कांग्रेस और विपक्ष का चेहरा बनेंगे।
रही बात अध्यक्ष के रूप में काम की, तो खरगे के समक्ष मृतप्राय कांग्रेस को पुनर्जीवित करने से जुड़ी कई चुनौतियां हैं। पहली चुनौती है पार्टी संगठन को जमीनी स्तर पर पुनर्गठित करने की। राजस्थान और कर्नाटक में अपने बिखरते धड़ों को एक करना भी महत्वपूर्ण है। संगठित विपक्ष को स्वरूप देने के लिए विभिन्न राज्यों में भाजपा से लड़ रहे स्थानीय क्षत्रपों तक पहुंचना भी खरगे के लिए बड़ी चुनौती है। देखना होगा कि गांधी परिवार को साधते हुए खरगे कैसे कदम बढ़ाते हैं और अपने लिए जगह बनाते हैं। उनके सामने स्वयं को गांधी परिवार के रबर स्टांप से ज्यादा साबित करने की चुनौती है। खरगे का भविष्य कुछ हद तक इस पर भी निर्भर करेगा कि राहुल अपनी यात्रा से लोगों का कितना ध्यान खींच पाते हैं और इससे पार्टी को क्या मिलता है। [वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक]