Himachal Pradesh: विधानसभा में बजट सत्र के बहाने, वही निर्धनता के तराने
बजट 17 मार्च को आएगा और समझा जा रहा है कि यह बजट कुछ भिन्न होगा। कैसा और कितना भिन्न होगा यह उसी दिन पता चलेगा। सीएम सुक्खू उसी आल्टो कार में बैठ कर आए जो उन्होंने 2003 में ली थी जब वह पहली बार नादौन से विधायक बने थे।
By Jagran NewsEdited By: Amit SinghUpdated: Thu, 16 Mar 2023 01:14 AM (IST)
नवनीत शर्मा, शिमला। उस हिमाचल प्रदेश की विधानसभा का बजट सत्र मंगलवार को आरंभ हो गया, जिसकी प्रति व्यक्ति आय दो लाख रुपये छूने को आतुर है। वही हिमाचल प्रदेश, जिसकी महिलाओं को 1895 करोड़ रुपये 1500 रुपये प्रति महिला दिए जाने हैं। वही प्रदेश, जहां एक लाख 36 हजार कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना का लाभ दिया जाना है। वही राज्य, जिस पर 75000 करोड़ रुपये का ऋण है और 11000 करोड़ की अन्य देनदारियां हैं।
बजट 17 मार्च को आएगा और समझा जा रहा है कि यह बजट कुछ भिन्न होगा। कैसा और कितना भिन्न होगा, यह उसी दिन पता चलेगा। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू उसी आल्टो कार में बैठ कर आए जो उन्होंने 2003 में ली थी, जब वह पहली बार नादौन से विधायक बने थे। हालांकि वह सदन से आवास तक मुख्यमंत्री वाली आधिकारिक गाड़ी फार्च्यूनर से ही लौटे पर एक ओर की यात्रा आल्टो कार से कर उन्होंने संदेश देना चाहा कि संसाधन सिकुड़ें तो करना क्या चाहिए।
करना यह चाहिए कि मितव्ययता अपनानी चाहिए, आवश्यक आवश्यकता वाले कार्यों को ही अधिमान दिया जाना चाहिए। इस कड़ी में विधायक निधि रुक गई है। उससे पहले 900 से अधिक संस्थान बंद कर दिए गए जो जयराम सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम छह माह में खोले थे। पहले दिन विधायक निधि के विषय पर विपक्ष आक्रामक हुआ और बहिर्गमन कर गया क्योंकि नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर का कहना था कि विधायक निधि के मामले में काम रोको प्रस्ताव को अध्यक्ष ने मंजूरी नहीं दी। मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि विधायक निधि बंद नहीं की है, वित्तीय संकट के कारण रोकी गई है। सदन में उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने वैसे ही तेवर अपना कर विपक्ष को खरी खरी सुनाई जैसे तेवर पिछले पांच साल उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के रूप में दिखाए थे।
यह देखना होगा कि वह कब इतने ही आक्रामक बने रहते हैं। स्मरण जीवंत हो गया कि सांसद निधि और विधायक निधि महामारी के काल में भी रुकी थी। तब भी कतिपय विधायकों को यह बात जमी नहीं थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री के साथ गुहार लगाई गई थी। आज महामारी न सही, वित्तीय संकट तो है ही जिसे दोनों पक्ष मान रहे हैं। दूसरे दिन भाजपा ने संस्थान बंद करने के विषय में प्रश्नकाल को स्थगित कर नियम 67 के अंतर्गत चर्चा मांगी। अध्यक्ष ने पुन: इन्कार कर दिया तो सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा कि खबर क्योंकि वाकआउट से बनेगी, इसलिए इनका प्रस्ताव स्वीकार कर लें, हम चर्चा कर लेते हैं। यह और बात है कि विपक्ष ने वाकआउट करना ही था सो किया।
अब प्रश्न यह है कि यदि वित्तीय संकट के आंकड़े प्रदेश को डरा रहे हैं, तो उसमें किसका कितना योगदान है। यह विषय जनता से जुड़ा अवश्य है, किंतु इसके कारक पक्ष और विपक्ष ही हैं, कोई तीसरा पक्ष नहीं है। प्रत्येक मुख्यमंत्री अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के विषय में यह बात कहता ही है कि अमुक जी ने अधिक कर्ज लिया। वाटर सेस का विधेयक अधिनियम बन जाएगा, उससे धन कितना आएगा और समस्याएं कितनी खड़ी होंगी, यह अभी अन्वेषण और अध्ययन का विषय है।
सार यह है कि सरकार कोई भी हो, उसके अधरों पर वित्तीय संकट के तराने तब तक रहेंगे, जब तक वह वित्त प्रबंधन और लोकप्रिय राजनीति को अलग अलग विषय के रूप में नहीं देखेगी। अब जो प्रतिपक्ष संस्थानों को बंद किए जाने पर चर्चा मांग रहा है, क्या वह इस बात से अनभिज्ञ है कि हिमाचल प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या, जनसंख्या के आधार पर पंजाब और उत्तराखंड के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से अधिक है इसके बावजूद सारा बोझ इंदिरा गांधी मेडिकल कालेज शिमला, राजकीय कालेज टांडा ही उठा रहे हैं, अब अवश्य हाथ बंटाने के लिए एम्स बिलासपुर है।
कई मामलों में अब भी पंजाब या चंडीगढ़ के अस्पताल ही जीवन रक्षक नहीं है? पटवार वृत्त, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल, कालेज, कानूनगो वृत्त, विभिन्न विभागों के मंडल, उपमंडल लोकप्रिय राजनीति के लिए खुलेंगे तो कोई तो आवश्यक आवश्यकताओं की बात करेगा ही। इससे डेढ़ दशक पुराने राजनीतिक परिदृश्य का स्मरण हो आता है जब राजनेता जहां जाता था, कहता था, आपको हैंडपंप दिया। जो काम भूजल सर्वेक्षण विभाग का था, जल शक्ति विभाग का था, उसे राजनेता सर्वज्ञानी मान कर घोषित करते रहे। नतीजा क्या हुआ, लाल रंग यानी जंग उगलने लगे हैंडपंप। सरकार ने शिक्षण संस्थाओं के युक्तीकरण का बीड़ा उठा कर बुरा नहीं किया है।
बजट में जो होगा सो होगा, व्यवस्था परिवर्तन होगा या नहीं, यह भी सामने आ जाएगा किंतु हर ओर के माननीयों को यह विचार अवश्य करना चाहिए कि हिमाचल प्रदेश के कितने सरकारी स्कूल बिना खेल मैदानों के हैं? कितने ऐसे निजी स्कूल हैं जिनके यहां कागजों में मैदान हैं, जमीन पर नहीं? कितने स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास शारीरिक शिक्षक ही नहीं हैं? शिक्षण संस्थानों की सौ मीटर की परिधि में तंबाकू उत्पाद बिक रहे हैं या नहीं, यह तो पता करें ही, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग आपस में बैठ कर यह भी पता लगाएं कि उड़ता हिमाचल बनते प्रदेश में कितने सरकारी पुनर्वास केंद्र हैं, जहां नशे के पीड़ितों को मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए जा सकते हैं? परिणाम चौंकाने वाले होंगे, यह वादा रहा।
क्या पीड़ितों के नसीब में धन उगाहते और मोटे डरावने बाजुओं वाले निजी पुनर्वास केंद्र ही रहेंगे? यह आपके पटवार वृत्त और हर पांच किलोमीटर के बाद शिक्षण संस्थान खोलने से कम आवश्यक कार्य है? देनदारियां भी दी जाएंगी, संसाधन भी आ जाएंगे किंतु उसके लिए जिस रणनीति की आवश्यकता है, वे ऐसे अधिकारी तो कभी नहीं बना सकते जिन्होंने 'आइ एग्री सर' कहना सीख रखा होता है। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नेतृत्व देती है।
अधिकारियों का क्या भरोसा, भाजपा से कहते थे कि पुरानी पेंशन योजना बुरा अर्थशास्त्र है, कांग्रेस से कहते हैं कि इससे बढ़िया अर्थशास्त्र कोई नहीं। यह नेक काम क्षुद्रताएं दिखाने वाले चेहरे नहीं, प्रदेशहित में कर्मठ लोक ही कर सकते हैं। व्यवस्था परिवर्तन संभव है क्योंकि कप्तान चाहता है, किंतु टीम ऐसी हो जो वर्ल्ड कप जीतने का दम रखती हो। मोहल्ला क्रिकेट अलग बात है, विश्व कप और बात है।(लेखक दैनिक जागरण हिमाचल के राज्य संपादक हैं)
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