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Interview: 'अल्पसंख्यकों के लिए चुप्पी से बेहतर कोई रास्ता नहीं'- UCC के मुद्दे पर बोले जफर सरेशवाला

गुजरात के जाने-माने कारोबारी जफर सरेशवाला गुजरात के मुस्लिम बोहरा समुदाय से संबंध रखते हैं और तब्लीगी जमात से भी जुड़े हुए हैं। यह महत्त्वपूर्ण है कि उनका घराना आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना के समय होने वाली शुरुआती गतिविधियों का गवाह रहा है। दैनिक जागरण के सहयोगी उर्दू दैनिक इन्किलाब के संपादक वदूद साजिद ने उनसे समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर विशेष बातचीत की।

By Jagran NewsEdited By: Anurag GuptaUpdated: Sat, 29 Jul 2023 07:06 PM (IST)
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जफर सरेशवाला के साथ खास बातचीत (जागरण फोटो)
नई दिल्ली, वदूद साजिद। गुजरात के जाने-माने कारोबारी जफर सरेशवाला उस समय सुर्खियों में आए थे, जब 2002 में गुजरात दंगों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध लंदन में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए थे। उस समय सरेशवाला ने मोदी का साथ दिया था। उसके बाद यह संपर्क दोनों की घनिष्ठ दोस्ती में बदल गई। मोदी सरकार ने उन्हें मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी का चांसलर भी नियुक्त किया था।

जफर सरेशवाला ने कभी भाजपा की सदस्यता नहीं ली, लेकिन बहुत से विषयों पर प्रधानमंत्री का साथ दिया। वह प्रायः ज्वलंत मुद्दों पर प्रधानमंत्री का बचाव करते दिखते हैं। वह गुजरात के मुस्लिम बोहरा समुदाय से संबंध रखते हैं और तब्लीगी जमात से भी जुड़े हुए हैं। यह महत्त्वपूर्ण है कि उनका घराना आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना के समय होने वाली शुरुआती गतिविधियों का गवाह रहा है।

दैनिक जागरण के सहयोगी उर्दू दैनिक इन्किलाब के संपादक वदूद साजिद ने उनसे समान नागरिक संहिता (UCC) के मुद्दे पर विशेष बातचीत की।

बातचीत के प्रमुख अंशः-

अल्पसंख्यकों का एक बहुत बड़ा वर्ग यह कहकर समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहा है कि यह शरीअत में हस्तक्षेप है। आप किस आधार पर इसका समर्थन कर रहे हैं?

जवाब: मेरा ऐसा मानना है कि समान नागरिक संहिता से अल्पसंख्यकों को कोई खतरा नहीं है। यदि यह कानून बनता है तो इसका सबसे ज्यादा असर तो हिंदुओं पर पड़ेगा। मुझे अफसोस है कि मुस्लिम नेता समान नागरिक संहिता के खिलाफ बड़े-बड़े बयान दे रहे हैं, लेकिन वे अपने अंदर झांककर नहीं देख रहे हैं कि क्या अल्पसंख्यक अपनी बेटियों को शरीअत द्वारा दिए गए सारे अधिकार दे रहे हैं?

आप क्या समझते हैं कि अल्पसंख्यक अपनी बेटियों को उनके अधिकार नहीं देते?

जवाब: अगर अल्पसंख्यक शरिया के मुताबिक काम करते तो ये समस्याएं पैदा नहीं होतीं। 1995 में मुंबई में मेरे घर पर धर्म का पालन करने वाली महिलाओं का एक प्रतिनिधिमंडल आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के अध्यक्ष स्वर्गीय काजी मुजाहिदुल इस्लाम कासमी से मिलने पहुंचा। इन महिलाओं ने मौलाना से अनुरोध किया था कि पर्सनल ला को संहिताबद्ध करना चाहिए और एक माडल निकाहनामा तैयार करना चाहिए। लगभग 28 साल हो गए हैं, लेकिन इस अवधि के दौरान बोर्ड एक माडल निकाहनामा पेश नहीं कर सका। यदि उनकी मांग मान ली गई होती तो तीन तलाक का मुद्दा नहीं उठता और इन महिलाओं को अदालत में नहीं जाना पड़ता। हमने खुद ही मामला बिगाड़ा है।

आपका परिवार पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना की शुरुआती गतिविधियों का केंद्र रहा है। आपका भी बोर्ड के उच्च स्थान पर बैठे कई सदस्यों से संबंध रहा है, क्या आप ने कभी इस मुद्दे पर बोर्ड से बात की?

जवाब: बोर्ड से हमारा संबंध उसकी स्थापना के समय से रहा है। मेरे पिता जी का स्वर्गीय मौलाना अली मियां नदवी से गहरा और निकटतम संबंध था। 1972 में संविधान के इसी नीति निर्देशक सिद्धांत का मुद्दा उस समय उठा था। बड़े-बड़े विद्वानों की सभा उसी के संबंध में हुई थी। बाद में यह सभा पर्सनल ला बोर्ड की स्थापना का बुनियादी कारण बन गई। उसके बाद उसके जितने भी अध्यक्ष बने, सब मुंबई आते तो हमारे ही घर ठहरते रहे। समान नागरिक संहिता की बहस नई नहीं है। मेरा यह मानना है कि कई बार जवाब न देना भी जबरदस्त जवाब होता है। बोर्ड के लोग भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं। मैं आपके माध्यम से भी उनसे आग्रह करुंगा कि वे सार्वजनिक प्रतिक्रिया से बचें।

तो क्या समान नागरिक संहिता से देश के अल्पसंख्यकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा?

जवाब: मैं कहता हूं कि इससे हिंदुओं के बाद पारसी, बौद्ध, जैन और आदिवासी प्रभावित होंगे। इसके अलावा सिख समाज भी काफी प्रभावित होगा। सवाल यह है कि मुस्लिम वर्ग जोश में आकर और उत्तेजित होकर हर मुद्दे को अपने ऊपर क्यों ले लेता है? हर मुद्दे पर प्रतिक्रिया देना जरूरी नहीं है।

आप तब्लीगी जमात से भी जुड़े हुए हैं। इस संबंध में उसका क्या पक्ष है?

जवाब: मेरा पूरा जीवन तब्लीग में लगा है। मैं उस समय से तब्लीगी जमात से जुड़ा था, जब इसका कड़ा विरोध होता था, लेकिन उस समय इस जमात में सबसे पहली बात जो सिखाई गई थी वह यही थी कि विरोध का जवाब नहीं देना और चुपचाप अपना काम करते रहना। मैं समझता हूं कि अल्पसंख्यकों के लिए सब से अच्छा रास्ता खामोशी है। इसके अलावा अल्पसंख्यकों को अपने अंदर की खराबियों की तरफ भी देखना चाहिए। क्या कभी हमने आकलन किया कि हमारी यह हालत किस कारण है? उसे दूर करने के लिए क्यों नहीं प्रयास किया गया? क्या यह भाजपा, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कारण है कि हम अपनी बेटियों को उनका शरीअत में दिया गया हक नहीं देते?

क्या चुप रह कर अल्पसंख्यको के लिए कुछ अच्छा परिणाम निकल सकता है?

जवाब: अल्पसंख्यकों के लिए चुप्पी से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। मेरा परिवार शिक्षा और प्रशिक्षण के क्षेत्र में काम कर रहा है। हम गरीब युवाओं के बीच आर्थिक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करते हैं। हम देश के 63 शहरों में ये कार्यक्रम आयोजित कर चुके हैं। अहमदाबाद में विशेष रूप से गरीब बच्चों के लिए दो स्कूल भी सफलतापूर्वक चला रहे हैं। हमें अंदाजा है कि इस समय मुस्लिम बच्चों और युवाओं को शिक्षा और प्रशिक्षण की कितनी आवश्यकता है, जिससे वे अन्य समुदायों के बच्चों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें।

क्या अल्पसंख्यकों को समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को छोड़कर मात्र शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए?

जवाब: एक यही मुद्दा नहीं, बल्कि हर मुद्दे का समाधान शिक्षा में है। यदि अल्पसंख्यक युवा शिक्षा पाएगा तो एक ओर जहां रोजगार की समस्या दूर होगी, वहीं उसे पता होगा कि उसके अधिकार क्या हैं और उसकी जिम्मेदारियां क्या हैं। उन्हें समाज में अपने अच्छे-बुरे का ज्ञान होगा। उन्हें अपनी कमियों का पता चलेगा। उन्हें सबसे पहले समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों के बारे में सोचने के बजाय अपनी आंतरिक कमियों पर ध्यान देना चाहिए।

आप एक बात पर ज्यादा जोर देते नजर आ रहे हैं कि अल्पसंख्यक अपनी बेटियों को उनका हक नहीं देते। क्या इस्लाम ने बेटियों को वाकई इतने हक दिए हैं?

जवाब: आपको हैरत होगी कि इस्लाम ने महिला को हर स्तर पर अधिकार दिए हैं। जब वह बेटी है तो बाप की विरासत में उसका हक, जब वह पत्नी है तो पति की जायदाद में उसका हक, जब वह बहन है तो भाइयों पर उसका हक, बाप मर जाए तो यह भाइयों की ज़िम्मेदारी है कि वे अपनी बहनों को उनका अधिकार दें। अच्छा तो यही है कि बाप अपनी जिंदगी में ही अपनी बेटियों को उनका हक दे जाए।

मैं आपसे पूछता हूं कि क्या उत्तर प्रदेश और बिहार में अल्पसंख्यक अपनी बेटियों को विरासत में शरीयत का दिया हुआ अधिकार देते हैं? बेटियों को कृषि भूमि में उनका हक नहीं दिया जाता है। क्या हमने कभी सोचा है कि हम अपनी बहनों का हक छीनकर हराम माल खा रहे हैं? क्या इससे विनाश नहीं होगा? हमें विचार करना होगा कि क्या हम अपनी पत्नियों को उनका हक दे रहे हैं? समान नागरिक संहिता की चर्चा में पड़ने का मतलब है कि हम दूसरों के फैलाए जाल में फंस गये हैं। अभी इसका कोई मसौदा नहीं है। फिलहाल चुप रहना ही बेहतर है।

विधि आयोग ने जो सुझाव मांगे हैं क्या अल्पसंख्यकों को उस में भी भाग नहीं लेना चाहिए?

जवाब: विधि आयोग को हमें सुझाव और आपत्तियां अवश्य भेजनी चाहिए। ऐसा अल्पसंख्यकों ने बड़े पैमाने पर किया भी है।

यदि आपके अनुसार अल्पसंख्यकों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा तो फिर वे इसका इतना विरोध क्यों कर रहे हैं ?

जवाब: अगर समान नागरिक संहिता आता भी है तो अल्पसंख्यकों की तीन ही समस्याएं हैं। पहली है बहुविवाह। कुरान इस संबंध में साफ कहती है कि अगर आपको डर है कि आप एक से अधिक पत्नियों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे तो एक ही बेहतर है। यह याद रखना चाहिए कि इस्लाम ने विशेष परिस्थितियों में एक से अधिक विवाह करने की अनुमति दी थी, आदेश नहीं। गलती यहां होती है जब इसे आदेश समझ लिया जाता है। दूसरी बात यह है कि देश के आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि अल्पसंख्यकों में बहुविवाह मात्र पौने दो प्रतिशत है।

दूसरी समस्या तलाक की है। काफी बहस के बाद तीन तलाक पर तो वैसे ही कानून आ गया है। इसमें भी अल्पसंख्यकों की ही गलती थी। उन्होंने कभी कुरान के अनुसार, तलाक का मसला हल ही नहीं किया।

तीसरी समस्या विरासत की संपत्ति में बहन-बेटियों के हक की है। अल्पसंख्यक खुद सोचें कि क्या वे कुरान और पैगंबर मुहम्मद के आदेश के अनुसार, अपनी बहन-बेटियों को विरासत में उनका वाजिब हक देते हैं?

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