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उर्दू के महान लेखक सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि को भूल गए नेता और अधिकारी

चुनावी शोर में उर्दू के महान लेखक सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि को लोग भूल ही गए।

By JagranEdited By: Updated: Tue, 18 Jan 2022 11:51 PM (IST)
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उर्दू के महान लेखक सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि को भूल गए नेता और अधिकारी

नितिन धीमान, अमृतसर: चुनावी शोर में उर्दू के महान लेखक सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि को लोग भूल ही गए। अपने जीवन में मंटो ने 22 लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए। 11 मई 1912 को मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला में हुआ, परंतु जन्म के कुछ वर्ष बाद उनके अभिभावक अमृतसर आ गए। कूचा वकीला कटड़ा जैमल सिंह में रहने वाले मंटो की शिक्षा भी हिदू कालेज में हुई। 1947 के बाद वे पाकिस्तान चले गए और 18 जनवरी 1955 को लाहौर में मंटो ने अंतिम सांस ली। अफसोसनाक पक्ष यह है कि विधानसभा चुनाव में जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना रहे राजनेताओं ने उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा के दो पुष्प चढ़ाना भी मुनासिब नहीं समझा। न ही जिला प्रशासन ने उन्हें नमन किया। जलियांवाला बाग नरसंहार पर लिखी थी पहली कहानी 'तमाशा'

सामाजिक कार्यकर्ता नरेश जौहर के अनुसार मंटो की कथा कहानियां आज भी जनमानस को समाज के लिए प्रेरणाप्रद हैं। लघु कथा बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा, टेक सिंह के लिए प्रसिद्ध मंटो ने अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में पढ़ाई की। 1931 में हिदू सभा कालेज में प्रवेश लिया। उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन उभार पर था। 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के समय मंटो सात वर्ष के थे, लेकिन इस नरसंहार ने बाल मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। इसी नरसंहार पर उन्होंने पहली कहानी 'तमाशा' लिखी थी। बाद में उन्होंने टोबा टेक सिंह, ठंडा गोश्त, काली सलवान और बू जैसी कहानियां भी लिखीं। अमृतसर से मंटो की प्रतिमा और स्मारक आज तक नहीं बना

जानी मानी फिल्म निर्देशिका नंदिता दास ने 2018 में मंटो के जीवन पर फिल्म भी बनाई। लोग आज भी मंटो की कहानियों को शौक से पढ़ते हैं। उनकी कृतियों में अमृतसर में संकरी गलियां तथा तंग बाजारों का जिक्र भी है। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। कई कहानियों पर विवाद उपजा। मंटो ने तर्क दिया कि अफसाना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है। जौहर बताते हैं कि अमृतसर से मंटो का गहरा लगाव था, पर दुखद है कि यहां भी उनकी प्रतिमा, यादगार अथवा स्मारक नहीं। अफसोस यह भी कि उनकी पुण्यतिथि पर शासन-प्रशासन ने श्रद्धा के दो पुष्प चढ़ाना भी उचित नहीं समझा।

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