Punjab News: नए अकाली दल के गठन की सुगबुगाहट, अपने फैसले पर अड़े बागी; बोले- सुखबीर बादल के इस्तीफे से कम कुछ भी मंजूर नहीं
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल (Shiromani Akali Dal) का नया गठन हो सकता है। बागियों ने सुखबीर बादल (Sukhbir Singh Badal) के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। बागियों का कहना है कि सुखबीर बादल के इस्तीफे के अलावा कुछ भी मंजूर नहीं है। वहीं शिरोमणि अकाली दल के इतिहास में पहली बार नहीं होने जा रहा है। इससे पहले भी कई बार दल में टूट हुई है।
इन्द्रप्रीत सिंह, चंडीगढ़। शिरोमणि अकाली दल में खानाजंगी का माहौल है। इससे साफ होता है कि एक जुलाई को जब शिरोमणि अकाली दल का बागी धड़ा श्री अकाल तख्त साहिब पर नतमस्तक होकर पुरानी गलतियों की माफी मांगेगा, उसी दिन एक नए अकाली दल की नींव रख दी जाएगी।
इसके बाद अकाली दल की राजनीति में एक नई करवट आ सकती है। बागी धड़े ने स्पष्ट कर दिया है कि सुखबीर बादल के प्रधान पद से इस्तीफे से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। सुखबीर बादल भी पद न छोड़ने पर अड़े हुए हैं ऐसे में सिर्फ एक ही बीच का रास्ता बचता है कि बागी ग्रुप अपना नया अकाली दल गठित कर ले।
इससे पहले भी दल में हुई है टूट
ऐसा शिरोमणि अकाली दल के इतिहास में पहली बार नहीं होने जा रहा है। इससे पहले भी कई बार दल में टूट हुई है। 1989 के बाद से तो दल इतने गुटों में टूट गया था कि उसको एक साथ लाने में कई दिग्गजो को मशक्कत करनी पड़ी। शिरोमणि अकाली दल जो पंथक नुमाइंदगी के लिए गठित हुई थी ने अपने सिद्धांत को लेकर कई बार बदलाव किया। कभी हालात के अनुसार तो कभी राजनीतिक सत्ता की खातिर....।
1996 में भी हुआ था घमासान
सबसे बड़ा बदलाव 1996 में तब आया जब मोगा अधिवेशन में पार्टी ने पंथ की बजाए पंजाबियों की नुमाइंदा पार्टी बनना मंजूर किया। भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौते को लेकर उन दिनों भी काफी घमासान हुआ। चूंकि प्रकाश सिंह बादल पूरी तरह से पार्टी पर कब्जा कर चुके थे और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव में भी भारी जीत बनाकर उनकी पकड़ इतनी मजबूत हो गई कि इन चुनाव में कुलदीप सिंह वडाला सरीखे नेताओं की बगावत भी उन्हें रोक नहीं पाई।
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1997 में सत्ता में आते ही उन्होंने पार्टी में अपनी पकड़ को और मजबूत बना ली, जिस कारण 1999 में जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहरा जैसे नेता उनसे अलग हो गए। अब पार्टी, सरकार और एसजीपीसी, तीनों प्रमुख संस्थाओं पर बादल परिवार का ही राज था। 2002 में गुरचरण सिंह टोहरा का सर्व हिंद अकाली दल कोई सीट तो नहीं जीत पाया लेकिन उसने अकाली दल की हार में अपनी भूमिका जरूर निभाई।
2002 में अमरिंदर सिंह ने छेड़ी थी मुहिम
2002 में जैसे ही भ्रष्टाचार को लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सत्ता में आते ही प्रकाश सिंह बादल और उनके मंत्रियों के खिलाफ मुहिम छेड़ी तो गुरचरण सिंह टोहरा एक बार फिर से सारे मतभेद भुलाते हुए प्रकाश सिंह बादल की मदद को आगे आ गए।
अकाली दल ने 10 साल किया राज
साल 2007 में अकाली दल फिर सत्ता में आ गया और दस साल तक राज करता रहा। लेकिन 2015 में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के मुद्दे को लेकर पंथक गुट आपस में बंट गए। 2017 में अकाली दल की बुरी तरह से हार हुई।
सुखदेव सिंह ढींडसा और रंजीत सिंह ब्रह्मपुरा सरीखे दिग्गज नेताओं ने सुखबीर बादल की प्रधानगी में काम करने से मना करते हुए अपना अपना दल बना लिया। लेकिन ये भी कामयाब नहीं हो सके और अकाली दल में वापसी कर गए। अब जब एक बार फिर से संसदीय चुनाव में शिरोमणि अकाली दल की बुरी तरह से हार हुई है उसमें फिर बागी सुरें उठने लगी हैं।
असल में यह लड़ाई भाजपा के साथ जाने या न जाने को लेकर है। इस समय बागी धड़े में जो भी नेता हैं उनमें से ज्यादातर वे हैं जो चाहते हैं कि शिरोमणि अकाली दल को भाजपा के साथ समझौता करना चाहिए। प्रो प्रेम सिंह चंदूमाजरा, सिकंदर सिंह मलूका आदि ऐसे ही नेताओं में शामिल हैं। लेकिन एक धड़ा ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता। इसलिए वह सुखबीर बादल के साथ है।