Emergency In India आपातकाल लगने के 49 साल बाद भी लोगों के जख्म हरे हैं। आज भी इमरजेंसी को याद कर उनका जख्म छलक जाता है। फाजिल्का के रिटायर्ड शिक्षक प्रेम फूटेला ने उन दिनों को याद करके हुए आपातकाल की कहानी को साझा किया है। उन्होंने बताया कि उन्हें इमरजेंसी के खिलाफ सत्याग्रह करने के दौरान गिरफ्तार किया गया था।
मोहित गिल्होत्रा, फाजिल्का। भारतीय इतिहास में 25 जून 1975 की वह तारीख, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। हम इसके काले अध्याय की काली कहानियों को याद कर रहे हैं और हमारी आने वाली पीढ़ी इन्हीं कहानियों को इतिहास के रूप में पढ़ेंगी।
आज यानि 25 जून को आपातकाल को 49 वर्ष पूरे हो गए हैं, लेकिन आज भी इसके जख्म उन दिलों में ताजा हैं, जिन्होंने इन जख्मों को अपने शरीर पर झेला। इनमें से ही एक हैं रिटायर्ड अध्यापक प्रेम फूटेला। तब उनकी आयु महज 18 वर्ष की थी, लेकिन जज्बा बहादुरों जैसा और देश के लिए मर मिटने वाला था।
आपातकाल की घोषणा के 151 दिनों बाद अपने चार अन्य साथियों सहित सत्याग्रह करने पर गिरफ्तारी हुई और आठ दिनों के पुलिस रिमांड पर वो जख्म झेले जिन्हें याद कर उनका दर्द छलक उठता है।
18 साल की उम्र में हुए थे गिरफ्तार
आपातकाल का जख्म झेलने वाले रिटायर्ड अध्यापक प्रेम कुमार फुटेला ने दैनिक जागरण को बताया कि शुरू से ही जनसंघ के साथ जुड़ने के चलते मन में देश भक्ति का जज्बा कायम था, लेकिन 25 जून 1975 की वह तारीख आई, जिसने देश में रह रहे लोगों ने उनकी आजादी छीन ली।
उस दौरान उनकी आयु 18 वर्ष की थी और उनके साथ साथ जनक झांब, राजकुमार जैन, सुभाष फुटेला व महेश गुप्ता उस समय आरएसएस व जनसंघ के सक्रिय कार्यकर्ता थे। जैसे ही आपातकाल की घोषणा हुई तो देश में अफरातफरी मच गई।
देश के बड़े बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। जो भी व्यक्ति सरकार के विरूद्ध बोलने का प्रयास करता, उसको कई यातनाएं झेलनी पड़ती थी।
इमरजेंसी के खिलाफ की थी नारेबाजी
इस दौरान वह अपने साथियों सहित भूमिगत हो गए। तब प्रेस को सेंसर कर तथा किसी भी समाचार पत्र या पत्रिका को सरकार के विरुद्ध लिखने की आजादी छीन ली गई थी। जिस पर उन्होंने अपने साथियों सहित भूमिगत होकर पोस्टरों के जरिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास जारी रहा।
आखिरकार 14 नवंबर 1975 को संघ द्वारा मिले निर्देश पर उन्होंने सत्याग्रह करने का फैसला लिया। हालांकि तब प्रशासन ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि फाजिल्का में परिंदा भी सरकार के खिलाफ पर नहीं मार सकता, लेकिन बावजूद इसके सभी पांचों साथियों ने खुद ही अपने गले में हार डालते हुए प्रताप बाग तक नारेबाजी की, जिससे प्रशासन बौखला गया।जब वह घास मंडी, बजाजी बाजार और चौक घटाघर से होते हुए जब वे प्रताप बाग के पास पहुचे तो पुलिस ने घेरा डालकर लाठिया बरसानी शुरू कर दी और पकड़ कर पुलिस स्टेशन ले गई।
निर्वस्त्र करके दी जाती थी प्रताड़ना
प्रेम फुटेला के अनुसार उन्हें ऐसी यातनाएं दी गई जो शायद किसी खूंखार आतंकवादी को भी नहीं दी गई। उसको व उसके साथियों को बारी बारी पकड़कर पहले जमीन पर उल्टा लिटाकर एक पुलिस वाला गर्दन पकड़ लेता था दूसरा पाव तीसरा कमर और एक पुलिस वाला जोर जोर से हटर लगाता था।सारी प्रताड़ना निर्वस्त्र करके दी जाती थी। यह क्रम निरतर पांच दिन सुबह, दोपहर व रात्रि को चलता रहता था। हालात यह थे कि खाने की बजाए वह मारपीट करते थे। उनके पारिवारिक सदस्यों का कहना है कि वह यातना इतनी कठोर थी कि आज भी जब उनके शरीर के कुछ भागों में दर्द होता है तो वह रात रात भर सो नहीं पाते।
बम फैक्ट्री की बात कहकर और रिमांड का प्रयास
जब उन्हें न्यायालय में पेश किया गया, तो उनको पांच दिनों के पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया। जबकि पांच दिन पूरे होने के बाद तीन दिनों का ओर पुलिस रिमांड हासिल किया। जिसके बाद पुलिस ने ओर रिमांड हासिल करने के लिए कहा कि बम व बारूद बनाने की फैक्ट्री बरामद करने के लिए और रिमांड चाहिए।अदालत ने और रिमांड नहीं दिया और उनको सेंटर जेल भेज दिया गया। इस दौरान जेल में कई ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने सरकार का विरोध किया और उन्हें जेल में सजा काटनी पड़ी।
अत्याचार के बाद भी नहीं डगमगाया हौसला
प्रेम फुटेला ने बताया कि 14 नवंबर 1975 को गिरफ्तारी के बाद वह अगले वर्ष मई 1996 को जमानत पर जेल से बाहर आए और उन्हें कई महीनों बाद परिवार का चेहरा देखने का मौका मिला। जमानत से पहले पुलिस ने कई हथकंडे अपनाए कि तुम माफी मांग लो, तुम्हारे साथियों ने माफी मांग ली है, जिसके बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा।अत्याचार के बावजूद उनका हौंसला नहीं डगमगाया और न ही आत्मविश्वास। जेल काटकर लौटे तो उनके परिवारों की आर्थिक दशा जोकि पहले से ही बहुत खराब थी और भी बिगड़ गई। जिस कारण उनके साथ साथ परिवारों को भी भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा।
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हथकड़ियों में पेपर देने जाते थे कॉलेज
मुझे आज भी याद है कि जब में जेल में था तब में बीए भाग तीसरे की तैयारी कर रहा था, लेकिन जेल में होने के चलते सही से तैयारी नहीं हो पा रही थी, बावजूद इसके हथकड़ियों में कालेज में पहुंचे और हथड़ियां बाहर रख पेपर देने के लिए जाते थे। पिता जी का कपड़े का व्यापार था, जोकि हालात के साथ कम हो गया।
ऐसे में कड़ी मेहनत करके शिक्षा के दम पर वह अध्यापक के रूप में कार्य करते रहे और मेहनत के दम पर परिवार को फिर से खड़ा किया। आज भी उनमें देश भक्ति का वैसा ही जज्बा है, जोकि 1975 में था। उनके साथी जनक झांब भले ही इस संसार को छोड़कर चले गए हैं, लेकिन अन्य साथियों के साथ आज भी बातचीत होती रहती है।
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