Bhagat Singh Birth Anniversary: दो बार जलाई गई बलिदानी भगत सिंह की चिता, शव अधजला छोड़ भाग गए थे अंग्रेज
बलिदानी भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के लिए 24 मार्च 1931 का दिन निश्चित किया गया था। भगत सिंह को लेकर जनता की तीखी प्रतिक्रिया की आशंका से अंग्रेज डर गए। उन्होंने एक दिन पहले ही 23 मार्च को तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी।
By Pankaj DwivediEdited By: Updated: Wed, 28 Sep 2022 02:31 PM (IST)
आनलाइन डेस्क, जालंधर। बलिदानी भगत सिंह का जीवन आज भारत के युवाओं के लिए बड़ा प्रेरणास्रोत है। इतनी कम आयु में उनके आधुनिक विचारों की इतिहासकार आज व्याख्या करते हैं। हालांकि उनको फांसी दिए जाने और उनके अंतिम संस्कार से जुड़ी कई बातें की जानकारी आज भी आम लोगों को नहीं है।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि बलिदानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की चिता दो बार जलाई गई थी। एक बार हुसैनीवाला में सतलुज के किनारे तो दूसरी बार लाहौर में रावी नदी के तट पर। आइए, जानते हैं इसके पीछे की क्रूर कहानी। ये जानकारी बलिदानी भगत सिंह पर कई किताबें लिखने वाले प्रो. चमन लाल ने दी है।
दरअसल, आजादी के मतवालों को फांसी देना अंग्रेजों के लिए आसान नहीं था। लाहौर जेल में बंद बलिदानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी देने के लिए 24 मार्च, 1931 का दिन निश्चित किया गया था। भगत सिंह को लेकर जनता की तीखी प्रतिक्रिया की आशंका से अंग्रेज डर गए। उन्होंने एक दिन पहले ही 23 मार्च को तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी।
क्रूर अंग्रेजों ने किए बलिदानियों के शवों के टुकड़े
इसके बाद अंग्रेजों ने अमानवीयता की सभी हदें पार कर दी। उन्होंने क्रांतिकारियों के शवों के कई टुकड़े किए और रात के अंधेरे में उन्हें वाहन में लादकर जेल से निकले। रास्ते में उन्होंने कुछ लकड़ियां और मिट्टी का तेल भी खरीदा। वह कुछ दूरी पर स्थित सतलुज नदी के किनारे हुसैनीवाला पहुंचे। उन्होंने आननफानन में बलिदानी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों की चिता बनाई और आग लगा दी।
बहन अमर कौर हजारों लोगों के साथ पहुंची हुसैनीवाला
इसकी भनक लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी और भगत सिंह की बहन अमर कौर को लग गई। वे दोनों हजारों लोगों के साथ सतलुज के किनारे हुसैनीवाला पहुंच गईं। भीड़ को देखकर अंग्रेज शवों को अधजली स्थित में छोड़कर भाग गए।दोबारा रावी नदी के किनारे किया गया अंतिम संस्कारप्रो. चमनलाल के अनुसार अंग्रेजों के जाने के बाद तीनों क्रांतिकारियों के अधजले अंगों को बाहर निकाला गया और फिर लाहौर ले जाकर रावी नदी के किनारे दोबारा अंतिम संस्कार किया गया। इससे पहले उनकी अर्थी निकाली गई, जिसमें हजारों लोग शामिल हुए। रावी नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार उसी स्थान पर किया गया, जहां पर लाला लाजपत राय का किया गया था।
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