कव्वालों के साथ सुर मिलाते-मिलाते शहंशाह-ए-तरन्नुम बन गए फीको, यूं गुजरा मोहम्मद रफी का बचपन
सुरों के बादशाह मोहम्मद रफी साहब के पैतृक गांव कोटला सुल्तान सिंह में भले ही उनसे जुड़ी निशानियां न बची हों लेकिन यहां का जर्रा-जर्रा आज भी कहता है- हम तुम्हें यूं भुला न पाएंगे... आइए जानते हैं रफी के संघर्ष के बारे में...
By Kamlesh BhattEdited By: Updated: Sat, 25 Dec 2021 09:55 AM (IST)
नितिन धीमान, अमृतसर। अमृतसर के छोटे से गांव कोटला सुल्तान सिंह और यहां से करीब 67 किलोमीटर दूर पाकिस्तान के शहर लाहौर के बीच एक अजीब रिश्ता है। यह रिश्ता कायम हुआ हिंदी सिनेमा में शहंशाह-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर पार्श्व गायक मोहम्मद रफी की बदौलत। 24 दिसंबर, 1924 को इस गांव में हाजी अली मोहम्मद के घर बेटे का जन्म हुआ। नाम रखा गया रफी, जिसका मतलब है उत्तम, विनम्र और उच्च। ये तीनों गुण बाद में रफी के जीवन का आईना बन गए। मोहम्मद रफी को परिवार के लोग प्यार से फीको बुलाते थे। उनके पिता इसी गांव में घर-घर जाकर लोगों की हजामत बनाया करते थे।
गांव में रहने वाले 80 वर्षीय मास्टर हरदीप सिंह बताते हैं कि मेरे पिता सरदार मूला सिंह और मोहम्मद रफी साथ-साथ खेला करते थे। रफी गांव में घूम-घूम कर गाने वाले एक फकीर की नकल किया करते थे। यहीं ये उन्हें गायकी का शौक पैदा हुआ। देश के विभाजन से पहले इस गांव में मुस्लिम आबादी ज्यादा थी। कव्वालों के कुछ परिवार भी यहां रहा करते थे। रोज शाम को गांव के पीपल के नीचे महफिल सजा करती। फीको भी वहां पहुंच जाते और कव्वालों के साथ सुर-ताल मिलाने लगते। तब उनकी उम्र मुश्किल से सात-आठ साल रही होगी। धीरे-धीरे वे कव्वालों की टोली में शामिल हो गए। मास्टर हरदीप सिंह मानते हैं कि संभव है कि रफी के ऊंचे स्वर में गाने की प्रैक्टिस यहीं से शुरू हो गई थी।
श्री दशमेश सीनियर सेकेडरी पब्लिक स्कूल के ग्राउंड में लगा मोहम्मद रफी का बुत। साथ हैं 33 वर्षीय गुरसेवक सिंह, जिनके दादा सुलक्खण सिंह रफी के सहपाठी थे। -जागरणरफी के पिता हजामत के अलावा मुस्लिम समुदाय के विभिन्न आयोजनों में खाना भी पकाते थे। उनके हाथों में इतना हुनर था कि एक ही देग (खाना पकाने वाला तांबे का बड़ा बर्तन) में सात रंगों के चावल पका लेते थे। परिवार बड़ा था, इसलिए गांव में गुजारा करना मुश्किल हो रहा था। मास्टर हरदीप सिंह के अनुसार, 'मेरे पिता सरदार मूला सिंह बताते थे कि रफी के पिता हाजी अली काफी तंगहाली में थे। छह बच्चों के परिवार का पालन-पोषण मुश्किल हो रहा था, इसलिए रोजगार की तलाश में पूरा परिवार 1935 में लाहौर चला गया। तब रफी 11 साल के थे। वहां उनके पिता ने हज्जाम की दुकान शुरू की।
पिता को नहीं था संगीत से लगावमोहम्मद रफी के पिता का संगीत से कोई लगाव नहीं था। रफी ने अपने एक लेख में इस बात का जिक्र भी किया है। उन्होंने लिखा है, 'मेरा घराना मजहबपरस्त था। गाना-बजाना अच्छा नहींं समझा जाता था। पिता हाजी अली मोहम्मद साहिब धार्मिक प्रवृत्ति के थे। मैंने सात साल की आयु में गाना शुरू कर दिया था। ये सब पिताजी से छिपकर किया करता था। गायकी का शौक एक फकीर से मिला।'
रफी के पुराने मकान के बारे में जानकारी देते 80 वर्षीय मास्टर हरदीप सिंह, जिनके परिवार ने रफी का पुराना मकान खरीदा था। -जागरण
13 साल की आयु में पहली परफार्मेंसबड़े भाई मोहम्मद हमीद ने रफी के शौक को देखते हुए उन्हेंं संगीत की शिक्षा दिलाई। पाकिस्तान में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी और गुलाम अली खान जैसे दिग्गजों से उन्होंने संगीत की बारीकियां सीखीं। 13 साल की आयु में उन्होंने लाहौर में एक मंच पर परफॉर्म किया। उन्होंने प्रसिद्ध गायक केएल सहगल का गाना गाया, जिसे खूब पसंद किया गया। रफी ने पहला फिल्मी गीत 1941 में 17 साल की आयु में पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' के लिए गाया। इसके बाद 1944 में वे मुुंबई आ गए। यहां संगीतकार नौशाद की संगत में रफी ने हिंदी सिनेमा में कदम रखा। 1945 में उन्होंने पहली बार हिंदी फिल्म 'गांव की गोरी' में अपनी आवाज दी। फीको ने कोटला सुल्तान सिंह से लाहौर होते हुए मुंबई तक सुरों की ऐसी अविरल सरिता बहाई, जिसने सिनेमा जगत और करोड़ों संगीत प्रेमियों को तृप्त कर दिया। मिट्टी व लकड़ी के तख्तों का था घर80 वर्षीय मास्टर हरदीप सिंह कहते हैं, 'मेरे पिता सरदार मूला सिंह बताते थे कि रफी का परिवार हमारे घर के साथ ही रहा करता था। दो कमरों का उनका मकान मिट्टी व लकड़ी के तख्तों से बना था। करीब 125 वर्ग गज में बना यह मकान काफी खस्ताहाल था। 1935 में जब उनका परिवार लाहौर गया तो मकान मेरे दादा सरदार लक्ष्मण सिंह ने खरीदा था। कितने में खरीदा था, यह अब याद नहीं है। घर के आगे छोटा सा आंगन भी हुआ था, जो अब भी है, लेकिन घर पूरी तरह उखाड़ कर दोबारा बनाया गया है।' गांव के स्कूल में की चौथी कक्षा तक पढ़ाईमोहम्मद रफी ने गांव के प्राइमरी स्कूल में चौथी तक शिक्षा ग्रहण की थी। स्कूल में उनकी एक आधा पुरानी तस्वीर के अलावा और कोई निशानी मौजूद नहीं है। उनकी पुण्यतिथि या जन्मतिथि पर छोटा-मोटा कार्यक्रम जरूर हो जाता है। कोटला सुल्तान सिंह के 33 वर्षीय गुरसेवक सिंह के अनुसार उनके दादाजी सुलक्खण सिंह बताते थे कि रफी बचपन में बहुत शरारती थे। गांव के बच्चे पुराने टायरों को डंडों से धकेलते हुए खेलते थे, तो रफी उनके टायर उठा ले जाते थे। मवेशियों को चराने के दौरान रफी घंटों नीम के पेड़ पर चढ़कर शरारतें किया करते थे। उनके यहां से जाने के कुछ वर्षों बाद रेडियो पर उनकी आवाज सुनकर पूरा गांव हतप्रभ रह गया था। कभी गांव नहीं लौट सके, आखिरी बार 1973 में आए थे अमृतसरमास्टर हरदीप सिंह बताते हैं, '1973 में मोहम्मद रफी अमृतसर के पैंथर स्टेडियम में एक कार्यक्रम में आए थे। उनके सहपाठियों को जब पता चला तो वे पैंथर स्टेडियम पहुंचे। मैं भी गांववासियों के साथ गया था। रफी से मिलकर सभी बेहद खुद हुए। लोगों ने उन्हेंं गांव चलने को कहा, लेकिन रफी ने कहा कि वक्त कम है। अटारी बार्डर पर रिश्तेदार इंतजार कर रहे हैं। उनसे मिलने जाना है।' एक बार कोटला सुल्तान से पाकिस्तान जाने के बाद रफी फिर कभी यहां लौटकर नहीं आए। रफी की पहली शादी 13 साल की आयु में बशीर बानो से हुई थी, जबकि दूसरी शादी उन्होंने 1944 में बीस साल की आयु में बिलकिस से की। गांव में लगा बुत ही एकमात्र पहचानरफी के सभी सहपाठी दुनिया से रुख्सत हो चुके हैं। गांव के कुछ ही लोग उनके बारे में बता पाते हैं। वह भी उतना ही जो उन्होंने अपने बुजुर्गों से सुन रखा है। युवा पीढ़ी रफी साहब के बारे में तो जानती है, लेकिन अपने ही गांव से उनके कनेक्शन के बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है। रफी के पुराने घर से करीब 500 मीटर दूर श्री दशमेश सीनियर सेकेडरी पब्लिक स्कूल के ग्राउंड में लगा उनका बुत ही उनकी एक मात्र पहचान है, जो अब उन्हें इस गांव से जोड़ती है। 24 दिसंबर, 2011 को पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया ने इसका अनावरण किया था। भले ही इस गांव में रफी साहब की निशानियां न बची हों, लेकिन यहां का जर्रा-जर्रा मानो आज भी कहता हो- 'हम तुम्हें यूं भुला न पाएंगे..।'
आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।13 साल की आयु में पहली परफार्मेंसबड़े भाई मोहम्मद हमीद ने रफी के शौक को देखते हुए उन्हेंं संगीत की शिक्षा दिलाई। पाकिस्तान में उस्ताद अब्दुल वाहिद खान, पंडित जीवन लाल मट्टू, फिरोज निजामी और गुलाम अली खान जैसे दिग्गजों से उन्होंने संगीत की बारीकियां सीखीं। 13 साल की आयु में उन्होंने लाहौर में एक मंच पर परफॉर्म किया। उन्होंने प्रसिद्ध गायक केएल सहगल का गाना गाया, जिसे खूब पसंद किया गया। रफी ने पहला फिल्मी गीत 1941 में 17 साल की आयु में पंजाबी फिल्म 'गुल बलोच' के लिए गाया। इसके बाद 1944 में वे मुुंबई आ गए। यहां संगीतकार नौशाद की संगत में रफी ने हिंदी सिनेमा में कदम रखा। 1945 में उन्होंने पहली बार हिंदी फिल्म 'गांव की गोरी' में अपनी आवाज दी। फीको ने कोटला सुल्तान सिंह से लाहौर होते हुए मुंबई तक सुरों की ऐसी अविरल सरिता बहाई, जिसने सिनेमा जगत और करोड़ों संगीत प्रेमियों को तृप्त कर दिया। मिट्टी व लकड़ी के तख्तों का था घर80 वर्षीय मास्टर हरदीप सिंह कहते हैं, 'मेरे पिता सरदार मूला सिंह बताते थे कि रफी का परिवार हमारे घर के साथ ही रहा करता था। दो कमरों का उनका मकान मिट्टी व लकड़ी के तख्तों से बना था। करीब 125 वर्ग गज में बना यह मकान काफी खस्ताहाल था। 1935 में जब उनका परिवार लाहौर गया तो मकान मेरे दादा सरदार लक्ष्मण सिंह ने खरीदा था। कितने में खरीदा था, यह अब याद नहीं है। घर के आगे छोटा सा आंगन भी हुआ था, जो अब भी है, लेकिन घर पूरी तरह उखाड़ कर दोबारा बनाया गया है।' गांव के स्कूल में की चौथी कक्षा तक पढ़ाईमोहम्मद रफी ने गांव के प्राइमरी स्कूल में चौथी तक शिक्षा ग्रहण की थी। स्कूल में उनकी एक आधा पुरानी तस्वीर के अलावा और कोई निशानी मौजूद नहीं है। उनकी पुण्यतिथि या जन्मतिथि पर छोटा-मोटा कार्यक्रम जरूर हो जाता है। कोटला सुल्तान सिंह के 33 वर्षीय गुरसेवक सिंह के अनुसार उनके दादाजी सुलक्खण सिंह बताते थे कि रफी बचपन में बहुत शरारती थे। गांव के बच्चे पुराने टायरों को डंडों से धकेलते हुए खेलते थे, तो रफी उनके टायर उठा ले जाते थे। मवेशियों को चराने के दौरान रफी घंटों नीम के पेड़ पर चढ़कर शरारतें किया करते थे। उनके यहां से जाने के कुछ वर्षों बाद रेडियो पर उनकी आवाज सुनकर पूरा गांव हतप्रभ रह गया था। कभी गांव नहीं लौट सके, आखिरी बार 1973 में आए थे अमृतसरमास्टर हरदीप सिंह बताते हैं, '1973 में मोहम्मद रफी अमृतसर के पैंथर स्टेडियम में एक कार्यक्रम में आए थे। उनके सहपाठियों को जब पता चला तो वे पैंथर स्टेडियम पहुंचे। मैं भी गांववासियों के साथ गया था। रफी से मिलकर सभी बेहद खुद हुए। लोगों ने उन्हेंं गांव चलने को कहा, लेकिन रफी ने कहा कि वक्त कम है। अटारी बार्डर पर रिश्तेदार इंतजार कर रहे हैं। उनसे मिलने जाना है।' एक बार कोटला सुल्तान से पाकिस्तान जाने के बाद रफी फिर कभी यहां लौटकर नहीं आए। रफी की पहली शादी 13 साल की आयु में बशीर बानो से हुई थी, जबकि दूसरी शादी उन्होंने 1944 में बीस साल की आयु में बिलकिस से की। गांव में लगा बुत ही एकमात्र पहचानरफी के सभी सहपाठी दुनिया से रुख्सत हो चुके हैं। गांव के कुछ ही लोग उनके बारे में बता पाते हैं। वह भी उतना ही जो उन्होंने अपने बुजुर्गों से सुन रखा है। युवा पीढ़ी रफी साहब के बारे में तो जानती है, लेकिन अपने ही गांव से उनके कनेक्शन के बारे में उन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है। रफी के पुराने घर से करीब 500 मीटर दूर श्री दशमेश सीनियर सेकेडरी पब्लिक स्कूल के ग्राउंड में लगा उनका बुत ही उनकी एक मात्र पहचान है, जो अब उन्हें इस गांव से जोड़ती है। 24 दिसंबर, 2011 को पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया ने इसका अनावरण किया था। भले ही इस गांव में रफी साहब की निशानियां न बची हों, लेकिन यहां का जर्रा-जर्रा मानो आज भी कहता हो- 'हम तुम्हें यूं भुला न पाएंगे..।'