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40 मुक्तों की पवित्र धरती श्री मुक्तसर साहिब, जहां लगता है माघी का मेला

माघ माह के पहले दिन श्री हरिमंदिर साहिब का स्थापना दिवस है और साथ ही श्री मुक्तसर साहिब में चालीस मुक्तों की याद में माघी का मेला लगता है।

By Kamlesh BhattEdited By: Updated: Sun, 13 Jan 2019 09:03 PM (IST)
40 मुक्तों की पवित्र धरती श्री मुक्तसर साहिब, जहां लगता है माघी का मेला
श्री मुक्तसर साहिब [सरबजीत सिंह]। माघ माह के पहले दिन सिख इतिहास के दो महत्वपूर्ण प्रसंग जुड़े हैं। एक तो यह श्री हरिमंदिर साहिब का स्थापना दिवस है और साथ ही श्री मुक्तसर साहिब में चालीस मुक्तों की याद में माघी का मेला लगता है। श्रद्धालु यहां पवित्र सरोवर में माघी स्नान कर मुक्तों को नमन करते हैं।

कालांतर में श्री मुक्तसर साहिब को खिदराणा के नाम से जाना जाता था। यह क्षेत्र जंगली होने के कारण यहां अक्सर पानी की कमी रहती थी। भूमिगत जलस्तर बहुत नीचा होने के चलते यदि कोई प्रयत्न करके कुंए आदि लगाने का प्रयास भी करता तो नीचे से पानी ही इतना खारा निकलता कि वह पीने के योग्य न होता। इसलिए यहां एक ढाब (कच्चा तालाब) खुदवाई गई जिसमें बरसात का पानी जमा किया जाता था व इस ढाब के मालिक का नाम खिदराणा था, जो फिरोज़पुर जिले के जलालाबाद का निवासी था, जिस कारण इसका नाम ‘खिदराणे की ढाब’ मशहूर था।

इस स्थान पर दशम पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल हुकूमत के विरुद्ध 1705 में अपना अंतिम युद्ध लड़ा, जिसे खिदराणे की जंग भी कहा जाता है। यह युद्ध 21 वैसाख 1762 विक्रमी संवत् को हुआ। चमकौर के युद्ध के बाद अनेक स्थानों से होते हुए गुरु जी यहां पहुंचे थे। सरहिंद के सूबेदार वजीर खान की फौज गुरु जी का पीछा कर रही थी। ऐसे में वे चालीस सिख जो आनंदपुर साहिब में गुरु जी को बेदावा (त्यागपत्र) देकर छोड़ आए थे।

माई भागो के नेतृत्व में खिदराणे की ढाब में आ डटे। मुगल लश्कर को घमासान युद्ध के बाद वापस लौटना पड़ा। सभी चालीस सिख शहीद हो गए। उनमें से एक भाई महां सिंह ने शहीद होते समय गुरु जी से बेदावा फाड़ देने की प्रार्थना की। गुरु दशमेश पिता ने सभी सिखों का अंतिम संस्कार स्वयं किया और उन्हें ‘मुक्ते’ की उपाधि बख्शी, इसलिए इन्हें चालीस मुक्ते कहा जाता है। मुक्तों और ढाब के कारण इस सरोवर का नाम ‘मुक्तसर’ पड़ा।

श्री अखंड पाठ

गुरुद्वारा श्री मुक्तसर साहिब के मैनेजर बलदेव सिंह के अनुसार मुक्तसर में 14 जनवरी को मकर संक्रांति यानी माघी पर लगने वाले मेले का खास महत्व है। पुराने समय में यह मेला 21 वैसाख को मनाया जाता था, लेकिन उस दौरान पानी की कमी होती है, इसी कारण इसे सर्दी में मनाया जाने लगा। अब लंबे समय से इसे 14 जनवरी (पहली माघ) को ही मनाया जाता है। इसी कारण इसका नाम ही ‘माघी मेला’ पड़ गया है।

इस दिन श्री दरबार साहिब में तमाम धार्मिक समागम होते हैं। इनमें 12 जनवरी से श्री अखंड पाठ साहिब का प्रकाश करवाया जाता है। 13 जनवरी को दीवान सजाए जाते हैं और माघी वाले दिन 14 जनवरी को श्री अखंड पाठ साहिब का भोग डाला जाता है। अगले दिन 15 जनवरी को नगर कीर्तन सजाने के साथ ही मेला की रवाइती तौर पर समाप्ति हो जाती है। दूरदराज से लाखों लोग यहां पर पूरी श्रद्धा से आते हैं और श्री दरबार साहिब में नतमस्तक होते हैं।

श्री हरिमंदिर साहिब की स्थापना का पर्व भी है माघी

तीसरे पातशाह श्री गुरु अमरदास जी की इच्छा एवं आज्ञा के अनुसार चौथे पातशाह श्री गुरु रामदास जी ने सन 1573 ई में अमृतसर के सरोवर को पक्का करवाया और इसे ‘राम सर’, ‘रामदास सर’ या ‘अमृतसर’ पुकारा। पंचम पातशाह की अभिलाषा थी कि अमृत सरोवर के मध्य में अकालपुरख के निवास सचखंड के प्रतिरूप के रूप में एक मंदिर की स्थापना की जाए। सिख-परंपरा के अनुसार एक माघ संवत् 1645 वि. मुताबिक सन् 1589 ई को निर्माण कार्य शुरू करवाया गया और पंचम पातशाह के परम मित्र साई मीआं मीर ने इसकी नींव रखी।

निर्माण कार्य संवत् 1661 वि. अर्थात 1604 ई. में संपूर्ण हुआ। पंचम पातशाह ने इसे ‘हरिमंदिर’ अर्थात हरि का मंदिर कहा। एक सितंबर 1604 ई. को यहां गुरु ग्रंथ साहिब का प्रथम प्रकाश किया गया। यहां साध-संगत गोबिंद के गुण गाती है और पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करती है।

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