ये है विष्णु के नृसिंह रूप का प्रसिद्ध सिंहाचलम मंदिर
विशाखापट्टनम में भगवान विष्णु के नृसिंह रूप की पूजा के लिए एक प्रमुख मंदिर है। ये मंदिर सिंहाचलम मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
By Molly SethEdited By: Updated: Thu, 08 Mar 2018 10:45 AM (IST)
नृसिंह रूप का मंदिर
सिंहाचलम मंदिर इस में क्षेत्र ग्यारहवीं शताब्दी में बने विश्व के गिने-चुने प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। सिंहाचल शब्द का अर्थ है सिंह का पर्वत। यह पर्वत भगवान विष्णु के चौथे अवतार नृसिंह का निवास स्थान माना जाता है। माना जाता है कि इसी स्थान पर भगवान नृसिंह अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए अवतरित हुए थे।प्रहलाद ने बनवाया मंदिर
स्थल पुराण के अनुसार भक्त प्रहलाद ने ही इस स्थान पर नृसिंह भगवान का पहला मंदिर बनवाया था। कहते हैं प्रहलाद ने यह मंदिर नृसिंह द्वारा उनके पिता के संहार के पश्चात बनवाया था। परंतु कृतयुग के बाद इस मंदिर का रखरखाव नहीं हो सका और यह मंदिर नष्ट हो गया। इसके बाद में लुनार वंश के पुरुरवा ने एक बार फिर इस मंदिर की खोज की और इसका पुनर्निर्माण करवाया। एक कथा के अनुसार ऋषि पुरुरवा एक बार अपनी पत्नी उर्वशी के साथ वायु मार्ग से भ्रमण कर रहे थे। यात्रा के दौरान उनका विमान किसी नैसर्गिक शक्ति से प्रभावित होकर दक्षिण के सिंहाचल क्षेत्र में जा पहुँचा। उन्होंने देखा कि प्रभु की प्रतिमा धरती के गर्भ में समाहित है। उन्होंने इस प्रतिमा को निकाला और उस पर जमी धूल साफ की। इस दौरान एक आकाशवाणी हुई कि इस प्रतिमा को साफ करने के बजाय इसे चंदन के लेप से ढंककर रखा जाए।
साल में केवल एक बार हटता है लेपइस आकाशवाणी में ही पुरुरवा को यह भी आदेश मिला कि इस प्रतिमा के शरीर से साल में केवल एक बार, वैशाख माह के तीसरे दिन चंदन का यह लेप हटाया जाएगा और वास्तविक प्रतिमा के दर्शन प्राप्त हो सकेंगे। आकाशवाणी का अनुसरण करते हुए इस प्रतिमा पर चंदन का लेप किया गया और साल में केवल एक बार ही इस प्रतिमा से लेप हटाया जाता है। तब से श्री लक्ष्मीनृसिंह स्वामी भगवान की प्रतिमा को सिंहाचल में ही स्थापित कर दिया गया। आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम में स्थित यह मंदिर विश्व के प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है जिसका निर्माण पूर्वी गंगायो में तेरहवीं शताब्दी में करवाया गया था।
शनिवार, रविवार को होती है भीड़मंदिर पहुंचने का मार्ग अनन्नास, आम आदि फलों के पेड़ों से सजा हुआ है। मार्ग में राहगीरों के विश्राम के लिए हजारों की संख्या में बड़े पत्थर इन पेड़ों की छाया में स्थापित हैं। मंदिर तक चढ़ने के लिए सीढ़ी का मार्ग है, जिसमें बीच-बीच में तोरण बने हुए हैं। शनिवार और रविवार के दिन इस मंदिर में हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। साथ ही यहां दर्शन करने के लिए सबसे उपयुक्त समय अप्रैल से जून तक का होता है। यहां पर मनाए जाने वाले मुख्य पर्व हैं वार्षिक कल्याणम (चैत्र शुद्ध एकादशी) और चंदन यात्रा (वैशाख माह का तीसरा दिन)।