Sanwalia Seth Temple: भगवान श्रीकृष्ण को क्यों कहा जाता है सांवलिया सेठ? इस राज्य में है भव्य मंदिर
भगवान श्रीकृष्ण (Sanwalia Seth Temple) की लीला अपरंपार है। अपने भक्तों की विशेष परीक्षा लेते हैं। एक बार परीक्षा में पास होने के बाद साधक यानी भक्त का उद्धार हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की माया इतनी प्रबल और प्रचंड है कि कोई व्यक्ति माया को जीत नहीं सकता है। हालांकि श्रीकृष्ण के शरणागत रहने वाले साधक की हर इच्छा पूरी होती है।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Wed, 17 Jul 2024 09:02 PM (IST)
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Sanwaliya Seth Temple: सनातन धर्म में बुधवार का दिन भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित होता है। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण एवं राधा रानी की पूजा की जाती है। भगवान श्रीकृष्ण (Lord Shri Krishna) की महिमा अपरंपार है। अपने भक्तों के सभी दुख हर लेते हैं। साथ ही साधकों का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जगत के पालनहार भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गीता ज्ञान के दौरान अपने परम भक्त अर्जुन से कहते हैं- पार्थ! जो भी व्यक्ति सच्चे मन से मेरी शरण में आता है। मैं उसके सभी दुखों का अंत और पापों का नाश करता हूं। साथ ही भक्त की हर मनोकामना अवश्य ही पूरी करता हूं। मुरली मनोहर कृष्ण कन्हैया के शरणागत रहने वाले भक्तों को मृत्यु उपरांत बैकुंठ धाम में उच्च स्थान प्राप्त होता है। अतः साधक श्रद्धा भाव से भगवान श्रीकृष्ण की पूजा-उपासना करते हैं। साथ ही पूजा के समय 'हरे कृष्णा हरे राम' मंत्र का जप करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के कई नाम हैं। इनमें एक नाम सांवलिया सेठ है। क्या आपको पता है कि भगवान श्रीकृष्ण को सांवलिया सेठ क्यों कहा जाता है ? आइए, इसकी कथा और देश में स्थित सांवलिया सेठ मंदिर के बारे में जानते हैं-
कथा
भगवान श्रीकृष्ण के परम मित्र सुदामा जी निर्धन थे। तत्कालीन समय में यह विधान था कि ब्राह्मण केवल और केवल तीन घर में भिक्षा मांग सकते थे। तीन घरों में प्राप्त भिक्षा से ही दैनिक जीवन व्यतीत करते थे। वर्तमान समय में भी सिद्ध महापुरुष साधना करने वाले साधकों को भिक्षा याचन के लिए केवल तीन घर जाने की सलाह देते हैं। सुदामा जी शिक्षा प्राप्त या ग्रहण करने के समय भगवान श्रीकृष्ण से मिले थे। उस समय दोनों के मध्य मित्रता हुई। वर्तमान समय में भी कृष्ण और सुदामा जी की मित्रता का उदाहरण दिया जाता है। कई अवसर पर सुदामा जी निर्धनता के चलते भगवान श्रीकृष्ण से मिलने उनके दरबार नहीं जा पाते थे।भगवान श्रीकृष्ण भी सुदामा जी के भाव से भली-भांति परिचित थे। अपनी लीला से सुदामा जी की परीक्षा लेते रहते थे। हालांकि, सुदामा जी की धर्मपत्नी सहायता हेतु भगवान श्रीकृष्ण के पास जाने की सलाह देती थीं, लेकिन सुदामा जी नकार देते थे। अति होने के बाद सुदामा जी हिम्मत कर भगवान श्रीकृष्ण से मिलने के लिए द्वारका पहुंचे। इस दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लीला के जरिए सुदामा जी की मदद की।
यात्रा के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने मित्र बन सुदामा जी की पूरी सहायता की। यात्रा के पहले दिन संध्याकाल में सुदामा जी को अपने परिवार की चिंता सताने लगी। उस समय भगवान कृष्ण ने अपनी लीला की। तभी एक व्यक्ति दौड़ता हुआ उधर से गुजरा। वह व्यक्ति यह कहकर जा रहा था कि पास के गांव के सांवलिया सेठ के घर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। इसके लिए दस दिनों तक महायज्ञ किया जा रहा है। साथ ही दस दिनों तक आसपास के सभी नगरों में भंडारा किया जा रहा है।
सुदामा जी व्यक्ति को रोककर कहता है कि क्या पास के गांव में भी भोजन परोसा जा रहा है। सुदामा जी के सवाल पर व्यक्ति बोलता है-हां, आपके गांव में भी भंडारा किया जा रहा है। आप भी चलो, मैं तो भोजन लेने ही जा रहा हूं। यह सुन सुदामा जी की आत्मा तृप्त हो गई। उन्हें अपने भूखे बच्चे और पत्नी की चिंता चित्त से हट गई। इसके बाद सुदामा जी, ग्वाले कृष्ण जी के साथ भोजन किया। तत्कालीन समय से ही भगवान श्रीकृष्ण को सांवलिया सेठ कहा जाता है।