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भारत की विरासत संस्कृति

भारतीय संस्कृति भारत की एक विरासत है। इसमें धर्म, अध्यात्मवाद, ललित कलाएं, ज्ञान विज्ञान की विविध विधाएं, नीति, दर्शन, विधि, विधान, जीवन प्रणालियां और वे समस्त क्रियाएं और कार्य हैं जो उसे महान बनाती है।

By Edited By: Updated: Fri, 15 Feb 2013 04:42 PM (IST)
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भारतीय संस्कृति भारत की एक विरासत है। इसमें धर्म, अध्यात्मवाद, ललित कलाएं, ज्ञान विज्ञान की विविध विधाएं, नीति, दर्शन, विधि, विधान, जीवन प्रणालियां और वे समस्त क्रियाएं और कार्य हैं जो उसे महान बनाती है। समय-समय पर इसका विविध संस्कृतियों के साथ संघर्ष, मिलन, परिवर्तन, परिवर्धन और आदान-प्रदान हुआ है। भारतीयों की अनेक भावनाओं पर शताब्दियों से समय-समय पर आती रहने वाली विविध जातियों ने बहुत पहले से ही अपना न्यूनाधिक प्रभाव डाल रखा था। परंतु इस्लाम के आ जाने पर भारतीय संस्कृति में एक हलचल सी मच गयी।

संत परंपरा की प्रतिष्ठा सर्वप्रथम ऐसे ही वातावरण में हुयी। संतों ने उस समय के प्राय: प्रत्येक आंदोलनों में सक्त्रिय भाग लिया। अपनी अटपटी बानियों द्वारा सर्वसाधारण की चेतना को जाग्रत कर भारतीय संस्कृति के विकास में अपना सहयोग दिया। संतों के पूर्व इस क्षेत्र में सिद्ध, नाथपंथी, जैन मुनि, आडवार एवं कतिपय सूफी काम करते आ रहे थे। सही अर्थो में भारत में संत परंपरा का सूत्रपात मध्य युग में हुआ। इस युग में हिन्दी प्रदेश में कबीर तुलसीदास, सूरदास, रैदास, मीरा, दादू, रज् जब, नामादास, सुन्दरदास, चरण दास, पलटूदास, प्राणनाथ, निश्चल दास आदि संत हैं। आसाम में शंकरदेव, बंगाल में महाप्रभु चैतन्य देव और जयदेव तथा मिथिला में विद्यापति प्रमुख हैं। इन संतों ने भक्ति को भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल और सबसे बड़ा साधन माना था। यह भक्ति संतों के सत्संग से प्रारम्भ होती है। संत से ही भक्ति और भगवान का ज्ञान होता है। अत: संत या भक्त को लोगों ने भगवान से बड़ा माना।

राम से अधिक राम कर दासा।

दादू कहते हैं कि साधु की रुचि हे राम जपने की और राम की रुचि है साधु को जपने की।

मध्य युग के संतों में मत, साधना पद्धति और आचार-विचार सम्बन्धी नाना मतभेद थे। परंतु इन मतभेदों के बावजूद उनमें एक सभ्यता थी। वह साम्यता यह है कि भक्त का भगवान के साथ एक व्यक्तिगत संबंध है। भगवान या ईश्वर इन भक्तों की दृष्टि में कोई शक्ति या सत्तामात्र नहीं है बल्कि एक सर्वशक्तिमान व्यक्ति है जो कृपा कर सकता है, प्रेम कर सकता है, उद्धार कर सकता है, अवतार ले सकता है। निर्गुण मत के भक्त हो या सगुण मत के भगवान के साथ उन्होंने अपना कोई न कोई संबंध पाया है।

संत समाज ने जाति पाति का निराकरण करके सत्संग का गठन किया है। कबीरदास कहते हैं कि जब एक ही मूल से सबकी उत्पत्ति हुयी है तो फिर ब्रांाण और शूद्र में भेद कहां है? हिन्दुओं और मुसलमानों के भेदभाव की आलोचना करते हुए वे कहते हैं कि सभी मानवों की उत्पत्ति एक समान होती है, कोई किसी धर्म विशेष का चिन्ह लेकर जन्म नहीं लेता तो दुई जगदीश कहां ते आया जैसा प्रश्न वे समाज के समक्ष रखते हैं। इस प्रकार संत समाज ने ज्ञानी और अज्ञानी दोनों को संत बनाया और कहा कि भक्त के लिए सर्वत्र समदर्शन होना चाहिए।

हरि का भजै सो हरि का होई।

जातिपाति पूछै नहि कोई।।

जो हरि का भजन करता है वह हरिभजन है। सभी मानवों को हरिजन होना चाहिए। संतों की कोई जाति निर्माण करना मानव को बिगाड़ना है।

सभी संत अनेक पंथों में बंटे हैं। परंतु इन पंथों में एक वाक्यता भी है। सभी ने भक्ति, सत्संग और गुरू को अधिक महत्व दिया। सभी ने प्राचीन वेदांत की भांति अद्वैतवादी आत्मवाद या ब्रंावाद और मायावाद को स्वीकार किया। परंतु उन्होंने अपने चिन्तन में प्राचीन ग्रंथों के वाक्यों का आश्रय नहीं लिया। उनकी भक्ति भावना का स्त्रोत सत्संग और स्वानुभाव था।

कबीर की साखी, शब्दी और रमैनी सभी संतों का आदर्श है। नामादास का भक्तमाल संत परंपरा का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। सभी संतों ने अपने अपने अनुभवों को व्यक्त करने के लिए पद, दोहा, अमंग, छंद आदि का प्रयोग किया है। रामचरित और वेद पुराण मत का समन्वय है। इस प्रकार संत मत भक्ति मार्ग है। सत्संग साक्षात भक्ति है। प्रो. संगम लाल पाण्डेय सत्संग को ही भगवान कहते हैं।

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