होलिका दहन
हिन्दू धर्म में होलिका दहन का आयोजन बड़े हर्षोल्लास के साथ किया जाता है। इस पर्व को फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है। साथ ही इससे जुड़ी कथा का भी विशेष महत्व है।
By Shantanoo MishraEdited By: Shantanoo MishraUpdated: Mon, 06 Mar 2023 12:35 PM (IST)
हिन्दू धर्म में कई प्रमुख व्रत एवं त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं, जिनमें होली पर्व का विशेष महत्व है। होली पर्व की शुरुआत वास्तव में होलिका दहन से होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार होलिका दहन पर्व को बुराई पर हुई अच्छाई की जीत के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। पुराणों में होलिका दहन के सन्दर्भ में नारायण भक्त प्रह्लाद की कथा को वर्णित किया गया है। जिसमें बताया गया है कि कैसे अत्याचारी राजा हिरण्यकश्यपु ने पुत्र की हत्या के लिए षड्यंत्र रचा था, जो भगवान नारायण की कृपा से सफल नहीं हो पाया। भारत के विभिन्न हिस्सों में होलिका दहन को छोटी होली और होलिका दीपक के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही इस पर्व के अध्यात्मिक और वैज्ञानिक कारण दोनों छिपे हुए हैं।
कब और कैसे मनाई जाती है होलिका?
हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि पर प्रदोष काल में होलिका दहन का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन गांव या मौहल्ले के किसी खुली जगह पर किया जाता है। खास लकड़ियों से तैयार की गई चिता पर गोबर से बने होलिका और भक्त प्रहलाद को स्थापित किया जाता है, जिसे गुलारी या बड़कुल्ला के नाम से जाना जाता है। इसके बाद होलिका दहन के शुभ मुहूर्त में होलिका के पास गोबर से बनी ढाल भी रखी जाती है और चार मालाएं जो मौली, फूल, गुलाल, ढाल और गोबर से बने खिलौनों से बनाई जाती है, उन्हें अलग से रख लिया जाता है। इनमें से एक माला पितरों के नाम समर्पित होती है, दूसरी माला हनुमान जी के लिए, तीसरी शीतला माता और चौथी माला घर परिवार के लिए रखी जाती है।
होलिका दहन पूजा विधि
होलिका दहन की पूजा में रोली, माला, अक्षत, गंध, पुष्प, धूप, गुड़, कच्चे सूत का धागा, बतासे, नारियल एवं पंच फल इत्यादि पूजा की सामग्री के रूप में एक थाली में रखे जाते हैं। इन सभी चीजों को होलिका दहन के समय होलिका के पास रखा जाता है। फिर श्रद्धा भाव से होलिका के चारों ओर 7 से 11 बार कच्चे सूत के धागे को लपेट दिया जाता है। होलिका दहन के बाद सभी सामग्रियों को एक-एक करके होलिका में आहुति दी जाती है और फिर जल से अर्घ्य प्रदान किया जाता है। इसके पश्चात होलिका दहन के बाद पंच फल और चीनी से बने खिलौने इत्यादी को आहूति के रूप में समर्पित करने का विधान है।होलिका दहन की कथा
किवदंतियों के अनुसार पृथ्वी पर हिरण्यकशिपु नामक एक राजा शासन करता था, जो भगवान विष्णु का सबसे बड़ा शत्रु माना जाता था। उसने अपने राज्य में सभी को यह आदेश किया था कि कोई भी ईश्वर की पूजा नहीं करेगा। लेकिन उसका पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। जब हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र को भगवान की पूजा करते हुए देखा तो उससे सहा नहीं गया और अपने ही पुत्र को दंड देने की ठान ली। हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को कई बार कष्ट देना चाहा, लेकिन भगवान विष्णु ने हर समय प्रहलाद का साथ दिया।
अंत में अत्याचारी राजा ने अपनी बहन होलिका से मदद मांगी। होलिका को यह वरदान था कि उसे अग्नि नहीं जला सकती है। इसलिए होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से होलिका उस अग्नि में भस्म हो गई और प्रहलाद बच गया। तब से होलिका दहन पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है।
होलिका दहन का वैज्ञानिक कारण
होली वसंत के मौसम में खेली जाती है, जो सर्दी के अंत और गृष्म ऋतू के बीच की अवधि होती है। ऐसे में पुराने समय में सर्दियों के दौरान लोग नियमित रूप से स्नान नहीं करते थे। जिसके कारण त्वचा रोग का खतरा बढ़ जाता था। इसलिए होलिका दहन के पीछे छिपा वैज्ञानिक कारण यह है कि इस पर्व के दौरान जलाई गई लकड़ियों से वातावरण में फैले हुए खतरनाक जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और होलिका की परिक्रमा करने से शरीर पर जमे हुए कीटाणु भी अलाव की गर्मी से मर जाते हैं। वहीं देश के कुछ हिस्सों में होलिका दहन के बाद लोग अपने माथे और शरीर पर होलिका की राख लगाते हैं, जिसे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है।