Great Warrior Karna: महाभारत के महान योद्धा कर्ण को कब और कैसे प्राप्त हुआ था विजय धनुष? जानें इसकी खासियत
जगत के पालनहार भगवान श्रीकृष्ण बलशाली और दानवीर कर्ण के बल और भगवान शिव के द्वारा उपयोग किए गए विजय धनुष (Vijay Dhanush) से भली-भांति परिचित थे। इसके लिए कूटनीति चाल से बलशाली कर्ण को युद्ध के मैदान में परास्त किया। भगवान श्रीकृष्ण के सहयोग के बिना धनुर्धर अर्जुन अपने अग्रज भाई कर्ण को कभी परास्त नहीं कर सकते थे। स्वयं कर्ण भी तत्कालीन समय में महान धनुर्धर थे।
By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Sun, 21 Jul 2024 09:13 PM (IST)
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Vijay Dhanush: महाभारत के महान योद्धा कर्ण द्वापर युग के समकालीन थे। बलशाली कर्ण की गिनती श्रेष्ठ दानवीरों में होती है। ऐसा भी कहा जाता है कि दान देने में कर्ण का स्थान शीर्ष पर है या राजा बलि के समतुल्य है। इतिहासकारों की मानें तो महाभारत के महान पात्र होने के बावजूद भी बलशाली कर्ण को जीवन में त्रासदियों से गुजरना पड़ा था। प्रकृति या परम पिता परमेश्वर ने हमेशा ही कर्ण की परीक्षा ली। इस वजह से कर्ण को जीवन में विषम परिस्थिति से गुजरना पड़ा। जगत के पालनहार भगवान श्रीकृष्ण कर्ण के बल से भली-भांति परिचित थे। अतः कूटनीति चाल से बलशाली कर्ण को युद्ध के मैदान में परास्त किया। स्वयं कर्ण भी तत्कालीन समय में महान धनुर्धर थे। लेकिन क्या आपको पता है कि बलशाली कर्ण को शक्तिशाली विजय धनुष कैसे प्राप्त हुआ था ? आइए, इस धनुष से जुड़ी कथा जानते हैं-
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कथा
शिव पुराण में निहित है कि राजा दक्ष द्वारा आयोजित महायज्ञ में अपने पति भगवान शिव के प्रति अपमानजनक शब्दों और द्वेष की भावना से आहत होकर माता सती ने यज्ञकुंड में कूदकर आहुति दे दी थी। तीनों लोकों में यह सूचना वन में आग की तरफ फैल गई थी। भगवान शिव को पूर्व से राजा दक्ष के मनोभाव की जानकारी थी। माता सती के सतीत्व प्राप्त करने से भगवान शिव अति क्रोधित हो उठे।उन्होंने भद्रकाली और वीरभद्र को राजा दक्ष को समाप्त करने का आदेश दिया। आज्ञा का पालन कर वीरभद्र ने यज्ञ स्थल पर ही राजा दक्ष के सिर को धड़ से अलग कर दिया। दूसरी ओर भगवान शिव वियोग में डूबकर माता सती के पार्थिव शरीर लेकर इधर-उधर विचरण करने लगे। महाकाल के क्रोध को देखकर भगवान विष्णु ने माता सती के पार्थिव शरीर को सुदर्शन चक्र से क्षत-विक्षत कर दिया।वहीं, तीनों लोकों के देवी-देवता शिवजी की उपासना कर मनाने और क्रोध को शांत करने में जुटे थे। लंबे समय तक प्रार्थना के बाद भगवान शिव का क्रोध शांत हुआ। उस समय भगवान शिव ने न केवल राजा दक्ष को क्षमा प्रदान की, बल्कि भविष्य में विवाह न करने का प्रण किया। कालांतर में तारकासुर ने ब्रह्मा जी की कठिन तपस्या कर भगवान शिव के पुत्र के अलावा किसी देवता से न हारने का वरदान मांगा।
वरदान पाकर तारकासुर ने स्वर्ग पर अपना अधिपत्य जमा लिया। उस समय देवताओं की याचना और मां पार्वती की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने विवाह करने का वचन जगत जननी मां शक्ति को दिया। कालांतर में फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव और मां पार्वती का विवाह हुआ। विवाह वर्ष में अंतर पश्चात भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ। भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया।
हालांकि, आगे चलकर तारकासुर के पुत्रों ने पुनः शक्ति प्राप्त कर ली। तारकासुर के पुत्रों का वध करने के लिए विश्वकर्मा जी ने विजय धनुष का निर्माण किया। उस समय भगवान शिव ने विजय धनुष से अपना अस्त्र पशुपतास्त्र चलकर तारकासुर के तीनों पुत्रों और उनके नगरों को नष्ट कर दिया। इसके बाद तीनों लोकों में शांति और धर्म की पुनः स्थापना हुई।इस समय भगवान शिव ने विजय धनुष स्वर्ग के देवता इंद्र को सौंप दिया। ऐसा कहा जाता है कि द्वापर युग के समय में भगवान परशुराम ने भगवान शिव की कठिन तपस्या की। दर्शन देने पर परशुराम ने भगवान शिव से वरदान में विजय धनुष प्राप्त करने की इच्छा जताई। उस समय स्वर्ग नरेश इंद्र से विजय धनुष लेकर भगवान शिव ने परशुराम जी को दिया। महाभारत काल में बलशाली कर्ण ने भगवान परशुराम से विजय धनुष प्राप्त किया।