Mahabharat: बाणों की शय्या पर असहनीय पीड़ा के बाद भी, भीष्म पितामह ने 58 दिन बाद ही क्यों त्यागे प्राण
महाभारत ग्रंथ में वर्णन मिलता है कि महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन ने अपने बाणों द्वारा भीष्म पितामह को घायल कर दिया था। बाणों से घायल होने और असहनीय पीड़ा सहने के बाद भी भीष्म पितामह ने तुरंत अपने प्राण नहीं त्यागे। इसके पीछे एक नहीं बल्कि कई कारण बताए गए हैं। तो चलिए जानते हैं वह कारण कौन-से हैं।
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। महाभारत युद्ध को इतिहास का सबसे भीषण युद्ध माना जाता है। भीष्म पितामह भी महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक रहे हैं। साथ ही वह सबसे उम्रदराज होने के बाद भी सबसे शक्तिशाली योद्धाओं में से एक थे। भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। जिस कारण कई दिनों तक बाण शय्या पर लेटे होने के बाद भी उन्होंने अपने प्राण नहीं त्यागे, लेकिन क्या आप इसका कारण जानते हैं।
युद्ध में निभाई जरूरी भूमिका
भीष्म पितामह को अपने पिता शांतनु द्वारा इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। अर्थात वह केवल अपनी इच्छा के अनुसार ही प्राणों का त्याग कर सकते थे। हालांकि कर्तव्यों से बाधित होने के कारण भीष्म पितामह को युद्ध में कौरवों का साथ देना पड़ा था। जब महाभारत का युद्ध शुरू हुआ, तो भीष्म पांडवों के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए थे। क्योंकि उन्हें हराए बिना युद्ध जीतना असंभव था। ऐसे में अर्जुन ने भीष्म पितामह पर अपने बाणों की बरसात कर दी थी, जिससे पितामह बुरी तरह घायल हो गए थे। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने तुरंत अपने प्राण नहीं त्यागे।
पहला कारण
सबसे पहला कारण तो यह माना जाता है कि भीष्म पितामह अपने प्राण तब त्यागना चाहते थे, जब सूर्य उत्तरायण में हो। हिंदू धर्म में यह माना जाता है कि जो भी व्यक्ति के इस समय में मृत्यु को प्राप्त होता है, उसकी आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म पितामह को घायल किया तब सूर्य दक्षिणायन में था। ऐसे में सूर्य के उत्तरायण होने के लिए भीष्म पितामह ने 58 दिनों तक लंबा इंतजार किया।
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दूसरा कारण
भीष्म पितामह द्वारा अपने प्राण त्यागने के लिए इतने दिनों का इंतजार करने के पीछे एक और कारण माना जाता है। जिसके अनुसार भीष्म की यह इच्छा थी कि वह हस्तिनापुर को सुरक्षित हाथों में देखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तब तक प्राण नहीं त्यागे जब तक हस्तिनापुर का भविष्य सुरक्षित नहीं हो गया। इसके लिए उन्होंने बाण शय्या पर लेटे हुए ही पांडवों को धर्म और नीति का ज्ञान भी दिया, ताकि यह उन्हें काम आ सके और वह अपनी जिम्मेदारियों का सही ढंग से निर्वहन करें।
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