ऊष्मा व उजास का पर्व है मकर संक्रांति, तिल के भोजन और दान से होते हैं पुण्य फल प्राप्त
मकर संक्रांति पर सूर्य नारायण उत्तरायण हो जाते हैं। ऊष्मा एवं प्रकाश में वृद्धि प्रारंभ होती है। कहा गया है कि जब मनुष्य सद्विचार विद्या विवेक वैराग्य ज्ञान आदि के चिंतन में प्रवृत्त होता है वही उत्तरायण की स्थिति है।
नई दिल्ली, प्रो. गिरिजा शंकर शास्त्री, अध्यक्ष, ज्योतिष विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय। जब भगवान सूर्य धनुराशि का भ्रमण पूरा करके मकर राशि में प्रवेश करते हैं, उस संक्रमण काल को मकर संक्रांति कहा जाता है। ज्योतिष शास्त्र में मकर संक्रांति का विशेष महत्व है। मकर राशि में सूर्य एक महीने रहते हैं। महीने भर व्रत, तप, यज्ञ, अनुष्ठान, जप, हवन, कथा श्रवण आदि का अनंत पुण्य होता है, तथापि मकर राशि में सूर्य के प्रवेश काल से 32 घटी अर्थात 12 घंटे, 48 मिनट सर्वाधिक पुण्यदायी काल कहा गया है। राशियों के क्रम में मकर राशि 10वीं राशि है, दसवां स्थान आकाश एवं कर्म का है। मकर का अर्थ है जो मंगल या कल्याण प्रदान करें।
मकर संक्रांति प्राकृतिक पर्व है, तथापि भारत में इसे धार्मिक पर्व के रूप में सदैव से मनाया जाता रहा है। पुराणों एवं धर्मशास्त्रों ने इसे अत्यधिक पुण्यदायी संक्रांति माना है। इसका कारण है कि यहीं से सूर्य अपने गमन पथ के दक्षिणी मार्ग का परित्याग करके उत्तर मार्ग पर चलना आरंभ करते हैं। अतएव इस पर्व को उत्तरायण भी कहा जाता है। मान्यता है कि यह समय देवताओं के लिए दिन तथा असुरों के लिए रात्रि का काल है। यहीं से पृथ्वी वासियों के लिए भी प्रकाश बढ़ने लगता है। वैदिक काल से ही हमारी धारणा है, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'। भारतीय मनीषी सदा तमस से निकलकर प्रकाश की ओर चलने का संदेश देते रहे हैं।
वेदों में सूर्य को चराचर जगत की आत्मा, नेत्र, हृदय तथा ज्ञान कहा गया है, जबकि चंद्रमा सोम एवं मन है एवं पृथ्वी देह है। इन तीनों के विशिष्ट संयोग से ही संपूर्ण सृष्टि सम्यक रूप से संचरित हो रही है। जब सूर्य विषुवत वृत्त पर आता है, तब दिन व रात्रि समान होते हैं, किन्तु उत्तरायण में दिन बढ़ने लगता है, जबकि दक्षिणायन में दिन घटता है। प्रकाश की वृद्धि सर्वथा शुभ होती है। इसी कारण उत्तरायण की महत्ता सर्वाधिक है। आज से लगभग 35 सौ वर्ष पूर्व वेदांग ज्योतिष के रचनाकार महात्मा लगध ने इस काल को युगादि अर्थात युगारंभ का प्रथम दिन कहा था। युगारंभ के साथ-साथ शिशिर ऋतु भी इसी दिन से आरंभ होती है। उत्तरायण काल के आरंभ को ही मकर संक्रांति, अयनी संक्रांति तथा खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरायण तथा दक्षिणायन का वर्णन करते हुए कहा है, जिस मार्ग में प्रकाश स्वरूप अग्नि, दिनाधिपति देवता तथा शुक्लपक्षाधिपति देवता विद्यमान है, वहीं छह मास का उत्तरायण है, जहां तमस का आधिक्य है, वहीं छह महीने का दक्षिणायन का काल है। व्यास जी कहते हैं, यह (उत्तरायण) काल योगियों द्वारा चाहा जाने वाला है। आध्यात्मिक दृष्टि से जब मनुष्य सद्विचार, विद्या, विवेक, वैराग्य, ज्ञान आदि के चिंतन में प्रवृत्त होता है, वही उत्तरायण की स्थिति है तथा जब वह भोग-सुख, काम, क्रोध में वृत्ति लगाता है, वही दक्षिणायन है। उत्तरायण में शरीर त्याग की इच्छा बड़े-बड़े संत महंत, ऋषि, योगी, तपस्वी तथा संन्यासी भी करते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णन आता है कि शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह ने इच्छामृत्यु वरदान होने के कारण कष्ट सहते हुए भी अपना शरीर नहीं छोड़ा अपितु उत्तरायण की प्रतीक्षा करते रहे। जब उत्तरायण (मकर) में सूर्य जाने को उद्यत हो गए, तब अपने शरीर को त्याग करने का संकल्प किया-
धर्मप्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः। यो योगिनश्छन्दमृत्यु विशेषत्तूत्तरायणम्॥
अर्थात भीष्म पितामह इस प्रकार धर्म का प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायण का समय आ पहुंचा, जिसे मृत्यु को अपने अधीन रखने वाले भगवत्परायण योगी लोग चाहा करते हैं।
मकर संक्रांति के दिन लोग खाद्यान्न, विशेषकर तिल, गुड़, मूंग, खिचड़ी आदि पदार्थों का सेवन करते हैं। इस समय भारत में अत्यधिक शीत पड़ती है। तिल के सेवन से शीत से रक्षा होती है। अतएव तिल को अधिक महत्व दिया गया है:
तिलस्नायी तिलोद्वर्त्ती तिलहोमी तिलोदकी।
तिलभुक् तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशनाः॥
अर्थात तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल के तेल द्वारा शरीर में मालिश, तिल से ही यज्ञ में आहुति, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का भोजन तथा तिल का दान इस तरह छह प्रकार से तिल के प्रयोग से मकर संक्रांति का पुण्य फल प्राप्त होता है। इस समय बहती हुई नदी में स्नान पुण्यदायी होता है। बंगाल प्रांत के गंगासागर में स्नान का विशेष महत्व वर्णित है। यहां मकर संक्रांति के दिन विशाल मेला लगता है। उत्तर प्रदेश के प्रयाग में गंगा, यमुना तथा सरस्वती की त्रिवेणी पर इसी पर्व से सौरमासानुसार एक महीने तक स्नान करने की परंपरा है। प्रयागराज में सुदूर स्थानों से आकर लोग कल्पवास करते हैं।
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