आध्यात्मिक स्वाभिमान का गौरवपूर्ण संदेश है मनुस्मृति
जिस राष्ट्र के जनमानस में धर्म लक्षणों का समावेश होता है वही राष्ट्र स्वावलंबन तथा स्वर्णिम स्वाधीनता को सुदृढ़ रख सकता है। ऐसे अनुपम व शाश्वत विचारों के साथ आचार्य मनु द्वारा लिखित मनुस्मृति आज भी हमारा मागदर्शन करती है।
By Jeetesh KumarEdited By: Updated: Tue, 18 Jan 2022 06:24 PM (IST)
मनुस्मृति - जिस राष्ट्र के जनमानस में धर्म लक्षणों का समावेश होता है वही राष्ट्र स्वावलंबन तथा स्वर्णिम स्वाधीनता को सुदृढ़ रख सकता है। ऐसे अनुपम व शाश्वत विचारों के साथ आचार्य मनु द्वारा लिखित मनुस्मृति आज भी हमारा मागदर्शन करती है। मनुस्मृति भारतीय आचार संहिता का प्रथम विश्वकोश है। इस ग्रंथ में 12 अध्यायों के 2500 श्लोकों के माध्यम से समाज कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया गया है। हमारे धार्मिक ग्रंथों के अनुसार चौदह मनु बताए गए हैं। स्वयंभू मनु ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती ने मनु को सृष्टि के आदि में माना है।
मनु ने अपने धर्म शास्त्र मनुस्मृति में चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों, सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राजव्यवस्था, राजा के कर्तव्य, सैनिक प्रबंधन का सुव्यवस्थित ढंग से वर्णन किया है। मनु ने यह सब व्यवस्था वेद के आधार पर की है इसलिए कहा गया है कि, 'वेदो अखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले मनुना परीकीर्तित: अर्थात मनु स्मृति में मनु महाराज ने जिस वर्ण का जो धर्म कहा है, वह सब वेद के अनुकूल है एवं ग्रहण करने योग्य है। श्रुति वेद को कहते हैं और स्मृति धर्मशास्त्र को। यह दोनों ही सब विषयों में निर्विवाद, तर्क, कुतर्क से रहित हैं। जो इनके सिद्धांतों पर कुतर्क करता है, ऐसे नास्तिक व्यक्ति को वेद निंदक कहा गया है।
धर्म का पालन
आध्यात्मिक स्वाभिमान की जागृति हेतु मनु महाराज धर्म का लक्षण करते हुए मनुस्मृति के छठे अध्याय में लिखते हैं कि :धृति: क्षमा दमो अस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यम् अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।अर्थात् धैर्य धारण करना, क्षमावान होना, सुख दुख, लाभ हानि में सहनशीलता, मन को दुष्कर्म से रोकना, मन, वचन कर्म से चोरी का त्याग, आंतरिक और बाहरी पवित्रता रखना, बुद्धि को सदा बढ़ाना, श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करना ,सत्य का अनुसरण, क्रोध का त्याग यही धर्म के दस लक्षण हैं। इनको जीवन में धारण एवं पालन करने से ही मनुष्य वास्तविक रूप से धार्मिक कहलाता है। धर्म के ये दस लक्षण मनुष्य में आध्यात्मिक स्वाभिमान का भाव जागृत करते हैं। प्रत्येक राष्ट्र के स्वावलंबन एवं आध्यात्मिक स्वाभिमान हेतु इनका पालन होना अनिवार्य है, इनके बिना स्वाधीनता, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन से युक्त समाज की कल्पना करना व्यर्थ है। इसलिए मनुस्मृति के चौथे अध्याय में मनु ने बताया है कि धर्माचरण के मार्ग पर कष्ट झेल कर भी चलना पड़े तो भी चलें। किसी भी विकट परिस्थिति में अधर्म का आचरण न करें। अधर्म का आचरण राष्ट्र की स्वाधीनता, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन में सबसे बड़ी बाधा है।
सदाचार आध्यात्मिकता का मूलमनुस्मृति के चौथे अध्याय में सदाचार को आध्यात्मिकता का मूल कहते हुए मनु ने बताया है कि-आचार से हीन भ्रष्ट मनुष्य को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। ऐसे चरित्रहीन मनुष्य स्वावलंबन एवं स्वाभिमान की गरिमा को नहीं समझ सकते। धर्म, आध्यात्मिकता तथा नैतिकता के सूत्र सदाचारी व्यक्ति को हर प्रकार की समृद्धि प्राप्त करवाते हैं।कर्म से श्रेष्ठ बनता है मनुष्य
मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय में मनु ने वर्ण व्यवस्था का सूत्र दिया है परंतु कुछ तथाकथित, अल्प ज्ञानी, वामपंथी विचारक कहते हैं कि मनुस्मृति में जातिवाद का समर्थन किया गया है। वर्ण का निर्धारण शिक्षा की समाप्ति पर होता था न कि जन्म के आधार पर। मनु के अनुसार, उत्तम संस्कारों, शिक्षा तथा अपने कर्मों के माध्यम से ही व्यक्ति श्रेष्ठ बनता है। चाहे वह किसी भी वर्ण का हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन मनु जी ने मनुस्मृति में किया है और वे लिखते हैं कि ब्राह्मण वर्ण का मनुष्य यदि निकृष्ट आचरण का है तो वह शूद्र ही कहलायेगा और यदि शुद्र वर्ण का व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से उत्तम संस्कारों को ग्रहण कर लेता है तो वह ब्राह्मण की श्रेणी में आ जाता है। प्राचीन काल में यही वर्ण व्यवस्था थी जिसके आधार पर समाज ने उन्नति की थी। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण वर्ण को प्राप्त हुआ। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ ने अपनी योग्यता से ब्रह्मर्षि की पदवी प्राप्त की। एक निषाद मां की संतान व्यास अपनी साधना तथा तप से महर्षि व्यास कहलाए। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे ग्रंथों में विद्यमान हैं कि जब अपने कर्म और तप से मनुष्य ने इस वर्ण व्यवस्था के माध्यम से सम्मान प्राप्त किया।
नारी की प्रतिष्ठामनुस्मृति में सबके लिए शिक्षा तथा ज्ञान को अनिवार्य बताया गया है। तृतीय अध्याय में नारी शक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए मनु जी कहते हैं कि :यत्र नार्यस्तु पूच्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।यत्रैतास्तु न पूच्यन्ते सर्वा: तत्र अफला: क्रिया:।अर्थात जिस राष्ट्र, परिवार में महिलाओं का मान सम्मान होता है वहां पर दिव्य शक्तियों का निवास होता है और जहां इनका निरादर अपमान होता है वहां सभी क्रियाएं फल रहित हो जाती हैं। मनु महाराज आगे लिखते हैं कि जिस परिवार में नारी शक्ति समृद्ध और हर्षित रहती है वह परिवार सर्वांगीण उन्नति की ओर अग्रसर होता है। मनु की व्यवस्थाएं सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक रूप में सत्य एवं व्यावहारिक हैं।
जीवन निर्माण का सूत्रजीवन निर्माण का सूत्र देते हुए चौथे अध्याय में कहा गया है कि :न आत्मानम अवमन्येत पूर्वाभि: असमृद्धिभि:।आमृत्यो: श्रियम अन्विच्छेत।आत्म गौरव एवं स्वाभिमान की भावना को जागृत करते हुए मनु कहते हैं कि मनुष्य अपनी दरिद्रता तथा अभावों को याद करके अपनी आत्मा को दीन हीन न समझे। मृत्युपर्यंत सदा पुरुषार्थ एवं अपने मन में आत्म स्वाभिमान और आत्म गौरव की अनुभूति करते हुए निरंतर पुरुषार्थ से समृद्धि को प्राप्त करें। स्वावलंबन के सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए मनु लिखते हैं कि जो जो कार्य दूसरे के अधीन हैं वे सब दुख देने वाले हैं तथा जो जो कार्य स्वयं अपने अधीन हैं वे सुख के कारण हैं। इसलिए मनुष्य यदि अपने जीवन में सुख, शांति और आनंद की प्राप्ति करना चाहता है तो वह सर्वप्रथम मनसा, वाचा, कर्मणा अपने आपको स्वावलंबी बनाए।
आचार्य कौटिल्य का भी अनुमोदनकिसी भी राष्ट्र की स्वाधीनता, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन की उन्नति का आधार स्तंभ मनु जी ने एक श्रेष्ठ राजा को स्वीकार किया है। सप्तम अध्याय में उत्कृष्ट राज व्यवस्था का वर्णन करते हुए मनु महाराज ने कहा है कि राजा को पूर्णरूपेण प्रतिपल सचेत होकर अपने राच्य तथा प्रजा की रक्षा में लगे रहना चाहिए। मनु के राज व्यवस्था से संबंधित सिद्धांतों का आचार्य कौटिल्य ने भी अनुमोदन किया है। मनु महाराज कहते हैं कि -जैसे वायु सभी प्राणियों में प्रविष्ट होता हुआ वितरण करता है उसी प्रकार एक कुशल राजा को भी शत्रु पक्ष में प्रवेश करके उनकी संपूर्ण गतिविधियों का ध्यान रखना चाहिए।
औषधि के समान मंगलकारी'बाइबल इन इंडियाÓ नामक ग्रंथ में लुई जैकी लिआट लिखते हैं कि- मनुस्मृति ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, पर्शिया, बर्मा, थाइलैंड, रोम की कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। मनुस्मृति में व्यक्तिगत चरित्र- शुद्धि से लेकर पूरी समाज व्यवस्था तक की ऐसी सुंदर बातें हैं जो आज भी हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हमारे ऋषियों ने मनुस्मृति की महिमा का वर्णन करते हुए इसे औषधि के समान गुणकारी एवं मंगलकारी कहा है।
विश्व के समस्त देशों के विधान निर्माताओं ने इसी मनुस्मृति का आश्रय लेकर विभिन्न विधाओं की रचना की है। मनु का विधान प्रचलित साम्राच्यवाद तथा लोकतांत्रिक त्रुटिपूर्ण पद्धतियों से शून्य, पक्षपात रहित, सार्वभौम तथा राम राच्य के स्वप्न को साकार करने वाला है।मर्यादाओं के प्रथम व्याख्यातास्वामी दयानंद सरस्वती का कहना था कि धार्मिक मर्यादाओं के सर्वप्रथम व्याख्याता मनु ही थे। मनु ने मानव की सर्वांगीण मर्यादाओं का जैसा सत्य एवं सटीक रूप से वर्णन किया है वैसा विश्व के साहित्य में अप्राप्य है। स्वामी दयानंद आधुनिक भारत के प्रथम ऐसे विचारक हैं जिन्होंने यह सिद्ध किया था कि वर्तमान मनुस्मृति अपने मूल रूप में नहीं है, इसमें अंग्रेजों तथा मुगलों द्वारा अनेक प्रकार की मिलावट की गई है ताकि समाज के सौहार्द को बिगाड़ा जा सके।
- आचार्य दीप चन्द भारद्वाज