जन्मदिन विशेष: विश्व प्रसिद्ध ओशो ने बताया कि कैसे व्यक्ति की सोच बदल सकती है उसका जीवन
Osho Birthday Special दूसरों को बदलना तुम्हारे हाथ में नहीं। तुम्हारे हाथ में तो केवल स्वयं को बदलना है। अगर तुम सोचते हो कि भाग्य के कारण तुम दुखी हो रहे हो। जानिए कैसे सकारात्मक सोच व्यक्ति का जीवन बदल सकती है।
By Shivani SinghEdited By: Updated: Tue, 06 Dec 2022 02:20 PM (IST)
नई दिल्ली, Osho Birthday Special: आचार्य रजनीश और ओशो के नाम से प्रसिद्ध दार्शनिक चंद्र मोहन जैन (11 दिसंबर, 1931 - 19 जनवरी, 1990) अध्यात्म में नई वैचारिक स्थापनाओं के लिए जाने जाते हैं। उनकी जन्म जयंती पर उनका चिंतन...
मैं एक कालेज में प्रोफेसर था। सभी प्रोफेसर अपना खाना लेकर आते थे और दोपहर को इकट्ठे होते थे। मैं जिनके पास बैठा था, उन्होंने अपना टिफिन खोला और कहा, 'फिर वही आलू की सब्जी और रोटी! दूसरे दिन फिर वही हुआ। उन्होंने टिफिन खोला और फिर कहा, 'फिर वही आलू की सब्जी और रोटी!
मैंने कहा, 'अगर आलू की सब्जी और रोटी पसंद नहीं तो अपनी पत्नी को कहें कि कुछ और बनाएं। उन्होंने कहा- 'अजी, पत्नी कहां है, मैं खुद ही बनाता हूं। यही हमारा जीवन है। हम हंस रहे हों या रो रहे हों, इसका जिम्मेदार कोई भी नहीं। जिम्मेदार हैं तो सिर्फ हम। हो सकता है कि ज्यादा रोने से रोने की आदत बन गई हो और हम हंसना भूल गए हों। यह भी हो सकता है कि हम इतना रोए हों कि हमसे अब कुछ और करते बनता नहीं। यह भी हो सकता है कि रोते हुए हमें याद ही न हो कि हमने ही रोने का विकल्प चुना था। लेकिन भूलने से सत्य असत्य नहीं होता। अगर तुमने ही चुना है, तो तुम ही मालिक हो, यह रोना रोक सकते हो।'
मैं ही मालिक हूं, जो भी मैं कर रहा हूं, उसके लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। इस बोध से भरने से जीवन में क्रांति हो जाती है। जब तक तुम दूसरे को जिम्मेदार समझोगे, तब तक क्रांति असंभव है, क्योंकि तब तक तुम निर्भर रहोगे। तुम सोचते हो कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं, तो फिर तुम कैसे सुखी हो सकोगे? क्योंकि दूसरों को बदलना तुम्हारे हाथ में नहीं। तुम्हारे हाथ में तो केवल स्वयं को बदलना है। अगर तुम सोचते हो कि भाग्य के कारण तुम दुखी हो रहे हो, तब भी तुम्हारे हाथ में नहीं है। जो पीड़ा तुम भोग रहे हो, यह तुम्हारे ही निर्णय का फल है। जिस दिन तुम निर्णय बदलोंगे, उसी दिन जीवन बदल जाएगा। जीवन को देखने के ढंग पर ही सब कुछ निर्भर करता है।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर में मेहमान था। अचानक देखा कि नसरुद्दीन की पत्नी ने एक प्याला नसरुद्दीन के सिर की तरफ फेंका। नसरुद्दीन ने सिर झुका लिया, प्याला दीवार से टकराकर टूट गया। नसरुद्दीन को पता चल गया कि मैंने देख लिया है। उसने कहा, 'आप कुछ और न सोचें, हम दोनों बड़े सुखी हैं। कभी-कभी पत्नी चीज़ें फेंकती है, मगर इससे हमारे सुख में कोई भेद नहीं पड़ता।' मैंने पूछा, कैसे? तो उसने कहा, 'अगर उसका निशान लग जाता है तो वह खुश होती है और अगर चूक जाता है तो मैं खुश होता हूं। इस तरह हम दोनों खुश रहते हैं।'
जिंदगी को देखने के ढंग पर निर्भर करता है। जिंदगी को तुम ही बनाते हो, तुम ही देखते हो। फिर तुम ही व्याख्या करते हो। तुम्हारे संसार में कोई दूसरा प्रवेश नहीं करता। लेकिन इस सोच में एक कठिनाई है कि जब अनुभव करोगे कि मैं ही जिम्मेदार हूं, तब तुम दुखी न हो सकोगे। दुखी नहीं होंगे तो शिकायत नहीं कर सकोगे। तब तुम्हें दुखी होने पर शिकायत करने का रस नहीं मिल सकेगा। दुखी होने में तुम्हें रस आता है, दुखी होकर तुम सहानुभूति मांगते हो। सहानुभूति में भी बड़ा रस है। इसीलिए तो लोग अपने दुख की कथा एक-दूसरे को बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते हैं। कोई सुनना भी नहीं चाहता। कौन उत्सुक होगा तुम्हारे दुख में? दूसरे, दुख की बातें सुनकर दूसरा भी उदास ही होगा। दूसरा तभी तक सुनता है, जब तक उसे आशा रहती है कि तुम भी उसका दुख सुनोगे। क्यों आदमी दुख की इतनी चर्चा करता है? दरअसल, दुख की बात करेगा तो कोई पुचकारेगा। तुम दुख के माध्यम से दूसरे का प्रेम मांग रहे हो। जब भी तुम दुखी होते हो, तभी तुम्हें थोड़ी-सी आशा चारों तरफ से मिलती है। लोग तुम्हें सहारा देते मालूम पड़ते हैं। सहानुभूति दिखलाते हैं। हालांकि सहानुभूति कचरा है, लेकिन प्रेम के लिए वही निकटतम पूरक है। जिसको असली सोना न मिला हो, वह फिर नकली सोने से काम चलाने लगता है।
प्रेम को तो अर्जित करना पड़ता है, क्योंकि प्रेम केवल उसी को मिलता है, जो प्रेम दे सकता है। प्रेम दान का प्रतिफल है। तुम देने में असमर्थ हो, तुम सिर्फ मांग रहे हो। तुम भिखमंगे हो, सम्राट नहीं। तुम दुख को पकड़े हो, क्योंकि तुम्हें प्रेम नहीं मिला। जिसको प्रेम मिला है जीवन में, वह आनंदित होगा। वह आनंद को पकड़ेगा, दुख को नहीं। लेकिन तुम्हें सुविधा महसूस होती है शिकायत करने में। जब भी तुम कहते हो कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं, तब जिम्मेदारी का बोझ हट जाता है। जब मैं तुमसे कहता हूं सारे शास्त्र, सारे बुद्ध-लोग एक ही बात कहते हैं कि तुम ही जिम्मेदार हो, कोई और नहीं, तब बड़ा बोझ मालूम पड़ता है।
सबसे बड़ा बोझ तो यह मालूम पड़ता है कि अब शिकायत तुम किसी पर लाद नहीं सकते। उससे भी बड़ा बोझ इस बात का पड़ता है कि अगर तुम ही जिम्मेदार हो, तो सहानुभूति किससे मांगोगे? तब यह कठिनाई खड़ी होती है कि अगर तुम ही जिम्मेदार हो तो तुम्हें बदलाव करना होगा और बदलाव करना एक क्रांति है। एक रूपांतरण से गुजरना है। पुरानी आदतें छोड़नी होंगी। तुम्हारा एक पुराना ढांचा है, वह गलत है। उसे गिराना होगा। तुम इस सत्य से बचने की कोशिश करते हो, क्योंकि अतीत का तुम्हारा श्रम बेकार हो जाएगा। लेकिन, जितना तुम बचोगे, उतना ही भटकोगे। दुखी होगे। यह समझ लो कि तुम ही केंद्र हो अपने अस्तित्व के। इसका कोई जिम्मेदार नहीं। इस सत्य को अगर स्वीकार कर लोगे तो जल्द ही सारे दुख खो जाएंगे। क्योंकि, एक बार यह साफ हो जाए कि मैं ही बना रहा हूं अपना खेल, तो मिटाने में कितनी देर लगती है? तब कोई दूसरा नहीं है। और, फिर अगर तुम दुख में ही रस लेना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी।
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