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Paryushan 2022: विकारों के विसर्जन का महापर्व है पर्युषण, जिसमें की जाती है आत्मा के दस गुणों की आराधना

पर्युषण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। परि अर्थात चारों ओर से उषण अर्थात धर्म की आराधना। वर्ष भर के सांसारिक क्रिया-कलापों के कारण जीवन में जो दोष आ जाते हैैं उन्हें दूर करने का प्रयास इस दौरान किया जाता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Mon, 22 Aug 2022 06:18 PM (IST)
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पर्युषण पर्व (24 अगस्त से प्रारंभ) फाइल फोटो
डा. सुनील जैन संचय। पर्युषण अथवा दशलक्षण पर्व जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण पर्व है। यह हमारे जीवन को परिवर्तन में कारण बन सकता है। यह हमारी आत्मा की कालिमा को धोने का काम करता है। जैन पंथ में श्वेतांबर जहां 8 दिन का पर्युषण पर्व मनाते हैं, वहीं दिगंबर 10 दिन। इस वर्ष यह पर्व श्वेतांबर परंपरा में 24 से 31 अगस्त एवं दिगंबर परंपरा में 31 अगस्त से 9 सितंबर 2022 तक त्याग-तपस्या व साधना के साथ मनाया जाएगा।

इस पर्व पर आत्मा के दस गुणों की आराधना की जाती है, इसीलिए इसे दशलक्षण पर्व कहते हैं। जैन पंथ में अहिंसा एवं आत्मा की शुद्धि को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। मान्यता है कि प्रत्येक समय हमारे द्वारा किये गये अच्छे या बुरे कार्यों से कर्म बंध होता है, जिनका फल हमें भोगना पड़ता है। शुभ कर्म जीवन व आत्मा को उच्च स्थान तक ले जाते हें, वही अशुभ कर्मों से हमारी आत्मा मलिन होती है। पर्युषण पर्व के दौरान आत्मशुद्धि की जाती है व मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने का प्रयास किया जाता है। जब तक अशुभ कर्मों का बंधन नहीं छूटता, तब तक आत्मा के सच्चे स्वरूप को हम नहीं पा सकते हैं। इस पर्व में दस धर्मों - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन एवं उत्तम ब्रह्मचर्य को धारण किया जाता है।

यह पर्व जीवन में नया परिवर्तन लाता है। पापों और कषायों (बुराइयों) को विसर्जित करने का संदेश देता है। यह पर्व व्यक्ति को क्रोध, मान, माया, लोभ, ईष्र्या, द्वेष, असंयम आदि विकारी भावों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। हमारे विकार ही हमारे दु:ख का कारण हैं। आसक्ति रहित व आत्मावलोकन करने वाला प्राणी ही इनसे बच पाता है। इस पर्व पर अपने ही भीतर छिपे सद्गुणों को विकसित करने का पुरुषार्थ किया जाता है। अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने का यह पर्व एक सर्वोत्तम माध्यम है।

पर्युषण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। 'परि' अर्थात चारों ओर से, 'उषण' अर्थात धर्म की आराधना। वर्ष भर के सांसारिक क्रिया-कलापों के कारण जीवन में जो दोष आ जाते हैैं, उन्हें दूर करने का प्रयास इस दौरान किया जाता है। इस समय सांसारिक मोह-माया से दूर मंदिरों में भगवान की पूजा-आर्चना, अभिषेक, आरती, जाप एवं गुरुओं के समागम में अधिक से अधिक समय व्यतीत किया जाता है एवं अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास होता है।

दसलक्षण धर्म (पर्यूषण पर्व) के फल के बारे में आचार्य कार्तिकेय स्वामी ने लिखा है-

एदे दहप्पयारा पाव कम्मस्स णासिया भणिया।

पुण्णस्स संजणाया पर पुण्णत्थं ण कायव्वा।।

अर्थात यह धर्म के दशभेद पाप कर्म का नाश करने वाले और पुण्य का प्रादुर्भाव करने वाले हैं। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि यह धर्म पुण्य के पालक और पाप के प्रक्षालक हैं। विकृति का विनाश और विशुद्धि का विकास करना ही इस पर्व का ध्येय है। यह पर्व पापों और कषायों को रग -रग से विसर्जन करने का संदेश देता है।

[जैन संस्कृति के अध्येता]