Move to Jagran APP

Sallekhana Pratha: क्या है जैन धर्म की सल्लेखना प्रथा? जिसके द्वारा आचार्य विद्यासागर ने ली समाधि

जैन पंथ के पूज्य संत आचार्य विद्यासागर ने 18 फरवरी 2024 को समाधि ली। समाधि लेने का महत्व हिन्दू जैन बौद्ध तथा योगी आदि सभी धर्मों में बताया गया है। संत-परंपरा के अनुसार प्राणों का त्याग समाधि द्वारा किया जाता है वहीं जैन धर्म में इसे सल्लेखना के नाम से जाना जाता है। आइए जानते हैं सल्लेखना से जुड़ी कुछ खास बातें।

By Suman Saini Edited By: Suman Saini Updated: Tue, 20 Feb 2024 03:17 PM (IST)
Hero Image
Sallekhana Pratha: क्या है जैन धर्म की सल्लेखना प्रथा?
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। Sallekhana Vidhi: किसी व्यक्ति को संन्यासी बनने के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है। जब कोई व्यक्ति चेतना के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच जाता है, तब वह संन्यासी बनता है। समाधि लेना भी संत परंपरा का हिस्सा है। जैन संत आचार्य विद्यासागर ने भी जैन धर्म में प्रसिद्ध सल्लेखना विधि से ही अपने प्राणों का त्याग किया। ऐसे में आइए जानते हैं कि सल्लेखना विधि क्या होती है और जैन धर्म में इसका क्या महत्व है।

क्या है सल्लेखना विधि

जैन धर्म में समाधि लेने को सल्लेखना कहा जाता है। जैन मान्यताओं के अनुसार, सुख के साथ और बिना किसी दुख के मृत्यु को धारण करने की प्रक्रिया ही सल्लेखना कही जाती है। इस दौरान जब कोई व्यक्ति मरणासन्न होता है या फिर उसे यह आभास होता है कि उसकी मृत्यु निकट है, तब वह अन्न-जल का पूरी तरह से त्याग कर देता है। इस दौरान साधक अपना पूर्ण ध्यान ईश्वर में केंद्रित कर देता है और देवलोक को प्राप्त हो जाता है। मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी सल्लेखना विधि द्वारा ही अपने प्राण त्यागे थे।  

जैन धर्म में सल्लेखना का महत्व

जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार, जब किसी व्यक्ति को अकाल, बुढ़ापा या रोग की स्थिति घेर ले, जिसका कोई उपाय न हो, तो उसे सल्लेखना की परंपरा के जरिए अपने शरीर त्याग देना चाहिए। 'सल्लेखना' शब्द 'सत्' और 'लेखन' के योग से बना है, जिसका अर्थ है 'अच्छाई का लेखा-जोखा'। जैन धर्म में इस प्रथा को संथारा, संन्यास-मरण, समाधि-मरण, इच्छा-मरण आदि कई नामों से जाना जाता है।

जैन धर्म में माना गया है कि इस विधि से व्यक्ति अपने कर्मों के बंधन को कम करके मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। साथ ही यह जीवन में स्वयं द्वारा किए गए अच्छे और बुरे कर्मों के लिए ईश्वर से क्षमा मांगने का एक तरीका भी है। असल में यह शांतचित्त होकर मृत्यु को स्वीकार करने की भी एक प्रक्रिया है।

ये हैं जरूरी नियम

सल्लेखना विधि द्वारा अपने प्राणों का त्याग करने से पहले अपने गुरु से अनुमति लेनी होती है, उसके बाद ही इस प्रथा को किया जा सकता है। लेकिन किसी के गुरु जीवित नहीं हैं, तो सांकेतिक रूप से उनसे अनुमति ली जाती है। इस विधि के दौरान सल्लेखना या संथारा धारण करने वाले व्यक्ति की सेवा में 4 या उससे अधिक लोग लगे रहते हैं। वह उस व्यक्ति को योग-ध्यान, जप-तप आदि कराते हैं और अंतिम क्षणों तक उस व्यक्ति की सेवा में लीन रहते हैं।

डिसक्लेमर: 'इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।'