शिव-पार्वती संवाद- बहुरि राम मायहि सिरु नावा...
संवाद एक प्रकार का समुद्र मंथन है। जीवन में संवाद का होना और उसका बने रहना बहुत आवश्यक है। संवाद में अनगिनत संभावनाएं छिपी रहती हैं जो समय के साथ अमृतत्व के रूप में प्रकट होती हैं। इस श्रृंखला में आज पढ़ें शिव-पार्वती संवाद राम कथा जिसका दिव्य रूप है।
By Shivani SinghEdited By: Shivani SinghUpdated: Mon, 23 Jan 2023 10:15 AM (IST)
नई दिल्ली, स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन): भगवान राम के शील, धर्म और भावना की चिरसंगिनी सीता जी का हरण रावण द्वारा कर लिया गया। श्रीराम विलाप करते हुए अनुज लक्ष्मण के साथ वन में भटक रहे हैं। भगवती सती भगवान शंकर के साथ पृथ्वीलोक में ऋषि कुंभज से भगवान राम की संपूर्ण कथा सुन चुकी हैं, पर श्रद्धा, विश्वास के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग करने के कारण कथा को समझ नहीं पाईं। एक लंबे घटनाक्रम के पश्चात उन्होंने अपने पिता दक्ष के यहां अपने आपको योगाग्नि को सौंप दिया। उनका पुनर्जन्म हिमवान के यहां पार्वती के रूप में हुआ। वे राम और नाम में निष्ठ होने के कारण अपने पति की परम प्रियता को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर लेती हैं और अपनी अद्भुत रामनाम की निष्ठा के कारण अपने अलौकिक प्राणेश्वर गिरिजाशंकर के रूप में अर्धनारीश्वर बनकर ब्रह्मांड के इतिहास में शंकर जी के साथ उल्लेखनीय हो जाती हैं।
अपने पूर्व जन्म में सती के रूप में उनके हृदय और मन में जो राम के अगुण-सगुण रूप को लेकर संदेह हुआ, वही उनके पार्वती के रूप में पुनर्जन्म का कारण सिद्ध हुआ। बुद्धि भगवान को स्वीकार करने में बाधा डालती है, जब तक कि वह श्रद्धा-पार्वती न बन जाए। वही सती के साथ हुआ। साधक के संशय के मूल में यदि भगवान की इच्छा होती है तो फिर सारी माया की रचना और माया का उपयोग सब भगवान स्वयं करते हैं, पर इस बात को विश्वास के घनीभूत स्वरूप भगवान शंकर जानते हैं। इसीलिए सती के अनौचित्यपूर्ण प्रश्नोत्तर और व्यवहार के बाद भी वे उसके पीछे सती का चरित्र न देखकर भगवान की इच्छा और माया देखने के कारण अपनी राम निष्ठा और नाम निष्ठा में स्थित रहे। सती ने शिव से पूछा कि ये कैसे भगवान हैं, जो अपनी पत्नी सीता के कहने पर माया मृग के पीछे दौड़े, जड़ पदार्थों लता, वृक्षों, पर्वतों और पशु पक्षियों से पत्नी को पुन:प्राप्त करने का मार्ग और पता पूछ रहे हैं? फिर भी आपने इनको सच्चिदानंद कहकर क्यों प्रणाम किया? माया मृग के पीछे दौड़कर वह सत सत्य कैसे होगा? जो जड़ और चैतन्य का भेद नहीं जानता है, वह चित-चैतन्य कैसे होगा? जो पत्नी वियोग और प्राप्ति के लिए रो रहा है, उसमें आनंद कहां है?
भगवान शिव ने सत, चित, आनंद की बहुत प्रकार से व्याख्या कर समझाया कि प्रभु के अंदर जीव धर्म नहीं होता है!
हर्ष-विषाद ग्यान-अज्ञाना,जीव धर्म अहमिति अभिमाना।
सती! ये हर्ष-विषाद, ज्ञान और अज्ञान विक्षेप अभाव प्राप्ति की इच्छा, ये सब जीव के धर्म हैं। ये तो हमारे प्रभु राम हैं, जो अपने भक्तों को इस भवसागर से पार उतारने के उपाय बताने के लिए अवतरित हुए हैं। वस्तुत: इनके अंदर कभी असत, जड़ता, और दुख का भाव आ ही नहीं सकता है। ये तो जानबूझ कर मनुष्यों जैसी लीला कर रहे हैं। माया, जड़ता और दुख को लीला की पूर्णता के लिए स्वयं स्वीकार करके सब कर रहे हैं। पर सती नहीं मानीं। भगवान समझ गये कि मेरे कहने पर भी यदि सती मान नहीं रही हैं, तो इसमें तो प्रभु की कोई प्रबल माया कार्य कर रही है। यह बहुत बड़ा सूत्र जीवन के लिए है। यदि कोई आपके समझाने पर भी न मानें तो या तो हम उसको डांट-फटकार कर अज्ञानी घोषित कर उसका उपहास करने लगते हैं। पर भगवान का भक्त यह नहीं करता है। वह तो किसी के चरित्र में न्यूनता देखकर अपने जीवन के लिए शिक्षा लेता है। उसकी मति के कपाट और भी खुल जाते हैं कि देखें अब हमारे प्रभु इसके जीवन से हमें क्या सिखाना चाहते हैं। ज्ञानी तो वही है, जो संसार में हर व्यक्ति, हर घटना और प्रत्येक परिणाम से कुछ न कुछ सीख लेता है। वह या तो यह सीखता है कि ऐसा करना है या फिर यह सीखता है कि ऐसा नहीं करना है। सत और असत दोनों वृत्तियां हमें शिक्षा देने के लिए ही आती हैं। भगवान शंकर ने देखा कि जब सती समझाने पर भी नहीं समझ रही हैं तो उन्होंने ध्यान करके अनुभव कर लिया कि यह प्रभु श्रीराम की ही माया है। अत: उन्हें सती पर क्रोध नहीं आया। शंकर जी ने स्वयं से संवाद किया!
होइहिं सोइ जो राम रचि राखा।को करि तर्क बढ़ावइ साखा।यह मान कर शंकर जी वटवृक्ष के नीचे बैठ गये और भगवान के नाम का जप करने लगे। भगवान की इच्छा देखना और स्वयं भगवान में लग जाना, यह अकाट्य सूत्र है। राम नाम ही वह मणि है, जो माथे की रेखाओं में लिखे कठिन कुअंकों को मिटाकर सौभाग्य का पुनर्लेखन कर सकती है :राम नाम मणि विषय व्याल के।मेटत कठिन कुअंक भाल के।।
यही मानकर शंकर जी नाम जप करने लगे। सती भगवान की परीक्षा लेने चली गईं कि देखें कि यह भगवान हैं या कोई साधारण राजकुमार? ईश्वर श्रद्धा, विश्वास का विषय है, परीक्षा का नहीं। जितनी देर सती ने भगवान की परीक्षा लेने में समय बर्बाद किया, उतनी देर भगवान शंकर समाधि में चले गये। उन्हें सती जी का किया सब दिखाई दे गया। वहां भगवान ने शंकर जी की प्रिय सती को कृपापूर्वक अपना प्रभाव दिखाकर उन्हें संशयात्मा विनश्यति होने से बचा लिया। लौटकर जब सती शंकर जी के पास आईं, वह असत्य भाषण कहकर भगवान शंकर में स्वयं की कल्पित क्रोध की भावना से बचना चाहती थीं कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली। शंकर जी ने पुन: भगवान की विश्वविमोहिनी माया को प्रणाम किया और तुलसीदास जी ने लिखा :
बहुरि राम मायहि सिरु नावा,प्रेरि सती जेहि झूठ कहावा।।शंकर जी ने सती द्वारा बोले गये असत्य भाषण में भी भगवान की इच्छा मानी। यही है शिव का शिव स्वरूप, जो सदा शिव रहते हैं, कभी अशिव नहीं होते। हम लोग दूसरे के दोष को बड़ा करके और गुणों को छोटा करके देखते हैं, पर भगवान शंकर गुण और दोष से सदा ऊपर रहकर संसार और संस्कारियों में केवल भगवान की इच्छा, कृपा और माया देखते हैं। संवाद का समापन विवाद में नहीं होना चाहिए। शिव तो वही हो सकता है, जो विष को पीना जाने। सती के साथ झूठ का विष पिया, फिर वे ही सती जब पार्वती बनीं, तब उन्हीं सती को पार्वती रूप में भगवान शंकर ने रामकथामृत पिलाया।
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्यं, श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं। धन्यास्ते कृतिन:पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतं।।धन्य हैं वे भक्त, जो जन्म-मरण के भय से मुक्त करने वाले, कलियुग के मल को दूर करने वाले राम नाम का निरंतर पान करते रहते हैं। शंकर जी ही हैं, जो विष पीकर भी अमृत पिलाते हैं। हम संसार के लोग स्वयं अमृत पीकर भी सत्य के नाम पर, धर्म के नाम पर, निष्ठा के नाम पर दूसरों को विष पिलाते रहते हैं। इसीलिए संवाद शुरू तो होता है, पर समापन विवाद से होता है। रामायण में विवाद पहले है, पर गरुड़-काकभुशुंडि संवाद बाद में है। शंकर-पार्वती संवाद का ही तो दिव्य रूप राम कथा है।